मणिपुर में भीड़ द्वारा दो महिलाओं को नग्न घुमाने के दहला देने वाले वीडियो के वायरल होने के बाद मणिपुर ट्राइबल्स फोरम, नई दिल्ली ने कहा, ‘अब हम मैतेई बहुल मणिपुर में रहने के बारे में सोच भी नहीं सकते। स्थाई शांति का एक ही तरीका है कि कुकी-हमार-जोमी-मिजो उनाऊ जनजातीय इलाकों को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश या फिर राज्य के तौर पर अलग प्रशासकीय व्यवस्था दी जाए।’ पिछले दो माह से जिस बात को लेकर कानाफूसी हो रही थी, अब वह खुलकर सामने आ चुकी है, यानी अलग केंद्र शासित प्रदेश या राज्य की मांग। कहा जा सकता है कि मणिपुर के हालात ऐसे बिंदु पर पहुंच गए लगते हैं जहां वापसी का कोई रास्ता नहीं दिखता।
पिछले 80 दिनों से राज्य में कानून-व्यवस्था का पूरी तरह से चरमरा जाना कोई छिपी बात नहीं है। मणिपुर में सुरक्षा बल असहाय दिख रहे हैं क्योंकि वे उन मानव ढालों को नहीं तोड़ पा रहे हैं जो उन्हें कानून लागू करने और उन लोगों को गिरफ्तार करने से रोकते हैं जिन्होंने असहाय महिलाओं की हत्या और बलात्कार किया है। अपने समुदाय के गौरव की तथाकथित महिला रक्षकों ‘मीरा पैबिस’ ने यह सुनिश्चित किया है कि सुरक्षा बलों को असहाय स्थिति में ला दिया जाए जो आम तौर पर नहीं दिखता था।
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इस दौरान उपद्रवियों के पास से कितने हथियार और गोला-बारूद बरामद हुए हैं, इसके बारे में कोई साफ जानकारी नहीं है। आधिकारिक तौर पर कहा गया है इस साल 3 मई को शुरू हुए ‘जातीय संघर्ष’ के शुरुआती चंद दिनों के भीतर 4,000 अत्याधुनिक आग्नेयास्त्र और छह लाख राउंड गोला-बारूद लूट लिया गया था। इसकी जवाबदेही तय कर जिम्मेदार अधिकारियों और पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए थी, लेकिन इस मामले में एकदम से चुप्पी साध ली गई।
मणिपुर के हालात इसलिए भी अंधी गली में पहुंच गए लगते हैं क्योंकि पहाड़ी इलाकों में शरणार्थी शिविरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। ऐसा आरोप है कि राहत सामग्री के बड़े हिस्से को इम्फाल के शरणार्थी शिविरों में पहुंचाया जा रहा है जहां पहाड़ियों से विस्थापित मैतेई शरणार्थी रह रहे हैं। कुकी शरणार्थियों की बड़ी तादाद को खाना, कपड़ा और दवा के रूप में बहुत ही कम मदद मिली है।
मिजोरम सरकार और सिविल सोसाइटी शरणार्थियों की मदद के लिए मिलकर काम कर रहे हैं लेकिन शरणार्थी शिविरों में हालात बहुत खराब हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा शिविरों का दौरा करने और राज्यपाल से मुलाकात कर उन्हें तत्काल अपेक्षित जरूरी मदद के बारे में जानकारी दिए जाने के बाद जरूर स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ है।
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भले, राज्य मानवीय संकट के दौर में है और मैतेई और कुकी- दोनों ही समुदाय पीड़ित हैं लेकिन मणिपुर पुलिस और सीएम एन. बीरेन सिंह की बीजेपी सरकार का रुख निःसंदेह पक्षपातपूर्ण रहा है। जब पिछले हफ्ते मैतेई लोगों ने एक नगा महिला की हत्या कर दी, तो नगा समुदाय ने हथियार उठा लिए और धमकी दी कि अगर 48 घंटों के भीतर दोषियों को गिरफ्तार नहीं किया गया तो वे आंदोलन शुरू कर देंगे। न केवल 10 कथित दोषियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया बल्कि राज्य सरकार ने अनुकंपा के आधार पर 10 लाख रुपये के मुआवजे की भी घोषणा की।
बहरहाल, यहां मंशा नगाओं को शांत करने की थी, कुकी स्वाभाविक ही इस बात से नाराज हो गए कि उनके प्रति तो ऐसा व्यवहार नहीं किया गया। उनका मानना था कि सरकार जानबूझ कर दरार पैदा कर रही है और आदिवासियों को बांट रही है, और नगाओं को जो अब तक संघर्ष में तटस्थ रहे हैं, कुकियों से दूर कर रही है। अपुष्ट खबरों के मुताबिक, नगा चर्चों को तो मोटे तौर पर बचा लिया गया, जबकि जिन 400 चर्चों में आग लगाई गई, उनमें से ज्यादातर कुकियों के थे।
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हैदराबाद विश्वविद्यालय में कुकी-जो शिक्षक एच सितलहोउ द्वारा लिखे गए एक लेख से अविश्वास की खाई और चौड़ी हो गई। इस लेख में दावा किया गया कि मैतेई लोगों ने कुकी-जो लोगों को बदनाम करने और असहाय कुकी-जो महिलाओं पर हमलों को वाजिब ठहराने के लिए नकली नैरेटिव और वीडियो तैयार किए।
जिस तरह इन हमलों को अंजाम दिया गया, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी योजना बड़ी ही सावधानी के साथ, अगर सालों नहीं भी, तो महीनों पहले तो जरूर ही बनाई गई थी और उसके बाद ही कुकियों पर हमला किया गया। 3 मई को कुकियों ने मैतेई की इस मांग के खिलाफ रैली निकाली थी कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाना चाहिए। इसी बीच, एक फर्जी वीडियो वायरल होता है जिसमें दावा किया गया था कि मैतेई महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया गया और यही वजह है कि उस वायरल वीडियो में दिखी दो महिलाओं पर हाल में हमला हुआ।
यह ऐसी तिकड़मबाजी है जिसे किसी दुश्मन देश के खिलाफ युद्ध में आजमाया जाता है ताकि आक्रमणकारी यह दावा कर सके कि वह न्यायपूर्ण युद्ध लड़ रहा है। इतिहास अजीब तरीके से अपने को दोहराता है और केंद्र सरकार ने इंतजार करने और देखने का फैसला किया है जबकि मैतेई और कुकी-जो आर-पार की लड़ाई में लगे हुए हैं।
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कम-से-कम 50 हजार कुकी अपने घरों से विस्थापित होकर मिजोरम और अन्य जगहों पर शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। जब वे मणिपुर घाटी से आ रहे वीडियो को देखते हैं तो उन्हें एहसास होता है कि इंटरनेट पर रोक के बावजूद पिछले दो माह से अधिक समय से एक चुनिंदा समूह के पास इंटरनेट तक पहुंच है। ऐसे में वे सोच में पड़ जाते हैं कि क्या उनके लिए जीवन फिर से सामान्य हो सकता है? जब सब ‘सामान्य’ होगा, तो वह सामान्य कैसा होगा? लोग अपने जीवन और घरों को फिर से दुरुस्त कैसे करेंगे?
कुकी-जो महिलाओं की गरिमा को जिस तरह तार-तार किया गया, जिस तरह उन्हें नग्न घुमाया गया, जिस तरह इस दौरान उनके साथ अश्लील हरकतें की गईं, उसने देश की सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया। यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह और बात है कि प्रधानमंत्री के बोल इतनी देर से निकले कि इन्होंने लोगों के संदेह और संशय को कम करने में कोई मदद नहीं की। राज्य अब उस स्थिति से काफी आगे आ चुका है जब केवल शब्दों से बात बन सकती थी। अब ठोस और स्पष्ट कार्रवाई की जरूरत है।
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दरअसल, कई लोगों का मानना है कि मणिपुर में अभी जो कुछ भी हो रहा है, उसे केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की शह हासिल है। मणिपुर पुलिस द्वारा प्रसारित एक प्रेस नोट में कहा गया है कि महिलाओं की परेड के दो सप्ताह बाद ‘जीरो एफआईआर’ दर्ज की गई थी। लेकिन इससे लोगों के गुस्से में कोई फर्क नहीं आया। सवाल यह उठता है कि क्या मणिपुर पुलिस की इंटेलिजेंस विंग इतनी खराब है कि वह वीडियो में दिख रहे लोगों की पहचान नहीं कर सकती? या फिर पूरी पुलिस व्यवस्था ही ध्वस्त हो गई है और अब यह सरकार के हाथ का औजार बनकर रह गई है? एक और भी सवाल है। मणिपुर में 60 हजार से ज्यादा वर्दीधारी जवान तैनात हैं तो उनके होते हुए घाटी मे दो-ढाई माह से हथियारबंद उपद्रवी कैसे हिंसा कर रहे हैं?
बार-बार यह बात साबित हुई है कि मणिपुर पुलिस तटस्थ नहीं है और यही वजह है कि जब बहुसंख्यक समुदाय की ओर से कोई हिंसा की जाती है तो वह मूकदर्शक बनी रहती है। वीडियो में अमानवीय हरकतों की पीड़ित दोनों कुकी महिलाओं को भी कथित तौर पर पुलिस से ही छीना गया था और फिर भी एफआईआर होने में दो सप्ताह लग गए। वास्तव में, यह उस क्षेत्र में एक खतरनाक मिसाल है जहां जातीय वफादारी संविधान और कानून के शासन के प्रति वफादारी पर भारी पड़ती दिख रही है।
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हिंसा के पैमाने और तीव्रता को लेकर राज्य के लोगों में निराशा है क्योंकि यह सोचे-समझे नरसंहार का संकेत देता है। हालांकि विदेश मंत्रालय के पदाधिकारियों ने ‘ईसाइयों’ और ‘चर्चों’ के खिलाफ हिंसा की निंदा करते हुए यूरोपीय संसद द्वारा अपनाए गए प्रस्ताव का जवाब देते हुए कहा कि मणिपुर की घटनाएं भारत का आंतरिक मामला हैं। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या दिल्ली ने अंतिम विजेता कौन है, यह तय करने के लिए युद्धरत गुटों को अंतिम नतीजे तक पहुंचने के लिए लड़ने के लिए छोड़ देने का फैसला किया है?
एक संघर्ष जो 80 दिनों तक चलता रहता है, जिसमें रोजाना ही बंदूकें गरज रही हों और बमों के फटने से आसमान चमक उठते हों, इसका मतलब केवल दो में से एक हो सकता है- या तो कानून का शासन बिल्कुल ध्वस्त हो चुका है या मणिपुर की पहाड़ियों से बचे हुए आदिवासियों को बाहर निकालने के इरादे से हिंसा बड़ी ही सावधानीपूर्वक रची गई। पूरे समुदाय को ‘अवैध प्रवासी’ करार दे देना मणिपुर सरकार के लिए एक सुविधाजनक नैरेटिव है।
अफसोस की बात है कि 140 करोड़ भारतीयों में से बाकी मणिपुर के कुकी-जो समुदाय के दर्द, उनकी तकलीफ को साझा नहीं करते हैं। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अलग जाति और धर्म के हैं? यह उत्तर पूर्व के लिए भारत की चिंता के बारे में आखिर क्या कहता है?
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संघर्ष के शुरुआती दिनों में, सेवारत और सेवानिवृत्त सैनिकों को यह कहते सुना गया था कि भारत का नंबर एक दुश्मन- चीन, मणिपुर में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर बड़ा खुश हो रहा होगा क्योंकि इस क्षेत्र के उग्रवादी संगठन चीन से हथियारों का प्रशिक्षण हासिल करने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन ढाई महीने बाद, ‘भारत’ भी घाटी में जानमाल के नुकसान और मैतेइयों के उद्दंड रवैये को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं दिख रहा है। मैतेई पॉप गायक तप्ता के खिलाफ देर से और अनिच्छा से एफआईआर दर्ज की गई जिसने अपने एक गाने में एक-एक कुकी को मारने का आह्वान किया था।
मणिपुर के मुख्यमंत्री को बदलने में नई दिल्ली की अनिच्छा या असमर्थता ने अब पड़ोसी राज्यों को भी सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या वोट बैंक की राजनीति के इस मॉडल को समुदाय के ध्रुवीकरण के लिए उनके आसपास भी आजमाया जाएगा?
अगर पहाड़ियों में जमीन कोई मुद्दा था तो इसका समाधान खोजने के लिए सरकारें बातचीत का रास्ता अपना सकती थीं। गौरतलब है कि पहाड़ियों की जमीन पर दशकों से मैतेई समुदाय की नजर है लेकिन चूंकि वे गैर-आदिवासी वर्ग में आते हैं, वे पहाड़ों में जमीन नहीं खरीद सकते। भूमि सुधार प्रशासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन यह तभी संभव है जब न्याय सुनिश्चित करने वाला कानून का शासन अस्तित्व में हो।
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मणिपुर में इंटरनेट ब्लैकआउट है, हालांकि यह आंशिक है और शक्तिशाली आभिजात्य वर्ग की हमेशा से इस तक पहुंच रही है। यह तो आम लोग हैं जो इस बंदिश को झेल रहे हैं और गृह युद्ध जैसे हालात में इतने दिनों से अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की कहानियां भी बताने की हालत में नहीं।
महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने, बलात्कार को बदला लेने के रूप में इस्तेमाल करने और एक युवा ग्रामीण स्वयंसेवक की नृशंस हत्या करके उसके सिर को खंभे पर लटकाने के बर्बर कृत्यों को एक टीवी पैनलिस्ट ने यह कहते हुए नजरअंदाज कर दिया कि उत्तर-पूर्व में कई समुदाय वास्तव में पूर्व में शिकारी थे। यह असंवेदनशील बयान एक डरावनी बात बताता है कि 21वीं सदी में भी हम पर मध्ययुगीन अतीत हावी हो सकता है। बस एक उत्तेजक नैरेटिव की जरूरत होती है, भले वह नकली ही हो। हमने मणिपुर में जो देखा है, वह है शब्दों को हथियार बनाकर उससे अंतहीन हिंसा के चक्र को बढ़ावा देना।
अब स्थिति यह है कि चंद दिनों के भीतर हिंसा होते तीन माह हो जाएंगे। इसका साफ मतलब है कि हमलावरों ने काफी अच्छी तैयारी कर रखी थी कि इतने लंबे अरसे तक आग को सुलगाए रख सकें। मणिपुर में हिंसा अचानक नहीं हुई है। क्या इससे इस बात का जवाब मिलता है कि मोदी सरकार आखिर सुप्रीम कोर्ट के सख्त होने तक मूकदर्शक क्यों बनी रहती है? वैसे, केंद्र सरकार ने उसके बाद भी जो किया, वह केवल जुबानी ही है।
(साथ में इनपुट: ए जे प्रबल)
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