कांग्रेस ने कर्नाटक जीत लिया है, हालांकि इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपना वोट शेयर बचा लिया है। कांग्रेस ने अपने पिछले वोट शेयर में 5 फीसदी की इजाफा कर इसे 43 फीसदी तक पहुंचाया, जबकि बीजेपी को मात्र 0.2 फीसदी के नुकसान के साथ 36 फीसदी वोट मिले। आखिर कांग्रेस ने अपनी लोकप्रियता में इजाफा कैसे किया?
इसके बहुत से कारण हो सकते हैं, लेकिन सत्ता विरोधी लहर तो कतई नहीं है। आखिर क्यों? क्योंकि बीजेपी ने भी अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखा है और उसे उतने ही वोटरों ने वो दिया है जितने ने पिछली बार दिया था। वैसे देखें तो पहले से ज्यादा क्योंकि इन पांच वर्षों में कर्नाटक की आबादी भी तो बढ़ी है। इस सबका एक कारण है, लेकिन उस पर हम बाद में बात करेंगे, पहले बात करते हैं कि कर्नाटक में अगर सत्ता विरोधी लहर नहीं थी, तो क्या था?
पार्टी खुद ही जो दो बातें कहती है, वह महत्वपूर्ण हैं। कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा निकाली और चुनावों के दौरान पांच योजनाओं का वादा किया। इन पांच योजनाओं में हर महीने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, महिला प्रमुख वाले घरों को 2000 रुपए महीना, दो साल तक बेरोजगारों को 3000 रुपए महीना भत्ता (ऐसे स्नातक जिनके पास रोजगार नहीं है) और डिप्लोमा धारकों को 1500 रुपए महीना भत्ता, गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों को 10 किलो मुफ्त चावल और सरकारी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा।
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ये तो मुख्य बातें रहीं। लेकिन कुछ और वादे भी हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में अगली कतार में रहने वाली आशा कार्यकर्ताओं को हर महीने तय वेतन के रूप में 5000 रुपए, मिड डे मील रसोइयों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को अतिरिक्त 2400 से 3500 रुपए महीना। रात की ड्यूटी करने वाले पुलिस वालों को 5000 रुपए अतिरिक्त भत्ता। हम में से बहुत से लोगों को ये सब नहीं पता होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि जो लोग मिलकर काम कर रहे हैं उन्हें इन सबकी जानकारी न हो। कर्नाटक में करीब 65,000 आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक लाख के करीब पुलिस वाले हैं।
अगर कोई महिला बेंग्लोर में किसी घर में काम करती है, तो अब उसे 2000 रुपए महीना मिलेगा, मंथली बस पास के रूप में 1200 रुपए का फायदा होगा और बिजली के साथ ही 10 किलो चावल भी मिलेंगे। ये सब मिलकर अच्छी खासी रकम के बराबर हैं और इससे उसका जीवन बदल सकता है।
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आर्थिक विश्लेषक अनिंदो चक्रवर्ती कहते हैं कि कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय औसतन 22,000 रुपए महीना है, लेकिन इसमें भारी असमानता है। राज्य की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी की आय 13,800 रुपए महीना है। ऐसे में सोचिए इन गारंटी से इन लोगों के क्या मायने होंगे।
और, इससे भी अहम यह है कि इन योजनाओं के क्या अर्थ होंगे, और निश्चित रूप से उनके तो उलट ही होंगे जैसा कि केंद्र सरकार कह रही है कि इसमें समस्या है। लेकिन देखना होगा कि इन पांच योजनाओं में से कौन सी योजना अधिकतर समस्याओं का उत्तर होगी। केंद्र सरकार भले ही हंगर इंडेक्स में गिरती भारत की रेटिंग को खारिज कर दे, लेकिन यह तो निश्चित है कि मुफ्त राशन आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए बहुत मायने रखता है।
इसी तरह भारत में बेरोजगारी के दो बड़े संकेतक हैं। एक के आंकड़े सरकार जमा करती है और दूसरा एक निजी फर्म सीएमआईई करती है। सीएमआईई का कहना है कि भारत में बेरोजगारी बहुत अधिक है, और बीते पांच साल में यह 6 फीसदी से नीचे नहीं गई है। साथ ही रोजगार में भागीदारी भी कम हुई है। ऐसे लोग जिन्हें रोजगार या नौकरी नहीं मिल रही है, या जिसके वे काबिल हैं वैसा काम नहीं मिल रहा है (ग्रेजुएट किए हुए लोग डिलीवरी बॉय बन रहे हैं या टैक्सी चला रहे हैं), वे तो अब नौकरी तलाश भी नहीं रहे हैं।
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सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि ग्रेजुएट किए हुए लोगों की बेरोजगारी देशभर में 15 फीसदी है। ऐ ही श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी का मुद्दा भी, जोकि भारत में दुनिया में सबसे कम है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे सामाजिक बंधन आदि, लेकिन सुरक्षित और नियमित काम उन्हें नहीं मिल रहा है।
इस सबको स्वीकार करते हुए हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि हंगर इंडेक्स में गिरती रेटिंग, गरीबी और बेरोजगारी 2023 के भारत की सबसे गंभीर समस्याएं हैं। लेकिन सरकार ऐसा नही कह रही है, इसने तो उन आंकड़ों और विचारों को ही खारिज कर दिया है जो बताते हैं कि समस्या मौजूद है।
तो फिर मोदी सरकार के अमृतकाल, विश्वगुरु और अन्य भी नारों का भी क्या असर हुआ जो कर्नाटक में कांग्रेस को कामयाबी मिली है? बीजेपी और इसके समर्थक अब रेवड़ी संस्कृति की बात करने लगे हैं। यह उन लोगों का अपमान है जिन्हें इन योजनाओं का लाभ मिलेगा, लेकिन फिर भी रेवड़ियों की बात होती ही रहेगी। दरअसल इन योजनाओं को रेवड़ियां कहना बुनियादी तौर पर सही नहीं है। मानव की प्रकृति है कि वह खुद को न तो असहाय दिखाना चाहता है और न ही दिखना चाहता है। सभ्य देशों में ऐसी योजनाओं और इन जैसे तमाम उपायों को अधिकार कहा जाता है, क्योंकि वे इसके हकदार हैं। गरीबों को सरकार की तरफ से ये सब दिया जाना उनका अधिकार है।
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इस लेख के पाठक या हम कहें कि मध्य वर्ग इस बात से शायद उत्साहित नहीं होगा कि लोग मुफ्त के चावल के लिए या 200 यूनिट मुफ्त बिजली के लिए कतारें लगाएं। इसके लिए तो किसी पार्टी को वोट नहीं दिया था। बिल्कुल सही है, और यही वह एक कारण है, जिसके आधार पर हम लेख की शुरुआत में लौटते हैं, कि बीजेपी का वोट शेयर तो उसके साथ है क्योंकि वह विचारधारा के आधार पर उससे जुड़ा हुआ है। और यह आधार शहरी क्षेत्रों के मध्य और उच्च वर्ग के बीच मजबूत है। यही वह वर्ग है जिसके लिए वंदे भारत एक्सप्रेस (मैसूर से चेन्नई तक किराया 2295 रुपए है) ट्रेनें चलाई जा रही हैं। यह एक ऐसी समस्या का समाधान है जोकि है ही नहीं।
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