तो फिर एक बार मोदी सरकार का लक्ष्य हासिल करने में भाजपा कामयाब हुई, वह भी और अधिक बहुमत के साथ; अच्छे दिन के बाद और अच्छे दिन का कोई वादा किये बिना। ऐसा नहीं कि विपक्ष ने, खासकर कांग्रेस ने राफेल से लेकर जीएसटी और बेरोजगारी तक पर भाजपा को घेरने की कोशिश नहीं की। लेकिन, इलेक्ट्रानिक मीडिया का बड़ा हिस्सा और मुखर मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ बना रहा। जिन साढ़े आठ करोड़ नौजवान वोटरों का यह पहला मतदान था, उनका एक बड़ा हिस्सा जाहिर है कि मोदी के साथ ही गया। अभी तक हासिल आंकड़ों के अनुसार बीजेपी का मतप्रतिशत इकतीस से बढ़ कर अड़तीस हो गया है। इन नौजवानों के रोजगार की समस्या हो या कोई और, राष्ट्रवाद के सपने ने सबको अपनी लपेट में ले लिया।
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यह भी याद रखें कि कांग्रेस ने बड़ी तैयारी के साथ मेनिफेस्टो जारी किया, जबकि बीजेपी ने इस सिलसिले में बस औपचारिकता पूरी करके काम चला लिया, और फिर भी ऐसी शानदार कामयाबी हासिल की। उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन और बंगाल में ममता बैनर्जी को भी बीजेपी की बढ़त रोकने में कोई कामयाबी नहीं मिली।
इन नतीजों की रोशनी में राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठना स्वाभाविक है, लेकिन जो लोग भाजपा को न रोक पाने के लिए कांग्रेस को मर जाने की ऐतिहासिक सलाह दे रहे हैं, उनकी सपा और बसपा के बारे में क्या राय है? भाजपा को रोकने की जिम्मेवारी उत्तरप्रदेश में तो इसी गठबंधन पर थी, और इसे और दलित-पिछड़े का प्रबल सामाजिक आधार हासिल था। ऐसे लोगों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जिन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा था, उन अन्ना के आंदोलन की राजनीतिक परिणति क्या हुई? जो लोग उस आंदोलन को देश की नयी दिशा देने वाला आंदोलन मान रहे थे, उन्हें निस्संदेह अपने आपको बधाई देनी चाहिए कि हम मोदी दशक के उत्तरार्द्ध में प्रवेश कर रहे हैं।
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असली बात यह है कि भाजपा ने बहुत सफलतापूर्वक लोगों की सहज देशभक्ति को अपने राजनैतिक एजेंडा के लिए इस्तेमाल कर लिया। यह समझने की जररूत है कि भारत में ही नहीं, दुनिया के हर देश में लोगों में अपने देश के प्रति प्रेम होता ही है, अमीर हो या ग़रीब, यह देशप्रेम हर व्यक्ति के मन में, उसके चुनावों में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाजपा, खासकर मोदीजी की सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि उन्होंने इस देशप्रेम के भाव को अपने किस्म के राष्ट्रवाद के नैरेटिव में, आख्यान में बाँध लिया। उधर, कांग्रेस ने ऐसा मान लिया कि देशप्रेम को समावेशी राष्ट्रवाद का रूप देने का विशेष प्रयत्न करने की जरूरत ही नहीं है, वह तो सहज ही है। सच यह है कि एक व्यापक राष्ट्रीय स्वप्न के ताने-बाने में बाँधे बिना न न्याय की बात चलेगी न कमजोरों के सशक्तिकरण की।
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यह विडंबना ही है कि जो कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन के दिनों से लेकर बाद तक भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतिनिधि पार्टी हुआ करती थी, वह आज भाजपा के संकीर्ण, सांप्रदायिक हिन्दुत्व के आगे मजबूर नजर आ रही है। विचार करने की मुख्य बात यही है कि ऐसा कैसे हुआ?
इसमें संदेह नहीं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बड़ी मेहनत की, लेकिन यह भी सच है कि मेनिफेस्टो के सारे अच्छे मुद्दों के बावजूद उन्हें एक बड़े राष्ट्रीय सपने का, एक महाआख्यान का रूप नहीं दिया जा सका। भाजपा का संकीर्ण राष्ट्रवाद देश के सामने जो संकट पैदा करने जा रहा है, उसे उजागर नहीं किया जा सका। कांग्रेस ही नहीं, अन्य पार्टियों ने भी कार्यकर्ताओं की वैचारिक ट्रेनिंग को महत्व दिया ही नहीं, व्यापक जनसमुदाय को राजनैतिक रूप से जागरूक करने की बात तक नहीं सोची। इस चुनाव का सबसे भयानक पहलू यह है कि आतंकवादी गतिविधि की आरोपी, खुलेआम गोडसे का महिमामंडन करने वाली उम्मीदवार ने एक पढ़े लिखे शहर से एक वरिष्ठ राजनेता को हरा दिया। यह उम्मीदवार इस हद तक गयीं कि प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि वे उन्हें मन से तो माफ नहीं ही कर पाएंगे। हालाँकि अब संभावना यह है कि देवीजी मंत्री पद भी पा सकती हैं।
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असली सवाल यह है कि उनकी उम्मीदवारी के विरुद्ध समाज में रोष की लहर क्यों नहीं दौड़ी? क्या इसके पीछे बरसों से चलाया जा रहा वह अभियान नहीं है जो गांधी और नेहरू को राष्ट्रीय खलनायकों के तौर पर पेश करता रहा है? क्या इसके पीछे आरएसस और हिन्दुत्ववादी विचार की दशकों की वह कोशिश नहीं है जो जनता की देशभक्ति को संकीर्ण राष्ट्रवाद की ओर ले जाती रही है?
पिछले चुनाव में तो फिर भी बात विकास और अच्छे दिन की थी, इस बार भाजपा का अभियान साफ तौर से राष्ट्रवाद पर आधारित था। पिछले चुनाव में अंतर्निहित धारा हिंदुत्व की थी, इस बार उसके साथ ही देश की रक्षा और आन-बान का सवाल भी बड़ी खूबी से पुलवामा और बालाकोट के जरिए जोड़ दिया गया। दूसरी ओर कांग्रेस न्याय योजना और बाकी सारी बातों को समावेशी राष्ट्रवाद के व्यापक सपने, ग्रैंड नैरेटिव से जोड़ने और उसे जनता तक ले जाने में सफल नहीं हो पाई। यह असफलता केवल चुनाव प्रचार के दौरान की नहीं, बल्कि वैचारिक काम की लगातार उपेक्षा की असफलता है। आरएसएस यह वैचारिक काम पचीसों संगठनों के जरिए लगातार करता है, दैनिक शाखाओं के जरिए लाखों स्थानों मे एक साथ करता है। पिछले चुनावों के बाद मोदीजी ने ‘ पांच पीढ़ियों के बलिदान और तप” की चर्चा खामखाह नहीं की थी।
इन चुनावों ने भारतीय राष्ट्रवाद की दो अवधारणाओं, भविष्य के दो सपनों के, गांधी और गोडसे के गहरे संघर्ष को एकदम सतह पर ला दिया है। इनका सबसे महत्वपूर्ण और स्पष्ट प्रतीक भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर की जीत है। चुनौती केवल कांग्रेस के नहीं, उन सभी के सामने है जो स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विकसित हुई भारत-अवधारणा ( आइडिया ऑफ इंडिया) से लगाव महसूस करते हैं।
यह समझना होगा कि सामाजिक अस्मिता की राजनीति, मंडल की राजनीति की ऐतिहासिक भूमिका अब पूरी हुई। मंडल के कमंडल में समाने की प्रक्रिया शुरु तो बहुत पहले ही हो गयी थी, इन नतीजों ने यह दिखा दिया कि दलित और पिछड़े तबकों की भी नयी पीढ़ी अब विकास और राष्ट्रवाद के मिलेजुले आकर्षण के ही साथ है।
यह एक संभावना है। जाति और दूसरी सामाजिक पहचानों से आगे, अब समय मूल्यों, विचारों और उम्मीदों की राजनीति का है। जाति और मजहब के नाम पर कुछ कंसेशनों और एनजीओ के लहजे में सशक्तिकरण की बातें करने के बजाय नौजवानों के मानस को समझना होगा। वे अब सरकार से अधिकारपूर्वक अपनी उम्मीदें पूरी करने की माँग करते हैं, इस माँग को प्रगतिशील, उदार राष्ट्रवाद के नैरेटिव में लाना राजनैतिक दलों की जिम्मेवारी है। देखना यह है कि कौन सा राजनैतिक दल इस जिम्मेवारी को किस हद तक अपनाता है।
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