फ़्रांसीसी क्रान्ति ने इतिहास बदल दिया। राजशाही और सरकार में चर्च की भूमिका को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया। पूरी दुनिया को समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सिद्धान्त दिया। इस क्रान्ति की प्रक्रिया में अकल्पनीय हिंसा हुई। बहुत कम लोगों को याद होगा कि क्रांति के जिन नेताओं ने राजसत्ता को समाप्त करने के लिये जिस हिंसा को जायज़ ठहराया था, वो उसी हिंसा की बलि चढ़ गये। मैक्समीलियन राब्सपियरे क्रांति के आयोजकों में सबसे बड़ा नाम था। पर जिस तरह उसने क्रांति के नाम पर लोगों को गिलोटीन पर चढ़ाया, लोगों की जान ली, उसकी विभीषिका को पढ़ सुनकर दहशत होती है। बाद में उसी राब्सपियरे को घसीटते हुये गिलोटीन पर लाया गया और उसकी गर्दन धड़ से अलग की गयी। ऐसा ही एक नाम ज्या पां मरा का था।
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मरा एक पत्रकार था। फ़्रेंड्स आफ पीपुल नाम से एक अख़बार निकालता था। क्रांति के दौरान उसका अख़बार खूब पढ़ा जाता था। उसका अख़बार क्रांतिकारियों की वकालत करता था। इतना होता तो ग़नीमत होती। पत्रकारिता के नाम पर उसने लोगों को भड़काना शुरू कर दिया। सच्ची झूठी खबरे छापना शुरू कर दिया। प्रति क्रांतिकारियों की लिस्ट छाप कर उनके क़त्ल की वकालत भी करने लगा। फ़्रांस के राजा लुई और उनकी पत्नी मरिया अंतोनियोत अकुशल और जनता से कटे हुये थे लेकिन जब ज्या पा मरा ने ये खबर छापी कि एक तरफ़ फ़्रांस की जनता भूखों मर रही है, दूसरी तरफ़ राजा और उसकी पत्नी अनाज का भंडार महल में रखे हुये और गुलछर्रे उड़ाये जा रहे है, तो लोग भड़क उठे और महल पर हमला कर दिया। क्रांति के लिहाज़ से ये खबर सही हो सकती है लेकिन पत्रकारिता के लिहाज़ से ये सफ़ेद झूठ था, फेक न्यूज़ था। खबर नहीं प्रोपगंडा था।
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आज देश में एक तबके को ये लग सकता है कि फ़्रांस की क्रांति की तरह ही भारत में हिंदू राष्ट्र के लिये क्रांति का वातावरण बन रहा है, कुछ पत्रकार इस मुग़ालते में जी सकते हैं पर क्या उन्हें 1789 से 1794 की तर्ज़ पर झूठी और फेक न्यूज़ फैलाने की इजाज़त दी जा सकती है? क्या उन्हें हिंसा के लिये माहौल बनाने की अनुमति होनी चाहिये? क्या ऐसे लोगों की ज्या पा मरा की तरह एक समुदाय विशेष के विरूद्ध नफ़रत की दीवार खड़ी करने की कोशिश को सही ठहराया जा सकता है? ये सवाल आज देश की पत्रकारिता और टीवी चैनलों के साथ देश की जनता से पूछना चाहिये और ये भी सवाल पूछना चाहिये कि जब वो इस तरह की कुत्सित हरकत कर रहे हो तो उनके ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई होनी चाहिये?
यहाँ सवाल फ़्रांसीसी क्रांति से तुलना कर मौजूदा माहौल को महिमामंडित करने का नहीं है। दोनों घटनाओं की आपस में तुलना हो ही नहीं सकती। फ़्रांसीसी क्रांति ने इतिहास की जड़ता को ख़त्म कर इतिहास को नयी दिशा दी, उसने नागरिक और जनता को सम्मान दिया, सत्ता को एक व्यक्ति के हाथ से छीन कर आम जन को सौंप दिया। और लोकतंत्र की स्थापना की। आज इतिहास के पहिये को पीछे ले जाने का प्रयास हो रहा है, आम जन से अधिकार छीन कर कुछ लोगों को सत्ता सौंपी जा रही है और लोकतंत्र का अपहरण किया जा रहा है। यहां सवाल सिर्फ़ एक संपादक का है कि कैसे वो अपने पत्रकारीय धर्म को भूल कर नफ़रत और ज़हर की फसल खड़ी कर रहा है, कैसे वो हिंसा के लिये वातावरण तैयार कर रहा है, कैसे वो पत्रकारिता के नाम पर लोकतंत्र की जड़ों में मुठ्ठा डाल रहा है।
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ये सच है कि कई बार इस देश की पत्रकारिता अपने पथ से विमुख हुयी है। आज़ादी के पहले एक जमाना वो भी था जब गांधी जी “यंग इंडिया” और “हरिजन” जैसे अख़बार निकालते थे, बाल गंगाधर तिलक ने “मराठा” और “केसरी” अख़बार निकाल जनता से संवाद किया था, बाबा साहेब आंबेडकर ने “मूक नायक” निकाल दलित तबके में चेतना का संचार करने का काम किया था। पर इसी देश में आपात काल के दौरान सारे पत्रकारों ने घुटने टेक दिये। और सरकार की हाँ में हाँ मिलाई। लेकिन बाद में इसी प्रेस ने तत्कालीन सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। राम मंदिर आंदोलन के समय इस मीडिया का एक हिस्सा पूरी तरह से सांप्रदायिक रंग में रंग गया था, और मुस्लिम तबके के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन यही वो मीडिया भी था जिसने यूपीए शासन के कामकाज पर खुलकर सवाल उठाए। लेकिन 2014 के बाद मीडिया ने जो भूमिका, और ख़ासतौर पर टीवी ने अपने लिये चुनी है वो शर्मनाक है, पीड़ादायक है, लोकतंत्र विरोधी है, समाज को तोड़ने वाला है और इतिहास का दुश्मन है।
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पत्रकारिता का बुनियादी स्वभाव सत्ता विरोध का है। उसका काम सरकारों को चुनौती देना नहीं बल्कि सरकार की ख़ामियों को उजागर कर उसे जवाबदेह बनाना है। आज, एकाध टीवी चैनेल को छोड़ कर बाकी सभी सरकार के अघोषित प्रवक्ता बन गये हैं। वो सरकार से सवाल नहीं पूछते । प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से सवाल पूछना ईशनिंदा है। उलटे पूरी कोशिश विपक्ष को कठघरे में खड़ा करना है। उनकी नरम पीठ पर चाबुक फटकारना है। चीन भारत की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर ले तो सरकार से सवाल पूछने की जगह विपक्ष को चीनी हरकत के लिये ज़िम्मेदार ठहराना है। कोरोना के लिये भी विपक्ष को गाली देनी है और अर्थव्यवस्था अगर नीचे जा रही तो भी विपक्ष की ही लानत मलामत करनी है। यानी सरकार की ग़लतियों को छिपाना हैं और विपक्ष को कोसना है। ये भारतीय मीडिया में नया फिनामिना है। इसके साथ साथ सरकार के एजेंडे और उनकी विचारधारा को बड़े पैमाने पर फैलाना भी टीवी बेशर्मी से करता है।
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भारतीय मीडिया नब्बे के दशक के शुरूआती दौर को अगर छोड़ दें तो कभी भी वो सांप्रदायिक नहीं रहा। लेकिन 2014 के बाद से वो खुलेआम उसका रवैया बहुसंख्यकवाद का हो गया है, और एक समुदाय के खिलाफ नफ़रत का माहौल बना रहा है। कोरोना के समय तब्लीगी जमात पर हमला इसकी एक बानगी भर है। टीवी चैनलों पर डिबेट के समय मुस्लिम पैनलिस्ट, जो सरकार की आलोचना करते हैं, उनके साथ जो बर्ताव एंकर करते हैं, वो किसी दुश्मन देश जैसा है। इनकी नज़र में कश्मीर पर शांति की बात करने वाला देश का सबसे बड़ा दुश्मन। उसके निशाने पर लिबरल और लेफ़्ट विचारधारा के लोग भी हैं । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर हमला हो या फिर शाहीन बाग आंदोलन, उसने उनके ख़िलाफ़ हिंसक वातावरण बनाने की पूरी कोशिश की है। मीडिया इस देश में हिंसक समाज बना रहा है। किसी को भी वो देशद्रोही करार देता है, फिर चाहे वो कन्हैया कुमार हो या फिर नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलनकारी। उनकी नज़र में ये सब ग़द्दार है।
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पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत के मुद्दे को जिस तरह से उछाला गया, उसने सारी लक्ष्मण रेखायें तोड़ दी है। मीडिया के नाम पर जो थोड़ी बहुत शर्म दिखती थी वो झीना पर्दा भी गिरा दिया। बिना किसी सबूत और साक्ष्य, रिया और उसके परिवार को सूली पर चढ़ाया गया। वो डरावना है, ख़ौफ़नाक है ये देश के किसी भी नागरिक के साथ हो सकता है । पहले उसे सुशांत का क़ातिल ठहराया गया, फिर 15 करोड का घोटालेबाज़ और अंत में ड्रग पेडलर। खुलेआम एक नागरिक और इसके परिवार को आत्महत्या के कगार पर पंहुचा दिया बिना किसी कारण के। सीबींआई और प्रवर्तन निदेशालय जब कोई सबूत नहीं जुटा पाये तो नारकोटिक्स ब्यूरो ने झूठा केस बना कर जेल भेज दिया। मीडिया को नारकोटिक्स ब्यूरो की धज्जियाँ उडा देनी चाहिये लेकिन वह रिया और पूरे बालीवुड को नशेडी साबित करने में जुटा रहा।
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एक नागरिक के ख़िलाफ़ सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर साज़िश रचने का अपराध टीवी के बड़े संपादकों और एंकरों ने किया है। लिहाज़ा इन्हें प्रेस की आज़ादी की आड़ में न तो शरण मिले और न ही सहानुभूति। ये अपराधी हैं, समाज के, लोकतंत्र के और देश के। ये टीआरपी के राक्षस हैं। ये नागरिकों के दुश्मन हैं। टीआरपी के घोटाले ने साबित कर दिया है कि इनका कोई दीन ईमान नहीं है।
पुरानी कहावत है, जो इतिहास से सबक़ नहीं लेते वो इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिये जाते हैं । ज्या पा मरा को लगा था कि वो अपने अख़बार के ज़रिये क्रान्ति की सेवा कर रहा था । वो भूल गया था जब वो हिंसा की वकालत कर रहा था, जब वो तथाकथित क्रांति के शत्रुओं की सूची बना लोगों को उनके क़त्ल के लिये उकसा रहा था, तब वो दरअसल अपनी मौत की ज़मीन खुद तैयार कर रहा था। एक दिन उसके द्वारा उकसाई हिंसा उसके ही ख़िलाफ़ खड़ी हो गयी । अपने ही घर में उसका कत्ल हो गया। शरला कोदेत नामक की एक लड़की ने उसका खून कर दिया था। कोदेत मरा की हिंसा के संपादकत्व से तंग आ चुकी थी ।
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