विचार

इस सरकार में अमीरों पर रहम और गरीबों पर जुल्म, रईस डिफॉल्टरों पर RBI के ताजा पत्र से फिर हुआ साफ

पहले से ही बैंकों ने पिछले 10 वर्षों में 13 लाख करोड़ रुपये से अधिक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों को बट्टे खाते में डाल दिया है। जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों के लिए समझौता फार्मूला तैयार करने का बैंकों को मिला विवेक उनके लिए सोने पर सुहागा जैसा काम करेगा।

रईस डिफॉल्टरों पर RBI के ताजा पत्र से उठे गंभीर सवाल
रईस डिफॉल्टरों पर RBI के ताजा पत्र से उठे गंभीर सवाल फोटोः सोशल मीडिया

कुछ साल पहले की बात है। हरियाणा के एक किसान ने अंडरग्राउंड पाइप डालने के लिए छह लाख रुपये का लोन लिया था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था। मामला अदालत पहुंचा और उसे दो साल की कैद और 9.83 लाख जुर्माने की सजा सुनाई गई।

सिर्फ हरियाणा में ही नहीं, हाल के सालों में देश भर में बैंकों की छोटी-मोटी बकाया राशि नहीं चुकाने की वजह से बड़ी संख्या में किसानों को जेल में डाल दिया गया है। अगर जेल नहीं भेजा गया तो बैंक पहले तो किसानों की ट्रैक्टर जैसी चल संपत्ति जब्त कर लेते हैं और उसके बाद भी बकाया नहीं मिला तो खेत जब्त कर लिए जाते हैं। 

ऐसे में, इन छोटे-छोटे डिफॉल्टरों, जो ज्यादातर मामलों में फसलों के खराब हो जाने या फिर कीमतों के जमीन सूंघने की वजह से लोन वापस नहीं कर पाते, के बचाव में आने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अमीर बदमाशों, धोखेबाजों और जानबूझकर लोन न चुकाने वालों के लिए ‘रक्षा कवच’ की सुविधा उपलब्ध कराने का फैसला किया। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए, इसने राष्ट्रीयकृत बैंकों को जानबूझकर चूक करने वालों के तौर पर पहचाने गए खातों के लिए समझौता निपटान या फिर लोन राशि को बट्टे खाते में डालने की इजाजत दे दी है। 12 महीने की कूलिंग अवधि के बाद, ये डिफॉल्टर जिनके पास भुगतान करने की क्षमता है लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं, नए लोन तक ले सकते हैं।

Published: undefined

अगर यह वैध समाधान तंत्र है, जैसा कि आरबीआई कहता है, तो सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि यही फॉर्मूला किसानों, एमएसएमई क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर क्यों लागू नहीं किया गया है जो घर या कार लोन लेने के लिए नियमों का पालन करते हुए कर चुका कर अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे लगाते हैं? अन्यथा मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और माइक्रो-फाइनेंस संस्थानों (एमएफआई) के किराये के गुंडे आए दिन डिफॉल्टरों की चल संपत्ति को जब्त करने के लिए जोर-जबरदस्ती की रणनीति क्यों अपनाएंगे? 

हाल ही में एक टोल नाके पर रिकवरी एजेंटों (गुंडों) ने एक डिफॉल्टर की कार जब्त कर ली। वहीं, एक एनबीएफसी प्रमुख ने झारखंड में कर्ज न चुकाने वाले एक किसान की गर्भवती बेटी की मौत के लिए माफी मांगी थी। उसे तब कुचल दिया गया था जब रिकवरी एजेंट ट्रैक्टर के साथ भागने की कोशिश कर रहे थे जिसके लिए किसान ने लोन ले रखा था। लेकिन आरबीआई की नजरें तो दूसरी तरफ हैं। 

मैं इस बात से स्तब्ध हूं कि आरबीआई ने बैंकों को जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के साथ समझौता करने की इजाजत देने वाला पत्र भला कैसे जारी कर दिया? ऐसे लोगों को तो कायदे से अब तक जेल में होना चाहिए था। और फिर जब आरबीआई के इस पत्र पर हंगामा मचा तो मामले को ठंडा करने के लिए जो ‘नरम’ स्पष्टीकरण दिए गए, उससे और भी सवाल खड़े हो गए। इससे केवल यही बात जाहिर होती है कि आरबीआई की सारी उदारता अमीर डिफॉल्टरों के लिए है। ऐसे डिफॉल्टर जो बैंकिंग नियामक के नियम-कायदों की कतई परवाह नहीं करते।

Published: undefined

अन्यथा मुझे कोई और कारण नहीं दिखता कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जाती। पिछले दो वर्षों में इनकी संख्या में 41 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इनकी संख्या बढ़कर 16,044 हो गई है और इन पर बैंकों का कुल मिलाकर 3.46 लाख करोड़ रुपये बकाया है। इसके अलावा, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पिछले सात वर्षों में बैंक धोखाधड़ी और घोटालों में हर दिन 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। जो भी हो, कई जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों जिनमें विजय माल्या, मेहुल चोकसी और ललित मोदी जैसे लोग शामिल हैं, जो देश छोड़कर भाग गए हैं, को अब आरबीआई के इस रुख से राहत मिलेगी कि बैंक उनके साथ समझौता कर सकेंगे। इनमें से कई को बकाए की बड़ी राशि के बट्टे-खाते में जाने का फायदा होगा और उसके बाद भी वे आगे फिर से लोन लेने के पात्र होंगे।

क्या यह ऐसी व्यवस्था नहीं जो वास्तव में इस तरह की गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार है!

मुझे हैरानी है कि आरबीआई ने छोटी राशि के बकाएदारों जिनमें किसान भी शामिल हैं, के प्रति कभी इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई? छोटे किसानों को जेल की सजा क्यों भुगतनी पड़ती है जबकि व्यापार में अमीर बदमाशों को नियमित रूप से जमानत मिल जाती है और उनके लिए लोन की राशि में भी भारी कटौती कर दी जाती है और इसलिए उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता है। वे जन्मदिन मनाना, महंगी छुट्टियां मनाना और शानदार जीवनशैली जारी रखते हैं। आरबीआई के हालिया सर्कुलर से उन्हें बड़ी राहत का रास्ता साफ हो गया है और अब इस धंधे से जुड़े धोखेबाजों को डरने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें बस इतना अमीर होना है कि वे उस श्रेणी में आ सकें जिसके चारों ओर बैंक ने एक सुरक्षात्मक घेरा तैयार कर दिया है।

Published: undefined

कभी-कभी मुझे लगता है कि बैंकिंग व्यवस्था ही बढ़ती असमानता का मूल कारण है। आखिरकार, अगर बैंक बैंकिंग प्रणाली को धोखा देने वाले उधारकर्ताओं के साथ इस तरह का व्यवहार जारी रखते हैं, तो यह केवल उस गेम प्लान को उजागर करता है जो अमीरों को धन इकट्ठा करने में मदद करता है। इसलिए नहीं कि वे प्रतिभाशाली हैं बल्कि इसलिए कि बैंक जनता के पैसे से उन्हें उबारते रहते हैं। पहले से ही, बैंकों ने पिछले 10 वर्षों में 13 लाख करोड़ रुपये से अधिक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) को बट्टे खाते में डाल दिया है और जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के लिए समझौता फार्मूला तैयार करने का बैंकों को दिया गया विवेक उनके लिए सोने पर सुहागा जैसा काम करेगा। 

जबकि अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ आरबीआई नीति के आलोचक रहे हैं, अधिकतर बिजनेस मीडिया इसके समर्थक रहे हैं। इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि जब भी कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने का कोई मुद्दा सामने आता है, तो कॉरपोरेट अर्थशास्त्रियों की एक टीम अचानक सामने आकर उसका बचाव करने की कोशिशों में जुट जाती है, भले ही वह निर्णय कितना भी गलत क्यों न हो।

यह तब हुआ, जब ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने विकराल होती असमानताओं को कम करने के लिए संपत्ति कर लगाने के लिए कहा। भारत में कुछ अर्थशास्त्रियों ने तब कहा था कि अमीरों के एक छोटे वर्ग के ऊपर संपत्ति कर बढ़ाना सही नहीं होगा। यह भी उतना ही हैरान करने वाला है कि कैसे कुछ अर्थशास्त्री, आरबीआई के निर्देश को सही ठहराने की कोशिश करते हुए, यहां तक कह देते हैं कि ऋण की वसूली करते समय बैंक को इस बात में कोई अंतर नहीं करना चाहिए कि डिफॉल्ट जानबूझकर किया गया, या अनजाने में या फिर किसी भी और इरादे से।

Published: undefined

यदि ऐसा है, तो मुझे आश्चर्य है कि मध्यम वर्ग के निवेशकों और किसानों के लिए इस अपवाद की अनुमति क्यों नहीं है? यदि किसानों और मध्यम वर्ग के डिफॉल्टरों को समान विशेषाधिकार मिलते हैं तो आप उन्हीं अर्थशास्त्रियों को इस नीति पर सवाल उठाते हुए देखेंगे। उदाहरण के लिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मीडिया में वे विशेषज्ञ और अन्य लोग जिन्होंने कर्नाटक में रोडवेज बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा पर सवाल उठाते हुए कहा था कि इससे राज्य सरकार को प्रति वर्ष 4,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा, जब सवाल पूछा जाता है तो वे स्पष्ट रूप से चुप हो जाते हैं। 3.46 लाख करोड़ रुपये के बट्टे खाते में डाले जाने की उम्मीद है और वह भी जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले एक वर्ग के लिए। उन्हें इस उदारता से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन वे हमेशा गरीबों के लिए घोषित प्रोत्साहनों पर सवाल उठाते हैं।

मैंने सोचा कि आरबीआई कम से कम गरीब मजदूरों के खिलाफ इस अंतर्निहित पूर्वाग्रह से दूर रहेगा। इसके विपरीत, विवादास्पद परिपत्र जो बैंकिंग प्रणाली के बदमाशों और धोखेबाजों के लिए एक सुरक्षात्मक जीवनरेखा प्रदान करता है, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आरबीआई को बहुत कुछ सीखना है और शायद ‘दोहरे मानक’ को रोकने के लिए एक ठोस प्रयास करना है जो हर स्थिति में अमीरों का पक्ष लेता है- तरह-तरह के आर्थिक लाभ, और राष्ट्रीय बैलेंस शीट को बिगाड़ने और नैतिक खतरा बनने के लिए गरीबों की निंदा करना।

(देविंदर शर्मा जाने-माने कृषि नीति विशेषज्ञ हैं)

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined