मोदी सरकार के दोबारा शपथ ग्रहण के वक्त जिन लोगों को भारत में किसी स्वर्ण युग की भारी उम्मीद हो चली थी, वे भी 2020 की शुरुआत में निराश हैं। माहौल दिनों-दिन बंजर और गुस्से से भरा होता जा रहा है। जनवरी के पहले हफ्ते में अमेरिका ने ईरान के दूसरे नंबर के नेता और कुशल सेनाध्यक्ष सुलेमानी की निर्मम हत्या करवा कर दुनिया में, खासकर मध्य एशिया में स्थाई शांति की संभावना पर वज्रपात कर दिया। आ बैल मुझे मार, का यह अक्षम्य फैसला किस लिए लिया गया होगा कहना कठिन है।
जानकारों की राय है कि उनको तेल समृद्ध ईरान से पहले से ही गहरी चिढ़ रही है। वजह यह, कि उसने अमेरिका के जिगरी सऊदी अरब के बरक्स एशिया के इस्लामी देशों के लिए एक अन्य धुरी बनाने का दुस्साहस दिखाया, इराक के शियाओं से तार जोड़े और चीन तथा रूस से दोस्ती की पींगें बढ़ाईं। दूसरी वजह यह बताई जाती है कि चुनावी बरस में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर जो खतरनाक महाभियोग का मुकदमा विपक्षी डेमोक्रेट्स ने खोला हुआ है, उसकी मीडियाई छीछालेदर पर इस नए उन्मादी कदम से एक हद तक ढक्कन लग जाएगा।
दिक्कत यह है कि राष्ट्रपति चुनाव भले अमेरिका में होने हों, पर आज की दुनिया में उस महादेश के फैसलों से सारी दुनिया के बाजारों तथा राजनीतिक गतिविधियों पर असर पड़ता है। चुनावी हुक्का खुद भारत में हर दम ताजा रहता है। अब दिल्ली के चुनाव सर पर हैं, सरकार के कई गठजोड़ बनाने वाले साथी साथ छोड़ चुके हैं, और बचे खुचे भी ‘रहने का आश्चर्य है गये अचंभा कौन?’ की दशा में हैं। इस घड़ी में शेयर बाजार को गिराता हुआ यह एक और नया खतरा मंडरा रहा है। लालबहादुर शास्त्री की बात आज भी सही लगती है कि जीवन न तो तर्कसंगत है, न ही जादुई।
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कुतर्क का ताजा उदाहरण जेएनयू का है, जहां जामिया विश्वविद्यालय की ही तरह झड़प हुई। पूर्व जानकारी के बाद भी कैंपस में घुसकर भाड़े के गुंडों ने तोड़फोड़ की, छात्रों को पीटा और पुलिस मार खाते लोगों से फिरंट बनी रही। जैसे-जैसे सोशल मीडिया में आरोप उछले कि दंगाई सरकारी शह पाकर ही परिसर के भीतर घुसे और उनमें से कई सीधे संघ की छात्र इकाई से जुड़े हैं, सरकारी हलकों से प्रतिवादों की झड़ी लग गई। कहा जा रहा है कि पहले नंबर के दोषी खुद जेएनयू के वामपंथी रुझान के वे छात्र हैं जो बढ़ती फीस का विरोध कर रहे थे। कुछेक अपुष्ट वीडियो वायरल हो रहे हैं जिनपर दावा है कि मारपीट करने वाले तो वामपंथी दलों से तवज्जो पाते रहे हिंसक नक्सलिये थे, एबीवीपी सदस्य नहीं। इस बीच कुलपति या अन्य जिम्मेदार पदाधिकारी खटकने वाले ढंग से चुप हैं।
मानना होगा कि कई मायनों में जनाक्रोश उमड़ने पर हमारे पुरखे आज के इन शासकों से कहीं अधिक समझदार थे और सत्ता के खिलाफ बहस, विरोध, असहमति और विद्रोह को प्रजा के जरूरी हक की तरह स्वीकार ही नहीं करते थे बल्कि असहमति और प्रतिरोध की ताकत का जनहित में इस्तेमाल भी करते थे। वेदों (ॠग्वेद 10वां मंडल, अथर्ववेद 94) ने तो बाकायदा ‘मन्यु’ नाम के एक देवता का जिक्र किया है जो विरोध, बहस, असहमति और विद्रोह के औपचारिक अधिष्ठाता थे। ॠग्वेद का सायण भाष्य कहता है कि मन्यु तो हर मानव मन में एक प्रेरक तत्व बनकर मौजूद रहता है। उसकी धीमी सुलगती आग मरने की दशा में पहुंचे मनुष्य को भी उठकर अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देती है। ‘हे मन्यु,’ मंत्ररचयिता कहता है, ‘आओ, हाथ में वज्र और बाण लेकर! और हम पर छा जाओ।’ इन्हीं मन्यु देव का बाद को रुद्र और फिर शिव (ईशान) में विलय हुआ। यह संयोग नहीं कि शैव मत से 12-14 वीं सदी के बीच तमाम तरह के वेद बाह्य मत और मठ निकलते चले गए। इनका मुख्यधारा के ब्राह्मणवादी समाज से कोई टकराव नहीं था। कई संप्रदायों ने तो बहुसंख्य समाज की रक्षा के लिए अपने साधुओं की सशस्त्र सेनाएं भी तैयार की थीं, जो समय-समय पर जनता या शासकों की मांग पर टकराव शांत रखने के लिए भेजी जाती थीं।
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2019 तक भारत एकदम बदला दिखता है। आज के कई साधु-संत भी लामबंद हैं लेकिन अपनों के ही खिलाफ। गोरक्षकों ने उनके उकसावे पर गाय के व्यापारियों के खिलाफ, प्रेमियों के खिलाफ निहायत गैरकानूनी मुहिमें छेड़ दीं। पर न्याय बहाली गायब हो गई। देश में अगर मन्यु होता तो उसे भूचाल ला देना चाहिए था। लेकिन वह नहीं आया। साल के अंत में जाकर भारी मत से दोबारा सत्ता में आई सरकार ने सगर्व घोषणा कर दी कि अब शरणार्थियों की पड़ताल धर्म के आधार पर करने और सिर्फ गैर मुस्लिम लोगों को ही नागरिकता देने का रास्ता साफ हो गया है। पुराना धर्मनिरपेक्ष संविधान अब नागरिकता आकलन के मामले में धर्म को पैमाना बना सकता है।
यही नहीं, गृहमंत्री ने दोहराया कि नया कानून सीधे उस नागरिकता रजिस्टर से भी जुड़ेगा जो असम में बनाकर लागू करने के बाद सारे देश पर लागू किया जाएगा। यह होना था कि मानो मन्यु महाराज वज्र और बाण लेकर उतर आए। उनकी प्रेरणा से अल्पसंख्यक और विपक्ष ही नहीं, (सीएए की वैधानिकता और नागरिकता रजिस्टर के फलादेशों के खिलाफ) आम हिंदू भी एकजुट होकर संसद के बाहर सड़कों से सोशल मीडिया तक में आग उगलने लगे हैं। सत्ता समर्थक रहा मुख्यधारा का मीडिया भी इस मन्युमय भीड़ को भरपूर कवरेज देने को बाध्य हो गया है।
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हमारे प्रधानमंत्री इधर आध्यात्मया मन की बात ही अधिक करते हैं, देश के हालात पर कम। गृहमंत्री के बयान पर जनता की अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देख-सुनकर उन्होंने कहा कि नया कानून और नागरिकता रजिस्टर ये दोनो बातें अलग-अलग हैं और नए कानून से किसी की नागरिकता खत्म होने का खतरा नहीं है। पर जामिया से उत्तर प्रदेश और कर्नाटक तक खुद को खुलकर बहुसंख्य हिंदुओं का पैरोकार दिखाती हुई पुलिस ने प्रदर्शनकारियों का जिस तरह दमन किया और बच्चों, बूढ़ों, महिलाओं को जेल में डाला गया, उससे जनता का मन्युभाव सतह पर आ गया। अब सरकार का रास्ता दुविधामय बन गया है। वह सीएए को ‘इंच भर भी’ वापिस नहीं लेगी (यह गृहमंत्री ऐलानिया तौर से कह चुके हैं) लेकिन यह मामला फिलवक्त विचारार्थ अदालत के सामने है इसलिए इसे तुरंत लागू करना कठिन है।
दूसरे, असम में अलग पेच फंसता है जहां नागरिकता रजिस्टर से बाहर छूट गए 20 लाख लोगों में से अधिकतर बहुसंख्यक हिंदू हैं। शेष राज्यों से शरणार्थियों के उत्तर पूर्वी राज्यों में आने से उनकी संस्कृति, भाषा और रोजगारों को खतरा बन चला है सो अलग। सो असम, नगालैंड, मणिपुर हर कहीं लोग क्षुब्ध हैं और विपक्ष के साथ मान रहे हैं कि सरकारी नागरिकता रजिस्टर का मतलब होगा बाबूशाही द्वारा तरह-तरह के कागजात की मांग। तो केरल के बाद कई कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने साफ कह दिया है कि उनकी सरकार यह कानून नहीं लागू करेगी। वे सही हैं। अर्हता साबित न कर सकने पर तमाम तरह के, खासकर घुमंतू मजूरी पर जिंदा करोड़ों गरीबों का नागरिकता खोकर शरणार्थी कैंपों में भर दिया जाना तय है। जबकि उन केंद्रों का बनना अभी बाकी है।
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नागरिकता के मामले में बहुसंख्य और अल्पसंख्य आबादी, महिला और पुरुष, सवर्ण और अवर्ण को देश ने 26 जनवरी 1950 में ही नकार दिया था। एक दशक बाद संविधान में सेकुलर शब्द जोड़कर धर्मनिरपेक्षता को उसका स्थाई हिस्सा बनाया गया था। लिहाजा नागरिकता का सवाल हमारे संविधान ही नहीं, उसकी दी हुई संघीय गणतंत्र की मूल पहचान से भी जुड़ा है। अब जबरन पुलिस को कनटोप और लाठियों से सुसज्जित कर हर कहीं तैनात कर भी दो, तो भी दुनिया के मीडिया में वायरल हो रही कड़कती ठंड के बीच रात-रात भर शांतिपूर्वक गांधीवादी धरनों पर बैठकर एक साथ गाती, खाती, आबाल वृद्ध जनता की छवियां सरकार की साख को रोज-रोज मलिन और निरर्थक बनाती रहेंगी।
जब भारत में ऐसा कुकरहांव मचा है, ठीक उस समय अमेरिका ने भी सारी दुनिया पर खतरा न्योत दिया है, खासकर एशिया पर। उसने ईरान के सेना प्रमुख को मारकर अपना सिक्का बिठाने के लिए मध्य एशिया के खौलते ज्वालामुखी की तरफ अपने 3500 सैनिक आनन-फानन में रवाना कर दिए हैं। ऐंठ में अमेरिका को पूरा भरोसा है कि उसके दिए पर पलने वाला पाकिस्तान हमेशा की तरह ईरान विरोधी मुहिम में भी उसका दुमछल्ला और उसका सैन्य अड्डा बना रहेगा। और पाकिस्तान ने तुरंत ईरान से वाजिब दूरी भी बना ली है।
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पर गौरतलब है कि टैक्सास में हुए महामैत्री सम्मेलन में जितने दोस्ती के वादे किए, उनके मद्देनजर अमेरिका भारत की सरजमीं को भी अपनी सेना के लिए ईरान से टकराव की स्थिति में एक सुरक्षित ठौर की बतौर मानने लगा है। ईरान पर हमले के बाद ट्रंप महोदय के प्रतिनिधि ने कम से कम पाकिस्तानी सेना प्रमुख से बात तो की है। पर भारत के सहयोग को इतना अनिवार्य तौर से अमेरिका के पक्ष में मान लिया गया कि ईरान के सेना प्रमुख की हत्या के तुरंत बाद ट्रंप साहिब ने सीधे सार्वजनिक तौर से दुनिया को कह दिया कि उनकी मुहिम आतंकवाद पोसने वाले उस ईरान के खिलाफ है जिससे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और नई दिल्ली सभी को खतरा बनता है, यानी वे तो हमारे साथ हैं ही।
ईरान का तेल हमारी अर्थव्यवस्था की कैसी जान है और व्यापार के लिए हपरमुज खाड़ी का हमारे लिए कितना महत्व है, दोहराने की जरूरत नहीं। फिर भी हम नए साल की बधाई के साथ अमेरिकी सेनाओं से साझेदारी के पत्र पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। पहले अपना पक्ष ईमानदारी से दुनिया के सामने रखने की बजाय मीडिया रपटों के अनुसार सुशील कुलवधू की तरह हमारे शीर्ष नेतृत्व ने सेक्रेटरी स्टेट पॉम्पियो को खुद फोन लगाकर इस मसले पर उनके आगे अपनी विनम्र चिंता भर जताई है। मोर पिया मोर बात न पूछें तभौ सुहागिन नांव। लो कल्लो बात।।
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