फ्रांसीसी कहावत है, चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बिलकुल पहले जैसी होती जाती हैं। राज्यों के ताजा चुनावी नतीजों से राज्यवार जिस किस्म के आमूलचूल बदलाव की उम्मीद टीवी के पंडितों ने लगा रखी थी, वह नहीं आया। मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ कांग्रेस को वापस मिल गए, पूर्वोत्तर में मिजोरम और दक्षिण में तेलंगाना को भी क्षेत्रीय दलों ने कब्जे में ले लिया।
उधर बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा, पहले से ही क्षेत्रीय दलों के पास हैं। ऐसी दशा में आजमूदा हथकंडों से कानून और विभिन्न जांच एजेंसियों की मार्फत विपक्ष ही नहीं मीडिया पर भी तरह-तरह के दबाव बनाते हुए केंद्र की जकड़बंदी कायम ही नहीं और भी सख्त बनाने की उतावली दिखनी थी। दिखने भी लगी। फिर पुलवामा हुआ और उसके बाद सर्जिकल स्ट्राइक-2। देखते-देखते राजनीति के नक्कारखाने से ‘देश खतरे में है,’ का इतना तुमुल निनाद छिड़ गया कि गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विफल सरकारी योजनाओं, ठप्प होता वणिज्य व्यापार और विदेशी पूंजी के पलायन के मुद्दे तूती बनकर रह गए।
2019 के चुनावों की तारीख घोषित हो गई है, पर विपक्ष में ईमानदार अंतर्मंथन से अहं को निगल कर महागठजोड़ बनाने की बजाय सिर्फ पुरानी हनक से चौराहे पर खड़े होकर सत्ता पक्ष के बखिये उधेड़ने की अशोभन उत्कंठा और शीर्ष नेतृत्व में गंभीर विमर्श शुरू नहीं हो रहे। हिसाबी-किताबी किस्म के विश्लेषक जो कहें, पांच बरस से शीर्ष पर दो बड़ी बिल्लियों के सनातन झगड़ों के बीच राज्य स्तर पर लगभग हर कहीं सत्ता की रोटी राज्यों के क्षेत्रीय दल और उनके एकछत्र नेता लूट चुके हैं।
लिहाजा आज 2019 के आम चुनावों में दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों के लिए क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठजोड़ के लिए नरम पड़कर चिरौरी करनी जरूरी बनती है। इस काम में बीजेपी ने कांग्रेस से अधिक तेजी दिखाई है। लिहाजा रूठी शिवसेना और अन्नाद्रमुक को मनाने में वे कामयाब रहे हैं। अगर विपक्षी तेवर पांच राज्य चुनावों से उत्साहित होकर अलग-अलग लड़ने के पक्ष में ही जिद पकड़े रहे तब क्षेत्रीय दल अपने ही बीच से किसी एक क्षेत्रीय क्षत्रप को नेतृत्व थमा कर राष्ट्रीय चुनावों में अपना चूल्हा अलग सुलगा लेंगे। और इस तरह राज्यवार तिकोनिया बनते चुनावों में बीजेपी की जीत की राह चौड़ी हो सकती है।
पांच साल से बताया जा रहा है कि जैसे-जैसे कम्यूटरीकृत ज्ञान, ग्लोबल होती अर्थव्यवस्था और व्यापार रंग लाएंगे, भारत के शहरी उद्योगों का विकास होगा। शहर और उनके उपक्रम बड़े होंगे। खेती गौण होकर शहर अर्थ उत्पादन की धुरी बनते जाएंगे। धीरे-धीरे खेती भी सुधर कर मॉडर्न बनेगी। शहर को पलायन बढ़ने से खेतिहरों की जोतें बड़ी बन सकेंगी। वे लैपटॉप और स्मार्ट फोन से लैस होकर ई-ज्ञान, ई-मुद्रा और ई-बैंकिंग अपनाएंगे।
जब यह होगा, तो ग्राम समाज की अंधविश्वासी, प्रतिगामी सामाजिक परंपराएं टूटेंगी, महिलाएं तरक्की करेंगी और जड़ों तक प्रशासन में पैठ बनाएंगी। लिंग, जाति, क्षेत्र वगैरह के भेदभाव कम होंगे और अच्छे दिन आ जाएंगे। बड़ी आर्थिक क्रांति के बाद सामाजिक क्रांति तो खुद-ब-खुद होगी न?
लेकिन पिछले पांच सालों में जमीनी तौर से हमने देखा कि भारत में आर्थिक सोच और सामाजिक परंपराओं की जड़ें जितना नए शासकों ने सोचा था, उससे बहुत गहरी होती हैं। गांधी के बाद हमारे नेताओं ने दरअसल भारत की आत्मा को समझने का ईमानदार प्रयास बहुत कम किया है।
इसी से आज हम पा रहे हैं की ऊपरी छंटाई के बाद गोदी मीडिया की मदद से बदलाव का भ्रम भले बनाया गया हो, चुनाव आते ही वही पुरानी जड़ें फिर फुनगियां पत्ते फेंकने लगी हैं। वही मंदिर, मंडल, सरकारी खजाने खाली कराकर और सरकारी बैंकों को दिवालिया बना कर सब्सिडियां, लैपटॉप, और तरह-तरह के मुफ्त लोन आदि का बेशर्म वितरण हो रहा है।
युद्ध के उन्मत्त आह्वान के साथ महिलाओं के सघन वोट बैंक को समेट कर दूसरी पारी जीतने का उपक्रम हो रहा है, भले ही हर मृतक का परिवार नारकीय यंत्रणा से क्यों न गुजरता हो। कहीं ‘शहीदों की माताओं-बहनों को शत-शत नमन, देश के मृत जवानों की जननियां पूज्य हैं’ कहते हुए सैन्य विमानों और जवानों के छापेवाली साड़ियां, टी शर्ट बंट रहे हैं, तो कहीं देशभक्ति के कानफोड़ू संदेशों का प्रचार हो रहा है।
केरल में मंदिर प्रवेश भगवा और लाल किताबों के बाहर जाकर पहले ही करवा दिया गया था। सो अब वहां पुन: खालिस भारतीय सुपर स्ट्रक्चर के एझवा-ईसाई-नायर-लीगी जैसे वोट बैंकों का महत्व सर माथे है। मुस्लिम वोट बैंक की दशा सबसे दर्दनाक है। आजादी के बाद कुछ दशकों तक जो मुसलमान क्रांति की कामना रखता था, कम्युनिस्ट बन जाता था, लेकिन नाना थपेड़े खाकर अब वह राज्यवार अलग-अलग तरह से हर बार नए भाव-ताव करने पर मजबूर है।
पहले चुनावों में उत्तर प्रदेश से केरल तक उसके लिए फौरी तौर से ही सही, अपने जानमाल की सुरक्षा के लिए जरूरी था कि वह मतदान के लिए ऐसा दल खोजे जो बीजेपी को सत्ता से दूर रखने में मददगार साबित हो। अब वह पा रहा है कि उसके कई चर्चित नेता भी तोताचश्म साबित हो रहे हैं, क्योंकि उनको विपक्ष में जीतने वाला गठजोड़ नहीं दिख रहा। जिन शब्दों का पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा अवमूल्यन हुआ है, धर्मनिरपेक्षता उनमें से एक है।
यह नीति जिन दलों ने शाब्दिक स्तर पर अंगीकार की भी हुई है, वह उनके राजकाज को कोई आंतरिक अनुशासन या उसकी प्रशासकीय मशीनरी में कर्तव्य या कर्तव्य का बोध नहीं लाती। सत्ता पक्ष धर्म-कर्म का प्रदर्शन करता है, तो वे भी वैसा ही करते हैं। तुम काशी, तो हम उत्तरकाशी! कुछ स्वयंभू किस्म के साधु-साध्वियों की मौज है, जो मध्यस्थता से लेकर ऑर्गैनिक उत्पादों के विशाल व्यापार तक से हरचंद फायदा ले रहे हैं।
धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों की सारी बुराइयां अंगीकार कर सरकार ने उनके असली मूल्य परे कर उनका सरकारीकरण कर दिया है। कैसी विडंबना है कि पड़ोसी देश के घर में घुस कर मारने, चुन-चुनकर बदला लेने जैसे जुमलों से शांति और अहिंसा के हथियारों से आजादी की लड़ाई लड़ चुके मुल्क में चुनाव लड़े जा रहे हैं।
कभी बीजेपी के घोर समर्थक रहे मेघनाद देसाई सरीखे अर्थशास्त्री भी सर धुनकर कह रहे हैं कि इस तरह की दक्षिणपंथी राजनीति हमारे देश में आर्थिक कंज़र्वेटिज्म का उत्साही दौर नहीं लाती। वह लोगों को अपनी भारतीय पहचान की मार्फत शेष तरक्की पसंद देशों से जुड़ना भी नहीं सिखाती। ऐसी राजनीति जब मुख्यधारा में बह निकले, तो वह धार्मिक, आर्थिक प्रतिगामिता और उग्र हिंदूवाद को ही जनती है। उनकी युति विदेशी पूंजी को भगाती है और दंगा-फसाद तथा धार्मिक विद्वेष फैला कर कई स्वदेशी उपक्रमों, पारंपरिक व्यवसायों की जड़ में भी मट्ठा डाल देती है।
कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती यह है कि यदि आने वाले सप्ताहों में उसके लिए क्षेत्रीय दलों से समन्वय करना अपरिहार्य हो गया, तब ऐसे समय में किसी भी गठजोड़ को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों का एक धड़कता हुआ प्राणवान् समन्वय वह किस तरह बना सकेगी?
यह चुनाव भारत की मूल आत्मा और बुनियादी सिद्धांतों को विनाश से बचाने की लड़ाई है। वर्णाश्रम और जातियों-उपजातियों में बंटा हमारा समाज ही इस देश की मुख्यधारा हो सकता है, रहा भी है। इस मुख्यधारा के बीच कोई खुमैनी क्रांति असंभव है। अपरिवर्तन के बीच निरंतर परिवर्तन इस मुख्यधारा की जान है। और असंख्य विविधताओं को साथ लेकर चलना इसका खास गुण।
इस बार की चुनावी आंधी में युद्धोन्माद और असली युद्ध छेड़ने की जो कामना, जो भूकंप छिपा है, क्या उसे यह देश झेल सकेगा? यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। राष्ट्रीय मोर्चे कोई अजूबा नहीं, आज की जैसी स्थिति में वे एक खास कबाड़ ब्रह्मास्त्र साबित हुए हैं। बिछी हुई बाजी आज इतनी बीमार हो चुकी है, तो बिसात उलट कर देखने में हर्ज क्या?
अगर भारत अपनी आत्मा को बचाना चाहता है, तो उसके लिए मौजूदा सत्ता की स्थिरता की बजाय एक महागठजोड़ की अस्थिरता का चयन करना बेहतर विकल्प होगा। और एक करारी चुनावी मात इस समय की उन्मादी, अलगाववादी और मीडिया को शत्रु मानने वाली बीजेपी को भी खुद अपने भीतर झांक कर अपनी ईमानदार पुनर्रचना को प्रेरित करेगी। बड़ी पार्टियां एक बार सिंहासन के स्पर्शसे वंचित होकर विलुप्त नहीं हो जातीं यह सच्चाई कांग्रेस से बेहतर कौन जानता है?
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