तो मायावती की राजनीति है क्या? यह सवाल अगर आज पूछा जा रहा है तो हैरान नहीं होना चाहिए! मायावती ने तीन दिन में दो बार पलटी मारी है। पहले उन्होंने कहा कि वह समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भारतीय जनता पार्टी को भी सपोर्ट कर सकती हैं। उनका यह बयान आया तो लोग भौंचक्के रह गए। आखिर, मायावती ने ऐसा क्यों कहा? अमूमन इस तरह की बात नेता विधानसभा या लोकसभा चुनावों के दौरान चुनावी गठबंधन के समय करते हैं। यहां तो सिर्फ राज्यसभा की कुछ सीटों के लिए ही वोट पड़ने थे। वह कोई बयान नहीं भी देतीं तो भी चलता।
उम्मीद के अनुसार बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता हतप्रभ रह गए। मायावती को फौरन अपनी गलती का एहसास हुआ होगा, लिहाजा उन्होंने बयान दिया कि बीजेपी के साथ वह कभी भी गठबंधन नहीं करेंगी। लोग कह सकते हैं कि मायावती ने भूल सुधार कर लिया है। हकीकत में जब कोई नेता इस तरह की बयानबाजी करता या करती है तो उसे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है। नेता की छवि बनती है कि वह कनफ्यूज्ड है, समझ साफ नहीं है और दूरदृष्टि का अभाव है।
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ऐसा नहीं है कि मायावती पहले कभी बीजेपी के साथ नहीं गईं। वह तीन बार बीजेपी की मदद से सरकार चला चुकी हैं और एक समय वह भी था जब मुरली मनोहर जोशी को वह राखी बांधा करती थीं। यूपी में बीजेपी उनके लिए कभी अछूत नहीं थी। लेकिन 2014 के बाद से बीजेपी को लेकर उनके सुर बदले हुए थे। वह बीजेपी के साथ आरएसएस की भी तीखी आलोचना करती थीं। यहां तक कि 2019 में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए उन्होंने अपनी जानी दुश्मन समाजवादी पार्टी से भी गठजोड़ कर लिया था।
यह वही समाजवादी पार्टी थी जिसने 1994 में गेस्ट हाउस कांड किया था और मायावती के साथ समाजवादी पार्टी के गुंडों ने बदसलूकी की थी। तब मुलायम सिंह यादव नेता थे। समाजवादी पार्टी के प्रति तल्ख़ी बीएसपी और मायावती के मन में हमेशा बनी रही। अपमान की आग हमेशा धधकती रही। ऐसे में समाजवादी पार्टी के साथ आना बड़ी राजनीतिक घटना थी। वह उस वक्त वह बीजेपी और मोदी को देश के लिए सबसे खतरनाक मानती थीं। जब वही मायावती अचानक बीजेपी को समर्थन देने की बात करने लगें, और वह भी ऐसे समय में जबकि कोई बडा कारण सामने न हो तो सवाल खड़ा होता है कि मायावती का फ़ैसला राजनीतिक है या परदे के पीछे कुछ अलग तरह का खेल खेला जा रहा है?
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मायावती एक आंदोलन से निकली हैं। कांशीराम इस आंदोलन के जनक हैं। यूपी के सामंती माहौल में दलित तबके के स्वाभिमान को जगाना, सदियों से दबी जातियों को जाति प्रथा की जकड़न से निकालना और दबंग जातियों के सामने खड़े होने की हिम्मत देना- किसी चमत्कार से कम नहीं है। आजादी के पहले बाबा साहेब आंबेडकर ने दलित चेतना को नई ऊर्जा दी थी। उसे देश की राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में स्थापित करने का काम किया था। बाबा साहेब ने 1927 में महादआंदोलन छेड़ अगड़ी जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की मुहिम छेड़ी थी और यह सवाल आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के सामने रख दिया था कि बिना दलितों को सम्मान दिए सामाजिक न्याय की बात न केवल अधूरी है बल्कि देश की आजादी का भी कोई मतलब नहीं।
बाबा साहेब का साफ मानना था कि आजादी सही मायनों मे तभी आजादी होगी जब स्वतंत्रता, समानता के साथ बंधुत्व का भी पालन हो। अन्यथा देश तो आजाद हो जाएगा, कानून के मुताबिक सब को समान अधिकार मिल जाएगा और वह अपनी बात को रखने के लिए स्वतंत्र भी होगा, पर सचाई में वह अगड़ी जातियों का ग़ुलाम ही रहेगा। अंग्रेज तो चले जाएंगे, पर दलित आजाद नहीं होगा, वह पहले की ही तरह आजादी में सांस नहीं ले पाएगा। इसलिए बाबा साहेब ने आरक्षण की बात की और यह कहा कि सत्ता में दलितों की भागीदारी हो। आंबेडकर ने जिस चेतना को जगाने का काम किया, इसने दलित चेतना को ऊर्जा तो दी, पर राजनीति की बिसात पर ये लोग कामयाब नहीं हो पाए। यहां तक कि आंबेडकर खुद अपना लोकसभा का चुनाव हार गए और उनकी पार्टी रिपब्लिक पार्टी हमेशा ही हाशिये पर रही। बाबा साहेब जहां कामयाब नहीं हुए, वहां कांशीराम ने कमाल कर दिखाया।
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कांशीराम ने बाबा साहेब की दलित चेतना को चुनावी राजनीति से मिला दिया और कामयाबी से यूपी में दलितों को एक बेहद मज़बूत ताक़त के तौर पर स्थापित किया। यूपी में बीएसपी इतनी बड़ी ताकत बन गई कि यूपी की राजनीति बिना बीएसपी के सोची भी नहीं जा सकती थी। मायावती पांच बार मुख्यमंत्री बनीं एक बार समाजवादी पार्टी और तीन बार बीजेपी के साथ तो एक बार अपने बल पर सरकार बनाई। 2007 में मायावती ने सवर्णों को अपने साथ मिलाने का अनोखा प्रयोग किया। इस प्रयोग की वजह से मायावती पहली बार अपने बल पर बहुमत का आंकड़ा जुटा सकीं। यूपी जैसे सामंती समाज में दलितों की सत्ता को अगड़ी दबंग जातियों का समर्थन देना एक अजूबा था क्योंकि सदियों से अगड़ी जातियों की ग़ुलामी करने के लिए दलित अभिशप्त रहे थे। यह करिश्मा था कांशीराम का।
मायावती उनकी उत्तराधिकारी थीं। वह कांशीराम के प्रयोग पर सवार हो सत्ता के शिखर पर तो पंहुचीं, पर वह उसे आगे नहीं ले जा सकीं। मायावती में उस दृष्टि का साफ अभाव दिखा। कांशीराम के लिए बीएसपी, दलित चेतना और आंदोलन को आगे ले जाने का औजार थी। उनके लिए सत्ता में भागीदारी भी आंदोलन था। मायावती के लिए आंदोलन पीछे रह गया। सत्ता में हिस्सेदारी ही मायावती के लिए सब कुछ हो गया। और जब सत्ता, सरकार सर्वोपरि हो जाए तो आंदोलन की धार को तो कुंद होना ही थी।
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यूपी में बीजेपी को 300 से अधिक सीटें मिलना और दलितों के एक बड़े तबके का बीजेपी को वोट देना इस बात का प्रमाण है कि दलितों को अब मायावती की राजनीति में ईमानदारी नहीं दिखती, उन्हें लगता है कि मायावती भी दूसरे नेताओं की तरह हो गई हैं। और दलित उनके लिए महज एक वोटर बन कर रह गया है। ऐसा लगता है कि दलितों को सामाजिक सम्मान दिलाना मायावती के एजेंडे से गायब हो गया है।
हाथरस में जब एक दलित लड़की से बलात्कार हुआ, उसकी मौत हुई और यूपी की सरकार उसे बलात्कार मानने से इंकार करती रही, परिवार को ही इलाके के दबंग, लड़की की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे, तब भी मायावती ने हाथरस जाकर लड़की के परिवार से मिलना गंवारा नहीं किया। राहुल गांधी, प्रियंका और दूसरे नेता गए, देश में इस खबर पर काफी हंगामा हुआ, पर मायावती अपने घर से बाहर नहीं निकलीं। जब वह दलित के साथ हो रहे अत्याचार में पीड़ित के साथ खड़ी नहीं होंगी तो दलित उनके साथ क्यों खड़ा होगा? यही कारण है कि भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण एक नई ताकत के तौर पर यूपी में उभर रहे हैं। वह दलितों के हक की लड़ाई में उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं। इस कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। जो काम मायावती को करना चाहिए, वह चंद्रशेखर कर रहे हैं तो जाहिर है, दलितों में उनका आकर्षण बढ़ेगा और इस वजह से मायावती को तकलीफ होगी।
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मायावती के लिए यह सबसे चुनौतीपूर्ण समय है। 2012 से हर चुनाव वह हारती आई हैं। 2014, 2017 और 2019 में उन्हें बुरी हार मिली है। उनका समाजिक आधार सिकुड़ता जा रहा है। बीजेपी की कामयाबी से यह साबित हो गया है कि मायावती दलितों में भी सिर्फ जाटव बिरादरी की ही नेता हैं। बीजेपी बाकी दलित तबके को अपने साथ लाने की कोशिश में लगी है। मायावती को इस बात का अंदाजा है। वह समझ रही हैं कि अब वह पहले की तरह महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं। पर उनके पास कोई नया फार्मूला नहीं है। कोई नई युक्ति नहीं है। इसलिए कभी वह अखिलेश से गठबंधन करती हैं और फिर तोड़ देती हैं, तो कभी बीजेपी के पास जाने की योजना बनाती हैं।
यह वह मायावती नहीं है जिन्हें मैं जानता हूं। यह वह मायावती हैं जो विवश हैं। पर यह विवशता उनकी अपनी बनाई हुई है, उनका अपना किया-धरा है। इससे उन्हें निकलना होगा। सड़क पर दलितों के लिए लाठी-डंडा खाना पड़ेगा। जेल जाना पड़ेगा और अगर वह ऐसा करती नहीं दिखेंगी तो हो सकता है, अगले चुनाव में वह अतीत हो जाएं।
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