आखिर श्रीलंका जल उठा! जी हां, इस समय आलम यह है कि स्वयं कल तक प्रधानमंत्री रहे महिन्द्रा राजपक्षे का पुश्तैनी घर फूंक दिया गया। वह अपनी एवं परिवार की जान बचाने के लिए राजधानी कोलंबो से भागकर एक फौजी अड्डे में छिपे हुए हैं। एक केन्द्रीय मंत्री जान से मारा गया। सत्ता पक्ष के तमाम लोगों की जान खतरे में है। इस लेख के लिखे जाने तक जनता सड़कों पर है। श्रीलंका का यह हश्र होना ही था। आखिर खाली पेट जनता कब तक शांत रह सकती है। अंततः जनता का सामूहिक गुस्सा एक लावे की तरह फूट पड़ा। अब यह हाल है कि राष्ट्रपति से लेकर सत्ता पक्ष में नीचे तक हर किसी की जान खतरे में है। यह स्थिति है बकौल उर्दू कवि फैज अहमद फैजः उट्ठेगा अनल-हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी और राज करेगी खल्क-ए-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो!
जाहिर है कि ‘खल्क-ए-खुदा’ का राज बहुत समय तक नहीं चल पाएगा। अंततः फौज सड़कों पर होगी। हजारों बेगुनाह मारे जाएंगे। और तब फिर कहीं श्रीलंका एक नया राजनीतिक सफर आरंभ करेगा। लेकिन सवाल यह है कि आखिर श्रीलंका का यह हश्र हुआ क्यों? इसमें क्या केवल राजपक्षे परिवार दोषी है? क्या श्रीलंका की जनता की कोई जिम्मेदारी नहीं है? इस बात के लिए स्वयं श्रीलंका की जनता को अपने भीतर झांककर देखना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि पहली जिम्मेदारी तो राजपक्षे परिवार की है। पिछले लगभग पंद्रह-बीस वर्षों में इस परिवार ने तमिल टाइगर एवं श्रीलंका की मुस्लिम आबादी के खिलाफ नफरत की राजनीति बोकर चुनाव जीतने का सीधा एवं सरल फार्मूला खोज लिया। सबसे पहले वर्ष 2009 में लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण समेत हजारों तमिल मारे गए। वह एक खुला नरसंहार था जिसकी सारी दुनिया ने निंदा की। लेकिन इस नरसंहार पर श्रीलंका की बौद्ध आबादी ने न केवल ताली बजाई बल्कि राजपक्षे को बौद्ध आबादी का ‘हृदय सम्राट’ मान लिया। श्रीलंका में हुए तमिल नरसंहार के एवज में श्रीलंका की बौद्ध आबादी ने महिन्द्रा राजपक्षे को झोली भरकर वोट दिया। बस राजपक्षे समझ गए कि नफरत की हांड़ी चढ़ाए रखो, समस्या आने पर उसकी आंच तेज कर दो। जनता अपनी सारी समस्याएं भूलकर ‘हृदय सम्राट’ को आंख मूंदकर वोट देती रहेगी। जब तमिल नफरत की आग कुछ मंद होने लगी, तो श्रीलंका में मुस्लिम नफरत की आग फैलने लगी और राजपक्षे चुनाव जीतते रहे। हद यह है कि श्रीलंका संविधान के अनुसार, महिन्द्रा राजपक्षे राष्ट्रपति पद का कार्यकाल पूरा कर लिए। अब उन्होंने यह चाल चली कि अपने भाई गोटबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति पद का चुनाव जितवा दिया और स्वयं प्रधानमंत्री का पद ग्रहण कर न केवल सत्ता की कमान अपने हाथों में रखी बल्कि वही नफरत की राजनीति का बाजार गर्म रखा। वह चुनाव जीतते रहे और इधर देश की आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ती गई कि अब देश कंगाल है और जनता सड़कों पर। एक लंबे समय तक यही जनता नफरत की आग में मदमस्त महिन्द्रा राजपक्षे को ‘बौद्ध हृदय सम्राट’ मान आंख मूंदे वोट देती रही। जब पेट की आग से जनता की आंखें खुलीं, तो बहुत देर हो चुकी थी। यह समझ में आने में दो दशक निकल गए कि जिसको वह ‘बौद्ध हृदय सम्राट’ समझ रहे थे, वह तो रावण निकला। अब लंका जल रही है और आधुनिक श्रीलंका के रावण का समय भी पूरा होने वाला है।
भारत के पड़ोस में श्रीलंका पहला देश नहीं जो नफरत की राजनीति का शिकार होकर झुलस गया और इसका खामियाजा अंततः जनता ने भुगता। हमसे सटा हुआ पाकिस्तान न जाने कब से इसी राजनीति का शिकार है। पाकिस्तान में जिया उल हक ने भारत से नफरत की हांडी चढ़ाकर देश को इस्लाम धर्म की अफीम का आदी बना दिया। पाकिस्तान ने सारे संसार में जिहाद का ठेका अपने सिर पर ले लिया। अफगानिस्तान से लेकर अमेरिका पर 9/11 आतंकी हमले तक हर जगह पाकिस्तानी जिहादियों के कदमों के निशान मिलने लगे। वहीं जिहादियों ने कश्मीरी जन्नत को जिहाद के नाम पर जहन्नुम बना दिया। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ। पिछले लगभग तीस-चालीस वर्षों से पाकिस्तानी जनता के सिर पर फौज सवार है। लोकतंत्र के नाम पर चुनाव होते हैं। लेकिन इमरान खान की तरह जब फौज चाहती है, तब वह चुने हुए नेता को कान पकड़कर बाहर कर देती है। इधर, पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का हाल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था जैसा ही होता जा रहा है। और उधर जिहाद के नाम पर अब तक सबसे ज्यादा स्वयं पाकिस्तानी जनता जान खो चुकी है।
धर्म के नाम पर राजनीति एक बहुत ही खतरनाक फार्मूला है। इसमें जनता कार्ल मार्क्स के अनुसार, अफीम के नशे जैसी मस्त हो जाती है और नेता एवं शासक वर्ग मजे करता है। अफसोस कि यह नशा मोदी जी की नफरत की राजनीति के कारण भारत में भी फैलता जा रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था का यह हाल है कि महंगाई आसमान छू रही है। नींबू 15 रुपये का एक के भाव से बिक रहा है। खाने-पकाने का एक गैस सिलेंडर लगभग हजार से ऊपर के भाव बिक रहा है। एक लीटर पेट्रोल सौ रुपये से अधिक भाव से बिक रहा है। उधर, डब्ल्यूएचओ के आंकड़े के अनुसार, भारत में 48 लाख लोग कोविड महामारी से मारे जा चुके हैं। साथ ही करोड़ों नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं। लेकिन हर चुनाव अंततः बीजेपी ही जीतती है। स्पष्ट है कि श्रीलंका की तरह हमारी जनता पर भी नफरत की राजनीति का नशा अफीम के समान छा चुका है। अब जनता आंख खोलकर नहीं बल्कि नशे में आंख मूंदकर वोट डाल रही है। अब तो यह डर लगने लगा है कि क्या भारत भी श्रीलंका के रास्ते पर अग्रसर है। आसार कुछ अच्छे नहीं हैं। हमारे देश में भी तमिल टाइगरों के नरसंहार के समान नफरत की राजनीति गुजरात में सन 2002 में मुस्लिम नरसंहार से ही हुई थी। फिर देखते-देखते नरेन्द्र मोदी राजपक्षे के समान ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ हो गए। अब इस देश की जनता भी आंख मूंदकर मोदी जी के नाम पर वोट डाल रही है। हमारी अर्थव्यवस्था कितनी लचर हो चुकी है, इसका विवरण हो ही चुका है। अब भगवान ही भारतवर्ष को श्रीलंका जैसी स्थिति से बचाए।
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