कोरोना वायरस से फैली महामारी की रोकथाम के लिए दुनिया के कई देशों में अलग-अलग समयावधि का लॉकडाउन किया गया है। इस वजह से अर्थव्यवस्था को तो अरब़ों रुपये की हानि हुई है, परंतु पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) में काफी सुधार हुआ है। विभिन्न देशों के पर्यावरण विभाग, मंत्रालय, कई सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएं, असंख्य संगठन एवं कई प्रकार के नियम, कानून, अध्यादेश, न्यायालयीन फैसले एवं चेतावनियों आदि से जो काम कई वर्षों में नहीं हो पाया, वह लॉकडाउन के इस छोटे-से समय में हो गया। दुनिया के कई देशों के साथ-साथ हमारे देश की इकोलॉजी में भी कई सुधार देखे गए। महानगरों के साथ-साथ 400 शहरों में हवा इतनी साफ हो गई कि दिन में नीला आकाश और रात को तारामंडल साफ दिखाई देने लगे। कुछ शहरों से तो आसपास के पर्वतों की चोटियां भी दिखाई देने लगीं। शोर, ध्वनि-प्रदूषण कम होने से पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा। कई पशु-पक्षी शहरों के आसपास तथा सड़कों पर विचरण करते देखे जाने लगे। गंगा, यमुना और नर्मदा-जैसी विशाल नदियों के अलावा अन्य कई छोटी-बड़ी नदियां, तालाबों एवं झीलों का पानी इतना साफ हो गया कि उनमें मछलियां स्पष्ट दिखाई देने लगीं। कुछ शहरों के आसपास भूजल-स्तर में भी काफी सुधार हुआ है। कचरा कम पैदा हुआ एवं शहरी तथा जंगल के पेड़ भी कटने से फिलहाल बच गए। देखना होगा कि लॉकडाउन खत्म होने का इन स्थितियों पर क्या असर होता है।
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पिछले कई वर्षों से दुनिया भर में आर्थिक विकास पर तो काफी ध्यान दिया गया लेकिन इससे इकोलॉजी की काफी हानि हुई। वर्ष1950 से 2000 तक विश्व की आर्थिक स्थिति में सात गुना वृद्धि हुई लेकिन इसके कारण 50 प्रतिशत उपजाऊ भूमि एवं जंगल समाप्त हो गए तथा दो-तिहाई समुद्र प्रदूषित हो गया। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा 2010 में जारी रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले तीन दशकों में विश्व अर्थव्यवस्था 40 गुना बढी है और इसका लाभ करोड़ों लोगों को कई प्रकार से हुआ भी है पंरतु इससे पृथ्वीपर उपस्थित प्रमुख पारितंत्रों- इकोसिस्टम, से होने वाले पर्यावरणीय लाभ 60 प्रतिशत से ज्यादा कम हो गए हैं। यह आशंका जताई जा रही है कि ये लाभ भविष्य में और कम होकर समाप्त हो जाएंगे। किसी क्षेत्र विशेष में वहां के जीव अपने पर्यावरण के साथ जो संतुलन बना लेते हैं, उसे वहां का पारितंत्र कहा जाता है। अर्थशास्त्र एवं इकोलॉजी में एक आधारभूत अंतर यह है किअर्थशास्त्र में वस्तुको बाजार-भाव से बेच दिया जाता है जबकि इकोलॉजी के प्राकृतिक संसाधन जो अदृश्य रूप से पर्यावरण सेवा प्रदान करते हैं, उनका न तो कोई मूल्य होता है और न ही कोई बाजार। एक पेड़ कितनी प्राण वायु देता है, कितनी शीतलता देता है, कितने वायु-प्रदूषण का नियंत्रण करता है, कितनी मिट्टी को बचाकर रखता है, कितने पक्षियों को घर देता है और कितने लोगों को छाया प्रदान करता है, इसका मूल्यांकन नहीं होता। लेकिन जब वह पेड़ गिर जाता है या काटदिया जाता है तो कितनी लकड़ी निकली उसकी बाजार-भावसे गणना हो जाती है। सम्भवतः 1987 में पहली बार कलकता विश्वविद्यालयके प्रो. टीएम दास ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया था कि एक पचास-वर्षीय पेड़ अपने जीवन काल में 15 लाख रुपये मूल्य की पर्यावरणीय सेवा प्रदान करता है।
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वर्ष1997 में दुनिया के कुछ अर्थशास्त्रियों तथा जीव-वैज्ञानिकों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने का प्रयास किया था। उन्होंने कम्प्यूटर आधारित गणना करके पाया था कि पेड़-पौधों द्वारा वातावरण को ठंडा रखने, कीट-पतंगों द्वारा फसलों में परागण (पॉलिनेशन) एवं महासागरों द्वारा पोषक पदार्थ एवं जल के चक्रीकरण (साइक्लिंग) की कीमत लगभग 33 अरब डॉलर प्रति वर्ष होती है। दुनिया भर की 100 से ज्यादा फसलों में मधुमक्खियों द्वारा निःशुल्क जो परागण किया जाता है, उसे यदि ड्रोन या अन्य माध्यमों से करवाया जाए तो एक हजार अरब रुपये खर्च होंगे। हाल ही में भोपाल के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल सर्विस मैनेजमेंटने देश के 10 टाइगर रिजर्व का अध्ययन कर बताया कि मध्यप्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में 13,745.53 करोड़ रुपये के प्राकृतिक संसाधन हैं। ये संसाधन 6,945.56 करोड़ रुपये की पर्यावरणीय सेवा तथा आसपास की आबादी को 14,455.42 करोड रुपये का स्वास्थ्य लाभ भी प्रति वर्ष देते हैं। कई अध्ययन, रिपोर्ट्स तथा सर्वेक्षण यही दर्शाते हैं कि अभी तक आर्थिक विकास के नाम पर इकोलॉजी- प्राकृतिक संसाधन एवं पर्यावरण, को भारी नुकसान पहुंचाया गया है।
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मौजूदा परिस्थितियों में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि लॉकडाउन से इकोलॉजी में जो सुधार हुआ है, उसे बरकरार कैसे रखा जाए? इसके लिए सबसे जरूरी यह है किआर्थिक विकास की कोई ऐसी लक्ष्मण-रेखा निर्धारित हो जो प्राकृतिक संसाधनों को बनाए रखने पर आधारित हो। अर्थशास्त्र और इकोलॉजी को जोड़कर इको-इकानॉमी की जो अवधारणा पैदा हुई है, उसपर ध्यान देकर अमल किया जाए एवं इसी के अनुसार सरकारें नियम-कानून-नीतियां आदि बनाएं। अमेरिका के वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर लेस्टर ब्रॉउन ने इकोलॉजी तथा इकोनॉमी के समन्वित प्रयास को इको-इकोनॉमी कहा है। कुछ लोगों ने इसे इकोलोनॉमिक्स भी कहा है। इको-इकोनॉमी प्राकृतिक संसाधनों के विनाश को रोककर तथा उन्हें विकसित या सुधार कर मानव विकास के लिए पैसे कमाने की विधियां खोजने पर आधारित है। इसका प्रमुख ध्येय है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जीवन की जरूरतों की पूर्ति के लिए हो, विलासिता के लिए नहीं। इस ध्येय की पूर्ति के लिए सरल और सादगी पूर्ण जीवन शैली अपनाना जरूरी है जिसे गांधीजी ने वर्षों पूर्व बताया था। हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता है, अतः इको-इकोनॉमी के आधार पर विकास किया जाए तो देश विश्व में सुधार का इको-पावर बन सकता है।
सप्रेस: ये लेखक के अपने विचार हैं
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