विचार

मृणाल पांडे का लेख: लॉकडाउन ने बदली दुनिया, नेट पर साहित्यिक बहस खोल सकती हैं भाषाई साहित्य के लिए नई राह

कोरोना कर्फ्यू हटने के बाद भी पाठकों की बड़ी तादाद नेट राजपथ पर दिन-रात बहने वाली सूचना-मनोरंजन की दुनिया की तरफ मुड़ने जा रही है। और लिखित से वाचिक परंपरा से दोबारा जुड़ रहा साहित्य भी इसका एक हिस्सा होगा, यह तय है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

कई और क्षेत्रों की तरह लिखने-पढ़ने वालों की दुनिया भी कोविड के बाद बहुत जल्द छापा युग से डिजिटल युग में जाने वाली है। यह सही है कि अभी भी 60 से 80 तक के दशक की पैदाइश वाले कई लोगों के लिए छपी किताब को थामने, लेट या बैठ या खड़े-खड़े सफर करते हुए भी पढ़ने का सुख वर्णनातीत है। पर कोविड में हमारी जो घरों के भीतर तालाबंदी कर दी गई उसकी वजह से छपी किताब या अखबार खरीदना या उनको किसी रिटेलर से घर पर डिलीवर कराना तकरीबन समाप्त हो गया है। प्रकाशक और हम दईमारे लेखक-पत्रकार पिछले 6 सालों से देश के दिलो-दिमाग पर टीवी से भी अधिक सोशल मीडिया और खबरिया डिजिटल पोर्टलों को हावी होते देख रहे हैं। छपे और डिजिटल टीवी चैनलों की ग्राहकी पर नजर रखने वाली दो बड़ी रेटिंग संस्थाओं- नील्सनऔर बार्क ने अप्रैल, 2020 की बाबत जो माहवारी आंकड़े जारी किए हैं, वह दिखा रहे हैं कि तमाम डिजिटल माध्यमों के वाहक, इंटरनेट के ग्राहकों की तादाद भारत में 54 फीसदी हो गई है, यानी आज भारत के शहरों में हर दूसरा बंदा या बंदी नेट तक पहुंच रखता या रखती है। गांवों में भी नेट की 34 फीसदी पहुंच हो गई है। चूंकि इंटरनेट पाठकों, श्रोताओं को लगभग मुफ्त खबरें और दुतरफा साझेदारी के लिए तमाम तरह के इंटरएक्टिव मंच दे रहा है, कोविड का कर्फ्यू हटने के बाद भी पाठकों की बड़ी तादाद नेट राजपथ पर दिन-रात बहने वाली सूचना-मनोरंजन की दुनिया की तरफ मुड़ने जा रही है। और लिखित से वाचिक परंपरा से दोबारा जुड़ रहा साहित्य भी इसका एक हिस्सा होगा, यह तय है। वजह यह कि तालाबंदी के ऊब भरे समय में तमाम बड़े प्रकाशकों ने नेट की मदद से साहित्य के पाठ और साहित्य परबत कही का पाठकों से जो दुतरफा सिलसिला शुरू किया, वह सफल रहा। जाहिर है कि मामला अब तेजी से नेट की तरफ बह चलेगा जहां पाठक अपने पसंदीदा लेखक और साहित्य के मर्मज्ञों को देख-सुन सकते हैं और बात-बेबात टांग अड़ाने का वह सुख भी ले सकते हैं जो अब तक बड़े नामवर समालोचकों को ही मिलता रहा।

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मेरी मां गौरा जिनको साहित्य जगत उनके उपनाम ‘शिवानी’ से जानता आया है, अपने बच्चों के लिए आजन्म दिद्दी ही रहीं। हम हमेशा उससे उसी अधिकार से साहित्य से लेकर उस दिन पके खाने तक पर बहुत साहित्यिक किस्म की बहसें करते रहे। साफ कहूं तो नेट पर साहित्यिक बहसें सुनकर मुझे उनकी याद आ गई। यह एक अच्छी पहल है और यह नए पाठकों में शायद भाषाई साहित्य के लिए निरंतर आवाजाही की राह भी खोल दे।

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हर साहित्यकार और संवेदनशील पत्रकार में एक विकट आत्मसम्मान और तीखा न्यायबोध होता है। पत्रकार तो इधर निराश कर रहे हैं, पर एक अच्छा कलाकार अभी भी झूठ के आगे विनम्र लज्जास्तूप कभी न बनता है, न झुकता है। अपनी आत्मकथा में शिवानी जी ने भी लिखा है, ‘सुना यही है कि कोई विवेकी शल्य चिकित्सक कभी अपने किसी निकट आत्मीय पर छुरी नहीं चलाता और विवेकशील लेखक के लिए भी शायद यही उचित है। पर मेरा मानना है कि कभी-कभी ऐसी शल्य चिकित्सा मरीज के हित में ही नहीं, औरों के लिए भी हितकर होती है। ऐसे जीवनानुभव जो आपके जीवन के अंतरंग क्षणों से जुड़े हैं, यदि हम ईमानदारी से तमाम प्रियाप्रिय ब्योरों के साथ पाठकों में भी बांटें, तो शायद उनके सन्मुख भी जीवन के नए आयाम खुल सकें।’(सुनहुतात...से)

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आज जिस तरह हर रचनाकार अपनी तरह से नेट पर खबरों या ब्लॉग्स या साहित्यिक पत्रिकाओं के ई-संस्करणों से जुड़ता जा रहा है, उसी तरह हमारे अधिकतर पुराने साहित्यकार-पत्रकार भी कहीं-न-कहीं अपने निजी जीवन में देश की राजनीति से अंतरंग रूप से जुड़े परिवारों की उपज थे। दिद्दी के नाना ने लखनऊ के महिला कॉलेज की नींव रखी, पिता राजकुमार कॉलेज के प्रमुख थे, और संस्कृतज्ञ दादा हरीराम पाण्डे मालवीय जी के अभिन्न मित्र थे जो उनके साथ झोली फैलाए काशी में अपने सपनों के विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए गृहत्यागी बन चंदा बटोरने शहर-शहर घूमे थे। हम इंटरनेट की व्यावसायिकता पर चाहे जितने कोसने भेजें, वह पाशवी पद और धन लिप्सा वाले देश प्रमुखों और कॉरपोरेट जारों को अंगूठा दिखाता सारी दुनिया में अभिव्यक्तिकी आजादी का एक बेहद व्यापक मंच बन रहा है। कभी शांतिनिकेतन और बनारस विवि, मद्रास और मायसोरी विविके परिसर भी इसी तरह के साफ सुथरे अक्ख ड़चिंतन के खेत थे। शांतिनिकेतन तो गुरुदेव की अगुआई में उस समय राजनीतिक-आर्थिक ताकतों से विमुख देश-विदेश के शीर्ष विद्वानों की पीठ और अंतर्विषयक चिंतन और संवाद का वैसा ही खुला मंच बनकर उभरा था जैसा आज इंटरनेट। बेहद सादगीमय वातावरण में वहां अक्सर खुले आकाश के ही नीचे मूढ़ों पर बैठकर गांधी, रवींद्रनाथ, कालेलकर और हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य क्षितिमोहन सेन (अमर्त्य सेन के नाना) जैसे लोग देश और दर्शन पर चर्चाएं करते थे, जिनपर उनके बीच का पत्राचार चलता रहता था। कवि कुल गुरु रवींद्रनाथ टैगोर, पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, अवनींद्र नाथ टैगोर, आचार्य क्षितिमोहन सेन की अद्भुत तौर से अनौपचारिक शिक्षण पद्धतियों के ही तराशे हीरों में से देश को रामकिंकर बैज, अवनींद्र नाथ टैगोर, जैमिनि राय, सत्यजित रे और अमर्त्य सेन सरीखे चोटी के कलाकार-विद्वान मिले।

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अपने अधिकतर मेधावी सहपाठियों की ही तरह पचास के दशक में शिवानी जी ने बिना किसी विशेष सुविधा या किसी तरह के राज्याश्रय के एक सरस और लोकप्रिय साहित्यकार की एक वैकल्पिक पहचान बनानी शुरू की। हम सब स्कूल में थे जब साठ के दशक तक दिद्दी के उपन्यास किस्तों में ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपने लगे थे। उपन्यास लिखा जाता बड़ी सहजता से, वह हाथ से सादे फुलस्केप कागज पर लिखी पांडुलिपि मुझे दे देतीं और उसे हर सप्ताह रजिस्टर्ड पोस्ट से डॉ. भारती को क्रमिक तौर से मुंबई भेजना मेरा दाय था। वह तेजी से लिखती और अक्सर शिरोरेखा या बिंदु लगाना भूल जाती थीं। कुछेक बार अपना नाम लिखना भी। बुड़बुड़ करते हुए उस सबका संपादकीय परिमार्जन तेरह साल की उम्र से मेरा निजी उत्तरदायित्व बना और इसने मुझे संपादन की दुनिया की गेटकीपरी की हैसियत अनजाने ही दे दी। शिकायत करने पर वह गुर्राकर कहतीं, काम करने में तेरे हाड़ क्यों हंसते हैं री? देखती नहीं कैसी पिसती रहती हूं घर के काम में मैं। भाभी जी (हजारी प्रसाद जी की पत्नी) के लिए हम भी होमवर्क छोड़कर परचून की दुकान जाते रहते थे, कभी शिकायत किए बिना। कौन कहता है कि कलम चलाने वाले को दुनिया नहीं चलानी आती? नहीं आती तो यह सब छल छिद्र जो राजनीति से समाज तक में भरा है, हम भांप पाते? बात गलत भी नहीं थी। और यह बात आज के पाठक अथवा दर्शक को नए सिरे से याद दिलाए जाने की जरूरत है।

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साठ के दशक से लगभग चालीस साल तक खिंचा हिंदी लेखकों का रचनाकाल ध्यान देने लायक है। अपनी प्रिय मित्र और अग्रजा लेखिका महादेवी के साथ शिवानी या अमृता प्रीतम या कृष्णाजी और मन्नू भंडारी भारतीय इतिहास के जिस संधिस्थल पर खड़ी हो चुपचाप लिख रहीं थीं, वहां विषमता मूलक सामंती और समता मूलक लोकतंत्र की दो भिन्न संस्कृतियां परस्पर मिलती-टकराती-जुड़ती-बिखरती हुई एक नई तरह का राज-समाज रच रही थीं। उसका हरावल दस्ताबाद को हमारी बहस तलब पीढ़ी बनी। यह उनका ही प्रताप और उत्कट जिजीविषा थी जिसने हमको समाज की गहन जानकारी और सामान्य स्त्री के प्रति एक जबर्दस्त करुणा से आप्लावित किया। हजारों किशोरियों को उस काल के लेखकों ने जिनकी बाबत आज की पीढ़ी बहुत कम जानती है, बिना स्त्रीया दलित होने से शर्मसार या अतिरिक्त सजग हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छोटे कस्बों-शहरों से निकले कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा और रवीन्द्र कालिया जैसे लेखक-पत्रकारों ने गरीबी को जिया-भोगा और फिर बड़े शहरों में मेहनत और बहुमुखी रचनात्मकता से रेडियो और टीवी में भी शीर्ष पर जगह बनाई। शिवानी, मन्नूजी या ममता कालिया की तुलना में महादेवी और अमृता जी या कृष्णा सोबती परिवार के पारंपरिक दाय से मुक्त रहीं इसलिए उनके साहित्य और जीवन-दोनों को शायद पारिवारिकता की कसौटी पर अपेक्षया कम रगड़ा गया। लेकिन अधिकतर लेखिकाओं का निजी जीवन सदा उनके परिवार से गुंथा-गुंथाया ही चला। इसलिए उनका लेखन बहुत लोकप्रिय होते हुए भी अक्सर निंदा प्रिय आलोचकीय मठों द्वारा ‘घरेलू’ और मनोरंजक करार देकर सायास उपेक्षित किया गया। अंग्रेजी जीविकोपार्जनऔर सार्वजनिक व्यवहार के लिए ग्राह्य जरूर है, लेकिन जल्दही नई पीढ़ी समझ जाएगी कि भारतीय भाषा साहित्य से अंतरंगता होना ज्यादा जरूरी है। बिना अपनी मातृभाषा पर गहरी पकड़ के कोई साहित्य बहुत आगे नहीं जा सकता।

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