वैश्विक कोरोना महामारी और उसके कारण लगने वाले लॉकडाउन ने हमें कई तरह से प्रभावित किया है जिनमें से एक है तारीखों को लेकर हमारे दिमाग में अत्याधिक सजगता का होना। मार्च, 2020 में मेरे लिए जो अत्यधिक महत्वपूर्ण तारीख थी, वह थी शुक्रवार 13 मार्च, 2020। सन 2020 में वह अंतिम दिन था जब मैं किसी मल्टीप्लेक्स में गई थी। मैं उस दिन होमी अदजानिया की फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ देखने गई थी। और मेरे जहन में कहीं कोई ख्याल भी नहीं था कि अति प्रतिभावान कलाकार इरफान खान की यह वह अंतिम फिल्म होगी जिसे मैं बड़े पर्दे पर देखूंगी और इसके बाद मेरे आगे एक सूखा बंजर महीना होगा जब मुझे थिएटर के इस अंधियारे में मद्धिम और तेज होती रोशनी में पर्दे पर चलते-फिरते चित्रों को समोसे और कॉफी के साथ आनंद लेते हुए दोबारा देखने का मौका नहीं मिलेगा।
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मुझे याद भी नहीं पड़ रहा है कि अतीत में मैं कभी सिनेमाघर से एक लंबे समय तक दूर रहने के लिए इस तरह से बाध्य हुई थी। जब फिल्में मेरे लिए बतौर पत्रकार और एक समालोचक के, रोटी कमाने का जरिया बनी, उससे भी पहले से हर हफ्ते में एक फिल्म तो तय ही थी। फिल्मों से मेरे संबंधों के बीच में कभी बोर्ड परीक्षाओं जैसी महत्वपूर्ण और डरावनी चीज भी नहीं आ सकी। यहां तक कि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म की बढ़ती पकड़ भी मुझे बड़े पर्दे के प्रति मेरी प्रतिबद्धता से डिगा नहीं सकी।
लेकिन जैसे-जैसे जुदाई के महीने बढ़ने लगे, वैसे-वैसे पर्दे की गैरमौजूदगी और खालीपन को भरने की कोशिशें बढ़ने लगीं। जिंदगी ने ओटीटी की पूर्वानुमानित दिशा की ओर रुख किया। अगर ‘गु लाबो-सिताबो’ और ‘शकुंतला देवी’ फिल्मों ने ओटीटी को अपना घर बनाने का निश्चय किया तो मुझे भी उनका दरवाजा खटखटाना ही था। सितंबर में कहीं जब टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ऑनलाइन चल रहा था तो शिफ्ट 72 नाम के एक नए जीव ने मुझे अपनी तरफ आकर्षित किया। ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग फ्लेटफॉर्म ने मुझे अपनी गिरफ्त में धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (डीआईएफएफ) के प्रथम ऑनलाइन संस्करण के बादसे जकड़े रखा। अचानक से मुझे फिल्मों की यादों ने सताना बंदकर दिया।
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मैंने हाल में ही वर्जुअल माध्यम से फिल्मों को देखने का और मार्केट में सबसे मिलने-जुलने का इतना असल जैसा अनुभव किया जैसा कि एनएफडीसी फिल्म बाजार में संभव होता। और जब इन गतिविधियों का समय समाप्त होने लगता है तो मैं सन डांस फिल्म समारोह में उपस्थित होने के लिए तैयार हो जाती हूं। यह फिल्म समारोह वादा करता है कि वह हमारे निजी स्क्रीन पर सामुदायिक रूप से देखने के अनुभव को दोबारा पैदा कर देगा, चाहे हम उन्हें दुनिया अलग-अलग कोनों से अलग- अलग समय पर देख रहे हों।
सुनने में चाहे यह बहुत खराब लगे लेकिन फिल्मों से हमारे प्रेम में वैश्विक महामारी आड़े नहीं आई। बेशक हम अपनी रोज की जगहों पर रोज के तरीकों से नहीं मिल सके लेकिन हमारी मुलाकात और बहुत सी जगहों पर होती रही, जैसे कि– विमियो, सिनानडो, फेस्टिवल स्कोप...। हां, यह इतना रोचक नहीं है जितना कि बाहर जाना, सफर करना, फिल्मों को ढूंढना होता है। लेकिन अगर सारी दुनिया की फिल्में स्वयं ही सारे जहान से चलकर आपके लिविंग रूम में आ जाएं तो कौन शिकायत करेगा।
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इस दौरान हाल के व्यक्तिगत इतिहास में फिल्मों को लेकर कोई बड़ी घटना ऐसे सरकती रही जैसे कोई धागा हो। करीब- करीब नौ माह बाद मैंने 10 दिसंबर, 2020 को बड़े पर्दे पर एक फिल्म देखी- दीपा मेहता की ‘फनी बॉय’। यह मैंने ओपन एयर स्क्रीनिंग में सोशल डिस्टेन्सिंग के सारे नियमों का पालन करते हुए देखी। 20 दिसंबर, 2020 को मैंने डरते-डरते मल्टीप्लेक्स में कदम रखा लेकिन किसी फिल्म को देखने के लिए नहीं बल्कि सरमद की फिल्म ‘जिंदगी तमाशा’ पर हुए एक पैनल डिस्कशन में हिस्सा लेने के लिए। इस फिल्म को पाकिस्तान की ओर से ऑस्कर के लिए आधिकारिक तौर पर भेजा गया था। और फिर अचानक से शुक्रवार 22 जनवरी, 2021 को, यानी पूरे दस माह नौ दिन बाद, मैंने घर के पास के ही एक मल्टीप्लेक्स में सुभाष कपूर की फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ देखने का मन बनाया। ऐसा नहीं था कि मैं इस फिल्म को देखने के लिए मरी जा रही थी लेकिन उस समय मैंने ऐसा महसूस किया कि कुछ सीमाओं को लांघने की जरूरत होती है और कुछ बाधाओं पर– चाहे शारीरिक हों या मानसिक– विजय पाना आवश्यक होता है। यह पूर्णरूप से मेरा व्यक्तिगत निर्णय था और यह कदम मैंने सामान्य जीवन की ओर बहुत सतर्कता के साथ मास्क और सेनिटाइजर से लैस होकर उठाया था। यह एक ऐसा निर्णय जो शायद कोई और लेना पसंदन करे। यहां तक कि मैं भी शायद थोड़े समय के लिए दोबारा ऐसा फैसला न लूं। इन दिनों हम सभी के लिए दिमाग एक ऐसी उलझन बन गया है जिसके लिए फिल्में महत्वपूर्ण हैं भी और नहीं भी।
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एक बिल्कुल चकाचक चमकती लेकिन खाली लॉबी, सुनसान पड़े स्नैक्स काउंटर, जोश से खाली द्वारपाल और दर्शकों में अपने सिवाय दो और लोग। यह वैश्विक महामारी का एक और नजारा था जो भविष्य की सूचना दे रहा था। सेनिटाइजर के लगातार छिड़काव के बीच सुनीता तोमर जो स्क्रीन पर भारत की तरफ से तंबाकू विरोधी अभियान का चेहरा हैं, से स्क्रीन पर दोबारा मुलाकात एक अजीब तरह से आश्वस्त करती है जबकि हमें पता है कि वह 2015 में गुजर चुकी हैं।
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उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ को अगर कोई सामान्य परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के ही एक मल्टीप्लेक्स में देखे, जैसा कि मैं देख रही थी, तो शायद एक समानांतर नैरेटिव को बुन डाले, विशेषकर तब जब इसका मुख्य किरदार उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से प्रेरित हो। छोटे बालों वाली और चतुराई से खेल खेलने वाली ऋचा चड्ढा को क्या अपने होम ग्राउंड में स्वीकृति के स्वर सुनाई देते या विरोधके नारे? इस फिल्म में शायद वह एक अकेला महत्वपूर्ण क्षण है जब राज्य के दो पीड़ित समुदाय– दलित और मुस्लिम– स्टेज पर एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाते हैं। इस क्षण को लेकर जनता से कैसी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़तीं?
यह फिल्म जब जाहिर तौर पर जाति विभाजनों के मुद्दे पर बुरी तरह लड़खड़ा रही थी और धर्म तथा जेंडर की राजनीति पर बहुत ही खराब मिले-जुले से संदेश दे रही थी, तब मैं हालात को लेकर केवल अंदाजा लगा सकती थी कि किस तरह से जाति, धर्म और जेंडर का मुखौटा लगाकर राजनीतिक ताकत के भूखे लोग उसे पाने के लिए कैसे-कैसे खेल खेलते हैं। वैसे, इस फिल्म ने हमें इसकी मात्र सतही तस्वीर दिखाई है। क्या यह हमने बहुत बार पहले नहीं देखा है?
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