साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण हिन्द महासागर का तापमान धीरे-धीरे बढ़ रहा है और इसके कारण लगभग पूरे भारत में चलने वाली हवा की औसत गति धीरे-धीरे कम होती जाएगी। हवा की गति कम होगी तब इसका असर पवन चक्कियों की दक्षता पर भी पड़ेगा। हार्वर्ड क्लाइमेट प्रोजेक्ट के तहत किये गए इस अध्ययन को पोस्ट-डॉक्टरेट फेलो मेंग गुओ की अगुवाई में किया गया है।
भारत इस समय ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, हमसे आगे केवल अमेरिका और चीन हैं। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए हमारे देश में गैर-परंपरागत ऊर्जा स्त्रोतों- सूर्य, हवा, हाइड्रोपावर और कृषि अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पन्न करने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई गयी है। पवन ऊर्जा से बिजली उत्पादन को अगले पांच वर्षों में दोगुना करने का लक्ष्य है। ऐसे में इस अनुसंधान के निष्कर्ष जरूर हतोत्साहित करने वाले हैं। एक दूसरे अनुसंधान से यह पता चला है कि अपेक्षाकृत आगे की पवनचक्कियां पीछे की पवनचक्कियों तक पहुंचने वाली हवा को प्रभावित करती हैं, जिससे उनकी दक्षता पर असर पड़ता है।
‘मिन्ट’ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पिछले दो वर्षों में जो तेजी आयी थी, अब वह समाप्त हो गयी है। अनेक कंपनियां अब इसे घाटे का सौदा मानने लगी हैं। इसकी वजह से कई कंपनियों के उच्च अधिकारी कंपनी छोड़कर चले गए हैं। अनेक कंपनियों के लिए यह बेकार का सौदा साबित हो रहा है और लक्ष्य की तुलना में उत्पादन नहीं हो पा रहा, जिससे इन्हें आर्थिक नुक्सान उठाना पड़ रहा है। नवीनीकृत ऊर्जा मंत्रालय की वेबसाइट पर दिये गए सूचनाओं से भी ऐसा ही स्पष्ट होता है। 2018-2019 के दौरान इस क्षेत्र से लगभग 15600 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य है, लेकिन नवंबर 2018 तक मात्र 4200 मेगावाट के संयंत्र ही स्थापित किये जा सके हैं।
भारत सरकार ने मार्च 2022 तक के लिए हाइड्रोपावर, सौर, पवन, बायोमास और छोटे पनबिजली परियोजनाओं से क्रमशः 60, 100, 60, 10 और 5 गीगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। इसमें आरंभ में तेजी से काम किया गया, लेकिन अब इस क्षेत्र में मंदी आ गयी है। संभव है संयंत्र स्थापित कर लिए जाएं, लेकिन इतना बिजली उत्पादन संभव नहीं लगता।
सौर ऊर्जा की अपनी समस्याएं हैं। हमारे देश में लगभग हरेक जगह वायुमंडल में धूल बिखरी है, जो सौर ऊर्जा को कम करती है और फिर सौर पैनल पर जमा हो जाती है, जिससे इसकी दक्षता कम हो जाती है। धूल हटाने के लिए इन्हें धोना पड़ता है, लेकिन हरेक जगह इतना पानी उपलब्ध नहीं है।
पवन ऊर्जा के क्षेत्र में चुनौतियां कम आंकी गयी थी, लेकिन अब नये अनुसंधान तो यही बता रहे हैं कि भारत में हवा की रफ्तार ही कम हो जाएगी। साइंस एडवांसेज में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार भारत में मानसून से संबंधित हवाएं जो बसंत और ग्रीष्म में अधिक प्रभावी होती हैं, के दौरान साल भर के बिजली उत्पादन में से 63 प्रतिशत से अधिक कर लिया जाता है। लेकिन तापमान वृद्धि के असर से हिन्द महासागर का तापमान बढ़ रहा है, जिससे देश में मानसून संबंधी हवाएं कमजोर हो रही हैं। अनुमान है कि अगले चार दशकों के दौरान देश में मानसून हवा की तीव्रता 13 प्रतिशत तक कम होगी और इसका सीधा असर पवन चक्कियों की दक्षता पर पड़ेगा। यह असर पश्चिम और दक्षिण भारत में अधिक प्रभावी होगा जबकि पूर्व भारत में कोई खास असर नहीं पड़ेगा।
दूसरी तरफ ‘नेचर एनर्जी’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार यदि एक ही क्षेत्र में कई पवनचक्कियां स्थापित की जाती हैं तब आगे की पवनचक्कियां हवा के वेग को इस कदर प्रभावित करती हैं कि लगभग 40 किलोमीटर के क्षेत्र की हवा प्रभावित होती है और पीछे की पवनचक्कियों की दक्षता कम हो जाती है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो की वैज्ञानिक जूली लुन्दकुइस्त की अगुवाई में यह शोध किया गया और इस दौरान अमेरिका में स्थापित 994 पवनचक्कियों का अध्ययन किया गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रक्रिया को समझाने के लिए पानी का उदाहरण प्रस्तुत किया है। पानी की आपूर्ति या बहाव की भी ऐसी ही समस्या रहती है। नदियों के बहाव के रास्ते में पड़ने वाले शुरू के शहरों में इस्तेमाल के लिए अधिक पानी उपलब्ध रहता है और जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है, पानी की कमी होती जाती है।
स्पष्ट है कि नवीनीकृत ऊर्जा की अपनी चुनौतियां हैं और इनसे बिना निपटे केवल इन्हें स्थापित करने के गंभीर परिणाम होंगे।
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