जब भी कभी मुस्लिम समुदाय अपने पूजा स्थल ध्वस्त करने का विरोध करता है, अक्सर प्रतिप्रश्न होता है: क्या सरकार ने काशी और अयोध्या में भी मंदिरों पर बुलडोजर नहीं चलाया? क्या इससे यह साबित नहीं होता कि इसके इसके पीछे कट्टरता नहीं बल्कि जनता की सुविधा या प्रशासनिक अनुपालन है? हालांकि दोनों को बराबर रखने का प्रयास गलत है। काशी और अयोध्या में हिन्दू मंदिर खासे भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए ढहाए गए जबकि इस्लामी संरचनाओं को सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण के नाम पर ढहा दिया गया, भले ही वे सदियों पुरानी रही हों।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर जर्नलिस्ट्स से सम्बद्ध नेटवर्क ऑफ साउथ एशियन जर्नलिस्ट्स (वॉशिंगटन) के एक शोध प्रबंध से खुलासा होता है कि दुर्लभ मामलों में अगर कहीं, जब प्रशासन ने देखभाल करने वालों को वैसी संरचनाएं ध्वस्त न करने के पीछे के तर्क या कारण बताने का नोटिस तो दिया लेकिन समुचित सुनवाई या उनके द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज देखे बिना अपनी कार्रवाई आगे बढ़ा दी।
Published: undefined
शोध प्रबंध से पता चलता है कि सिर्फ उत्तराखंड में पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान 300 से अधिक मजारों, मस्जिदों और मदरसों पर बुलडोजर चला। ज्ञानवापी विवादित ढांचा मामले में हिन्दू पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले विष्णु जैन का दावा है कि देश भर में कम-से-कम 50 ‘विवादित’ मस्जिदें और स्मारक ऐसे हैं जिन्हें हिन्दुओं को सौंप देने की जरूरत है।
उधर, इतिहासकार शाहिद सिद्दीकी का दावा है कि विभिन्न हिन्दू संगठनों ने लगभग 30,000 ऐसी संरचनाओं की सूची तैयार की है जिनमें से कई मुस्लिम समुदाय के लिए धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और वास्तुकला के नजरिये से भी महत्वपूर्ण हैं और जहां वे लगातार इबादत करते आ रहे हैं।
Published: undefined
ज्ञानवापी मामले में मुस्लिम पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील फरमान हैदर नकवी बताते हैं कि हालांकि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 में स्पष्ट है कि धार्मिक स्थल वैसे ही बने रहने चाहिए जैसे वे 15 अगस्त, 1947 को मौजूद थे लेकिन इस अधिनियम को ही चुनौती दी गई है जो उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है। उनका कहना है कि इसके कारण निचली अदालतों को टिप्पणियां करने, सर्वेक्षण का आदेश देने और छिटपुट शिकायतों को सुनवाई के लिए स्वीकार करने की छूट मिल गई है।
कई बार तो न्यायालयों ने पूजा स्थलों का स्वरूप भी बदल दिया है। उदाहरण के लिए, वाराणसी में अदालत ने हिन्दुओं को ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में पूजा करने की अनुमति दी और जिला न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि हिन्दू याचिकाकर्ताओं की पूजा करने की अनुमति वाली याचिका अधिनियम का उल्लंघन नहीं करती है।
Published: undefined
बीजेपी शासित राज्यों में मुस्लिम पूजा स्थल युद्ध के मैदान बन गए हैं। यह चलन नया नहीं है। जामनगर, अहमदाबाद, वडोदरा और भोपाल में तो मौजूदा सड़कें चौड़ी करने के नाम पर या अतिक्रमण विरोधी अभियान के तहत मस्जिदें और मजारें वर्षों से तोड़ी जा रही हैं। 1990 के दशक में जब कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, गाजियाबाद में गाजीउद्दीन गाजी की कब्र को ध्वस्त कर दिया गया था।
मुस्लिम पूजा स्थलों और नामों के खिलाफ युद्ध 2014 से तेज हुआ और इसकी शुरुआत नाम बदलने की होड़ से हुई। मुगलसराय जंक्शन बदलकर दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन बन गया। इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज हो गया। गुड़गांव गुरुग्राम बन गया। खुले स्थान और पार्क जहां मुसलमान शुक्रवार की नमाज अदा करने के लिए एकत्र होते थे, उनके लिए वर्जित कर दिए गए। इसके बाद तोड़फोड़ का सिलसिला शुरू हो गया।
ऐसे में, अगर मुस्लिम समुदाय इसे उसके खिलाफ एक संगठित अभियान के रूप में देखता है, तो उसे शायद ही दोषी ठहराया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी की सत्ता में वापसी के साथ अब इसे और भी ज्यादा ऐसी संरचनाओं के खोने का भय सता रहा है।
Published: undefined
मई, 2024 में चुनाव प्रचार की गहमागहमी के बीच जौनपुर जिला अदालत में एक मामला दायर हुआ जिसमें दावा किया गया था कि इस शहर में 14वीं शताब्दी की अटाला मस्जिद एक प्राचीन हिन्दू मंदिर थी। याचिकाकर्ता, वकील अजय प्रताप सिंह ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें इसके एक निदेशक ने मस्जिद को मंदिर बताया था। मस्जिद का प्रतिनिधित्व कर रहे मौलाना शहाबुद्दीन ने इस दावे का खंडन करते हुए प्रतिदावा किया कि मस्जिद का निर्माण 1393 में फीरोज शाह तुगलक ने किया था। (विडंबना यह है कि तुगलक ने मस्जिद के ठीक बगल में जिस मदरसे की स्थापना की थी, उसे एएसआई द्वारा एक स्मारक के रूप में मान्यता दी गई है।)
इसी तरह का मुकदमा लखनऊ में दायर हुआ जिसमें दावा किया गया कि शहर का प्राचीन नाम लक्ष्मण नगरी था। और यह भी कि टीले वाली मस्जिद प्राचीन सनातन धर्म विरासत स्थल लक्ष्मण टीला के खंडहरों पर बनी थी। अजय प्रताप सिंह ने ही एक अन्य मामला दायर कर दावा किया कि फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती की दरगाह मूल रूप से कामाख्या देवी को समर्पित एक मंदिर था। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का दावा है कि बदायूं में 800 साल पुरानी जामा मस्जिद का निर्माण एक शिव मंदिर के अवशेषों पर हुआ है।
Published: undefined
नए संसद भवन से महज तीन किलोमीटर दूर दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में स्थित सदियों पुरानी छोटे मियां चिश्ती की मजार पिछले साल अप्रैल की एक रात अचानक जमींदोज कर दी गई और इसकी देखभाल करने वाले अकबर अली को एसडीएम के सामने संबंधित दस्तावेज पेश करने का वक्त तक नहीं मिला। 20 अगस्त, 2023 की सुबह भी नहीं हुई थी कि 2 बजे झंडेवालान में ढाई सौ साल पुरानी मामा-भांजे की मजार की देखभाल करने वाले वजाहत अली को पीडब्ल्यूडी कार्यालय से फोन आया: ‘मजार को ध्वस्त कर दिया जाएगा क्योंकि इसने सड़क पर अतिक्रमण किया है।’ जब तक वह कुछ कर पाते सुबह 4 बजे बुलडोजर पहुंच गए और सुबह 8 बजे तक यह मलबे का ढेर बन चुका था।
30 जनवरी, 2024 को दिल्ली के महरौली में अखूंदजी मस्जिद (जो कम-से-कम 600 साल पुरानी है) और उसके निकटवर्ती मदरसे को दिल्ली विकास प्राधिकरण ने जमींदोज कर दिया था। पत्रकार प्रशांत टंडन बताते हैं कि डीडीए की जमीन पर अतिक्रमण का दावा बेतुका है क्योंकि मस्जिद डीडीए के अस्तित्व से सदियों पहले की है।
Published: undefined
सुनहरी बाग क्षेत्र में वायु सेना भवन के पास 150 साल पुरानी मस्जिद को नई दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) द्वारा यातायात आवश्यकताओं का हवाला देते हुए जल्द ही ध्वस्त किया जाना है। स्थगन आदेश के बावजूद एनडीएमसी ने दिल्ली वक्फ बोर्ड के दावों को चुनौती दी है। दिल्ली वक्फ बोर्ड का तर्क है कि एनडीएमसी द्वारा एक केन्द्रीय एजेंसी को आवंटित भूखंडों- उदाहरण के लिए, लोदी रोड के किनारे अलीगंज गांव में लाल मस्जिद और निकटवर्ती कब्रिस्तान- में मुगल काल की मस्जिदें और कब्रिस्तान हैं और जो एनडीएमसी की संपत्ति नहीं हैं। हालांकि आपत्तियां खारिज कर दी गईं।
अनुभवी वकील चंगेज़ खान ने विध्वंस को अदालत में चुनौती दी। ठीक है कि मस्जिद को अस्थायी रूप से बचा लिया गया लेकिन इसके दिन अब गिने-चुने हैं। केयरटेकर नफीसा बेगम ने माना कि उन पर केस वापस लेने का दबाव बनाया गया था। वह कहती हैं, “उन्होंने न सिर्फ कई मुकदमे दायर कर रखे हैं बल्कि अब वे मांग कर रहे हैं कि हम मस्जिद छोड़ दें।” इसी तरह नवनिर्मित संसद भवन के निकट एक मजार है जो वर्षों से केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन के प्रवेश द्वार की शोभा बढ़ाती रही है, की रेलिंग और सजावट पहले ही तोड़ी जा चुकी है।
और ये सब वहीं हैं जो सुर्खियां बनते रहे हैं। पुरानी दिल्ली के निवासी मुख्तार अली सैकड़ों गुमनाम कब्रों और मकबरों के रातों-रात गायब हो जाने पर अफसोस जताते हैं। जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अब्दुल कादिर सिद्दीकी कहते हैं, ये कब्रिस्तान न सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों और प्रतिष्ठित हस्तियों की निशानी हैं, बल्कि इनमें अतीत की यादें भी समाई हुई हैं। हर विध्वंस के साथ वे यादें मिट जाती हैं और हमारी सामूहिक चेतना इसके सामने कमजोर पड़ने लगती है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined