जाति का सवाल ऐसा है जो पिछले तीन दशकों से अधिक समय से हर चुनाव के अवसर पर उठ खड़ा होता है। फिलहाल भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। हर राजनीतिक दल इस पर अलग-अलग जवाब देने की कोशिश करता है। कुछ दल इस मुद्दे को चुनाव जीतने का एक तंत्र बना लेते हैं, तो कुछ इससे भागते हैं। लेकिन राजनीतिक दलों से लेकर अधिकांश मतदाता तक भी इससे प्रभावित होकर मत डालते हैं। इस समय पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव और साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव ने एक बार फिर ऐसे ही हालात उत्पन्न कर दिए हैं।
इस बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ओबीसी आरक्षण का सवाल उठाया है। वह बहुत से दूसरे दलों को समझाना चाहते हैं कि देश में जाति आधारित सर्वे होना चाहिए। बिहार में उनकी सरकार ने ऐसा सर्वे कराकर उसकी रिपोर्ट विधानसभा में पेश कर दी। अब बिहार सरकार ओबीसी सर्वे के आधार पर राज्य में आरक्षण लागू कर रही है। बिहार विधानसभा ने 75 फीसदी वाला आरक्षण विधेयक सर्वसम्मति से पारित कर दिया है।
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बिहार सरकार ने ओबीसी आरक्षण की नई नीति लागू करने के आदेश भी दे दिए हैं। मुख्यमंत्री का कहना है कि आवश्यकता पड़ने पर इससे संबंधित कानून भी पारित कर दिया जाएगा। यदि फिर भी समस्या हल नहीं हुई, तो उनकी सरकार केन्द्र से आग्रह करेगी कि वह इस संबंध में कानून बनाकर ओबीसी आरक्षण को देशव्यापी स्तर पर लागू करे। ऐसी ही कुछ स्थिति विपक्षी इंडिया एलायंस की भी है। स्पष्ट है कि हर दल ओबीसी कार्ड का प्रयोग अब से 2024 तक करना चाहता है।
इस मुद्दे पर बीजेपी का क्या विचार है। इस सवाल पर वह अभी तक दुविधा में है। गृह मंत्री ने इसका समर्थन किया है। लेकिन यह भी कहा है कि नई जाति गणना के आधार पर अभी नई आरक्षण नीति नहीं लागू की जा सकती है। स्पष्ट है कि बीजेपी इस मुद्दे से कतरा रही है। लेकिन क्यों! कम-से-कम पिछले लगभग दस वर्षों से ओबीसी ब्लाक अब बीजेपी का वोट बैंक है। ऐसा पिछले चुनाव परिणाम साफ बताते हैं। फिर भी बीजेपी अभी ओबीसी आरक्षण से कतरा रही है क्योंकि मंडल राजनीति ही कमंडल की काट रही है। सन 1990 में वीपी सिंह सरकार ने जब मंडल आरक्षण लागू करने का ऐलान किया, तो संसद के भीतर और बाहर कुछ दलों ने इसका समर्थन किया। कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे पर खुलकर इसका विरोध किया। लेकिन ओबीसी इस मुद्दे पर बीजेपी से छिटक न जाएं, उसके लिए बीजेपी ने कमंडल राजनीति का प्रयोग किया। बीजेपी की नई ओबीसी रणनीति दो स्तरीय थी। वह कमंडल के साथ-साथ मंडल से भी लाभ उठाना चाहती थी। इसलिए राम मंदिर मुद्दे पर आक्रामक राजनीति के साथ बीजेपी ने कई प्रांतों में पार्टी की ओर से ओबीसी नेता भी खड़े कर दिए। उसी के कुछ समय बाद ही कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे बीजेपी के नेता उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मंडल कार्ड के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी मंडल-कमंडल मिश्रित रणनीति से बीजेपी को लाभ रहा। इसके चलते लोकसभा में बीजेपी की संख्या उस चुनाव से काफी बढ़ गई। जब भाजपा मंडल राजनीति से लाभान्वित रही, तो अब किस प्रकार की हिचकिचाहट? पहला यह कि खुद नरेन्द्र मोदी ओबीसी से आते हैं। वह पहले सबसे मजबूत ओबीसी नेता हैं। फिर कमंडल छोड़ ओबीसी मतदाता अधिक संख्या में बीजेपी को वोट देता चला आ रहा है। तो फिर ओबीसी सर्वे से भाजपा को संकोच क्यों। शायद बीजेपी इस बात से भयभीत है कि मंडल कार्ड के चलते ओबीसी वोट बैंक कुछ राज्यों में बीजेपी से छिटक सकता है। इसलिए बीजेपी ओबीसी को लुभाने के साथ-साथ कमंडल का प्रयोग आने वाले 2024 तक हर चुनाव में करेगी। यही कारण है कि वह मध्य प्रदेश से लेकर हर चुनाव में राम मंदिर आधारित कमंडल का प्रयोग कर रही है।
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कमंडल राजनीति ने ही बीजेपी को पिछले तीन दशकों में देश का सबसे बड़ा दल बना दिया। नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार हिन्दू धर्म का प्रयोग चुनाव जीतने के लिए किया, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। तभी हर चुनाव में मोदी राम मंदिर पर ही चुनाव अभियान चला रहे हैं। मोदी हर भाषण में अयोध्या के राम मंदिर को ही मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। भव्य राम मंदिर अयोध्या में तैयार होने वाला है। जनवरी, 2024 में इस राम मंदिर के दरवाजे दर्शकों के लिए खोल दिए जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद अयोध्या जाकर राम लला का दर्शन करेंगे। संघ एवं उसका हर अंग राम मंदिर निर्माण को हिन्दू समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। भाजपा को विश्वास है कि राम लला के दर्शन के बाद मतदाता भाजपा को ही वोट डालेगा।
तब ओबीसी आरक्षण से बीजेपी को घबराहट क्यों? इसका मुख्य कारण यह है कि 90 के दशक से उत्तर प्रदेश और बिहार में मंडल कमंडल पर भारी पड़ा। इसी कारण मोदी राम मंदिर आधारित अभियान चला रहे हैं। अब देखना यह है कि मंडल फिर कमंडल पर कितना भारी पड़ेगा।
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