कुछ लोगों ने अपने संकीर्ण उद्देश्यों के लिए इतिहास को बहुत अनुचित ढंग से उपस्थित किया है। विशेष तौर से इतिहास को सांप्रदायिक ढंग देने का कुप्रयास किया गया है। पर वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। विभिन्न धर्मों के शासक कई बार आपसी सहयोग से सामान्य दुश्मन के विरुद्ध लड़ते थे। अनेक शासकों ने अपने धर्म से अलग सैनिकों को बहुत ऊंचे पद दिए और इन सैनिकों ने भी अपनी वफादारी को खूब निभाया। भारत में मध्यकालीन युद्ध की अनेक सेनाएं मिली-जुली होती थीं।
मध्यकालीन युग के महत्त्वपूर्ण युद्धों को देखें तो पता चलेगा कि यह हिन्दू-मस्लिम युद्ध नहीं थे, बल्कि दोनों ओर मिली-जुली सेनाएं थीं। हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर की ओर से राजा मान सिंह को सेनापति बनाया गया तो राणा प्रताप की ओर से हकीम खाँ सूर और उनके मुस्लिम सैनिक वीरता से लड़े। शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिए।
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जब बाहरी हमले होते थे तो उनका भार हिन्दू-मुसलमानों दोनों को सहना पड़ता था। मंगोल हमलों से निपटने में हिन्दू-मुसलमान दोनों की साझी भूमिका थी। नादिरशाह का मुकाबला मुहम्मद शाह ने करनाल में किया तो अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला मराठों ने पानीपत में किया। इन युद्धों में हिन्दू राजाओं की सेना में भी मुसलमान सेनापति और सहयोगी थे। अहमद शाह अब्दाली से लड़ने वाली मराठा सेना के एक बहुत मुस्तैद हिस्से का नेतृत्व इब्राहीम खां गर्दी ने किया।
ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें हिन्दू राजा को हिन्दू राजा ने हरा दिया और उत्पीड़ित किया तो उसे मुस्लिम राजा ने शरण दी। उदाहरण के लिए मारवाड़ के राजा ने बीकानेर के राजा को हरा दिया और बीकानेर का राजा युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया। तब उसके बेटों कल्याण दास और भीम को शरण कहां मिली? शेरशाह सूरी के दरबार में। इसी तरह हुमाऊं को शेरशाह सूरी ने हरा दिया तो उसे शरण किसने दी? अमरकोट के राणा ने। वहीं, अकबर का जन्म भी हुआ।
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वास्तव में अकबर ने अनेक महत्वपूर्ण सैनिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियां हिन्दू राजाओं और सामन्तों को सौंप दी थीं। अतः जब हिन्दू राजाओं से अकबर के युद्ध हुए तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दुओं और मुसलमानों के युद्ध हुए, क्योंकि अकबर की ओर से भी हिन्दू सेना और सेनापति भेजे गए थे। दूसरी ओर यह भी सच है कि मुगल सेनाएं जो हिन्दू सेनापतियों के नेतृत्व में थीं और जिनमें बहुत से हिन्दू, विशेष कर राजपूत सैनिक थे, अन्य मुस्लिम राजाओं के विरूद्ध लड़ने गए। कई बार इन विरोधी मुस्लिम राजाओं की सेना में अनेक हिन्दू सैनिक और सेनापति भी होते थे। उदाहरण के लिए दक्षिण में मुस्लिम शासकों की सेना में अनेक मराठा सैनिक थे। इस तरह प्रायः दोनों ओर से मिली-जुली सेना होती थी। ऐसा नहीं कि एक ओर केवल हिन्दू हों और दूसरी ओर केवल मुस्लिम।
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अनेक राजपूत राजाओं को लाहौर, काबुल, बंगाल, बिहार, गुजरात, अजमेर जैसे महत्वपूर्ण स्थानों का गवर्नर बनाया गया और इन्होंने इन पदों पर रहते हुए मुगल राज्यों की रक्षा की एक मुख्य जिम्मेदारी संभाली। वर्ष 1572 में जब अकबर को गुजरात जाना पड़ा तो आगरा (जहां राज परिवार की सब महिलाएं रह रही थीं) की जिम्मेदारी राजा भारामल को सौंपी गई।
अकबर और कुछ हद तक जहांगीर के समय की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इन मुगल शासकों को स्वयं मुस्लिम कट्टर पंथियों का विरोध सहना पड़ा और युद्ध के समय मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इन मुगल शासकों के विरुद्ध फतवे भी जारी किए। वर्ष 1580-81 में बंगाल और बिहार में अकबर के विरुद्ध विद्रोह हुआ तो विद्रोहियों के पक्ष में फतवा जारी किया गया कि सब मुसलमान अकबर के विरुद्ध लड़ें। दूसरी ओर इन विद्रोहियों को कुचलने के लिए अकबर ने जो सेनाएं भेजीं उनका नेतृत्व राजा टोडरमल और राजा मान सिंह ने किया। टोडरमल, मान सिंह और भगवान दास की सेनाओं के आगे विद्रोहियों के लिए अधिक देर तक टिकना संभव नहीं रहा।
सवाल यह है कि जब कोई मुस्लिम उदारपंथी राजा किसी हिन्दू राजा या सेनापति के सहयोग से मुस्लिम कट्टरपंथियों का विरोध दबा रहा है या किसी हिन्दु राजा की सेना में मुस्लिम सेनापति और सैनिक बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं तो इसे दो धर्मों का युद्ध कैसे कहा जा सकता है? इस तथ्यात्मक स्थिति के बावजूद सांप्रादायिक तत्त्व निरंतर इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते रहते हैं। ऐसे कुप्रयास से सावधान रहना चाहिए।
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