ऐसे वक्त में जब नामचीन पुस्तकालयों पर भी संकट हो और इनकी दुनिया सिमटती जा रही हो, पढ़ने के ऐसे किसी नए ठिकाने की स्थापना का छोटा-सा भी प्रयास स्वागतयोग्य है। हालांकि, पढ़ाई की दुनिया के मोबाइल में डूबते जाने के इस दौर में भी ऐसे प्रयास गाहे-बगाहे सामने आते ही रहते हैं, वह भी अपेक्षाकृत छोटे और पिछड़े इलाकों से। उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग जिले के गांव मणिगुह ने भी ऐसी ही नई शुरुआत की है जिसे पुस्तकालय गांव नाम दिया गया है। यह सब गांव-घर फाउंडेशन और महज चार लोगों की इसकी छोटी सी टीम के कारण संभव हो सका।
पहाड़ में कोई नया काम शुरू करना हो तो पर्यटन से जुड़ा कुछ भी बेहतर नहीं माना जाता है। पर्यटकों को मणिगुह की तरफ आकर्षित करने के लिए गांव घर फाउंडेशन ने महाराष्ट्र के महाबलेश्वर से सत्रह किलोमीटर दूर स्थित भिलार गांव का उदाहरण लिया। भिलार देश के पहले 'पुस्तक गांव' के रूप में प्रसिद्ध है और सुमन मिश्रा की टीम ने मणिगुह को भी भिलार की तरह किसी विशेष थीम पर विकसित करने का विचार किया। विकल्प के रूप में उनके सामने लोकतांत्रिक गांव, कला गांव, पुस्तकालय गांव जैसे नाम उपलब्ध थे।
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समस्या थी कि आजकल लोग मोबाइल में इतना डूब गए हैं कि किताब नहीं पढ़ते तो वह पुस्तकालय क्यों आएंगे। ऐसे में उन्होंने सोचा कि पुस्तकालय को गांव की पहचान से जोड़ दिया जाए तो लोग अपनी पहचान बचाने जरूर आगे बढ़ेंगे। इसी सोच के साथ उन्होंने मणिगुह में एक पुस्तकालय शुरू किया।
'गांव घर फाउंडेशन' चार लोगों का समूह है जिसमें रेख़्ता फाउंडेशन की पहल सूफ़ीनामा से जुड़े सुमन मिश्रा, उनकी पत्नी बीना नेगी, आलोक सोनी और राहुल रावत शामिल हैं। बीना नेगी और राहुल रावत उन करोड़ों उत्तराखंडियों में से हैं जिनके पिता मूलभूत सुविधाओं के आभाव में गांव से पलायन कर दिल्ली में बस गए। आलोक सोनी लंबे समय तक मीडिया से जुड़े रहे हैं।
पिछले साल 2022 में इन चारों ने सोचा कि उत्तराखंड के मणिगुह गांव में पहाड़ के लोगों के लिए क्या काम किया जा सकता है और इस पर उन्होंने रिसर्च शुरू किया। मणिगुह गांव को ही अपने काम के लिए चुने जाने के सवाल पर सुमन मिश्रा बताते हैं कि उनकी पत्नी भी इसी क्षेत्र से आती हैं और इलाके की भौगोलिक स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ हैं।
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दिल्ली से आना है तो दिल्ली-हरिद्वार-देवप्रयाग-रुद्रप्रयाग-अगस्त्यमुनि होते हुए मणिगुह पहुंचा जा सकता है। अगस्त्यमुनि तक तो चौड़ी सड़क मिलती है और उसके बाद बारह किलोमीटर के पहाड़ी रास्ते पर ऊपर मणिगुह आना होगा। अगस्त्यमुनि से मणिगुह आने के लिए टैक्सी मिलती है जो प्रति यात्री 80 रुपये में पहुंचाती है। अगस्त्यमुनि से मणिगुह तक का सफर आधे घंटे का है। गांव-घर फाउंडेशन गूगल मैप पर भी है जिसकी मदद से भी पुस्तकालय गांव पहुंचा जा सकता है।
सुमन मिश्रा कहते हैं कि एक साल पहले जब उन्होंने पुस्तकालय गांव की परिकल्पना की थी तब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर उन्होंने गांव के पुस्तकालय में किताब पढ़ती महिलाओं की तस्वीर बनाई थी। आज वह कल्पना यथार्थ में बदल गई है। पुस्तकालय गांव में पढ़ती मातृशक्ति की मौजूदा तस्वीर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा बनाई गई तस्वीरों से कहीं ज्यादा खूबसूरत है। यहां विभिन्न विषयों पर दस हजार से ज्यादा किताबें उपलब्ध हैं तो सैकड़ों किताबें प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाली भी हैं। इनमें कई लेखकों, कवियों का निजी संग्रह भी शामिल है जो और प्रायः कहीं नहीं मिलता। इनमें ललित मोहन थपलियाल, शशि भूषण द्विवेदी, भगवान सिंह और अविनाश मिश्र शामिल हैं। उर्दू साहित्य का भी एक बड़ा संग्रह यहां देवनागरी में उपलब्ध है।
गांव के बच्चों को कंप्यूटर सीखने के लिए पहले अगस्त्यमुनि जाना पड़ता था लेकिन अब इनके फाउंडेशन ने गांव में ही कंप्यूटर उपलब्ध करवा दिए हैं। ऑनलाइन अंग्रेजी क्लास और साथ में प्रोजेक्टर पर स्मार्ट क्लास की सुविधा के बाद पुस्तकालय में बच्चों, बड़ों की भीड़ रहने लगी है।
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सुमन मिश्रा कहते हैं कि सिर्फ एक पुस्तकालय से किसी गांव को ‘पुस्तकालय गांव’ नहीं कहा जा सकता। पहाड़ के गांवों में लोग जंगली जानवरों के डर से जल्दी ही घरों में कैद हो जाते हैं या घर से ज्यादा दूर नहीं जाते। इस वजह से उन्होंने मणिगुह के आसपास के क्षेत्रों में पुस्तकालय मंदिर बनाए। यह पुस्तकालय मंदिर अस्पताल, स्कूल, मंदिर जैसी जगहों के आसपास रखे गए हैं। इनकी छत फाइबर से बनी है और इनमें कुछ किताबें रख दी गई हैं और इनकी चाबी लड़कियों के हाथ में दे दी गई हैं। पुस्तकालय को मंदिर से जोड़ने की वजह से लोग अब किताबों को धर्म से जोड़कर देखने लगे हैं और उनका झुकाव किताबों की तरफ बढ़ गया है।
गांव में पुस्तकालय खोलने और उसके आधार पर गांव के विकास की राह में जाति भी आड़े आई। आज भी भारतीय समाज अगर जाति के आधार पर बंटा है तो मणिगुह भी इससे अलग नहीं है। फाउंडेशन के सामने यह ऐसी समस्या थी कि गांव के सभी लोगों को पुस्तकालय से जुड़े कामों में एक साथ जोड़ना मुश्किल होने लगा।
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सुमन मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने देखा कि लोग गांव से बाहर निकल जब अगस्तमुनि जाते हैं तो किसी की जाति नहीं पूछते। यही लोग जब बड़े शहरों में बाहर निकलते हैं तो भी इन्हें किसी की जाति से मतलब नहीं रहता। इसका अर्थ यह है कि सुविधा और विकास, जातिवाद या अन्य सामाजिक मतभेद खत्म कर देता है। जैसे दिल्ली में पहले लिव इन रिलेशनशिप वाले जोड़ों को घर नहीं मिलते थे, पर जब एक नहीं तो कोई और उन्हें घर देने लगा तो सब देने लगे। लोगों को समझ आने लगा कि आप सुविधा नही देंगे तो दूसरा आपसे आगे निकल जाएगा।
इसी अनुभव से उन्होंने एक प्रयोग किया। पर्यटन के साथ किताब और गांव में सबका विकास। टीम ने गांव वालों को अपने आसपास की सुंदर पहाड़ियों में घूमने आए लोगों के लिए होम स्टे खोलने को प्रेरित किया। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए ही इस जगह को पुस्तकालय गांव के तौर पर विकसित करने का सुझाव दिया। गांव के लोगों की समिति होम स्टे का संचालन करती है ताकि गांव वालों को यह न लगे कि पुस्तकालय सिर्फ 'गांव घर फाउंडेशन' का है। इसके लिए उनसे कहा गया कि होम स्टे से मिलने वाले किराये का कुछ हिस्सा पुस्तकालय के लिए भी दिया जाए ताकि वह गांव वालों का पुस्तकालय भी रहे। इस तरह गांव के लोग अब इतने जागरूक हो चुके हैं कि उनके आर्थिक विकास की परिभाषा में पुस्तकालय का विकास भी शामिल है।
सुमन कहते हैं कि हाल ही में इन होम स्टे में रहने कुछ अतिथि पुस्तकालय गांव पहुंचे। स्थानीय घरों में रह कर पहाड़ी व्यंजनों का आनंद लेते हुए गांव के बच्चों से संवाद और प्रकृति की गोद में हजारों किताबों का सानिध्य यह पुस्तकालय गांव में ही संभव है। यहां पढ़ने-पढ़ाने की एक अनोखी संस्कृति विकसित हो रही है जो गांव के लोगों के आर्थिक और बौद्धिक विकास में मददगार है।
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सुमन मिश्रा बताते हैं कि बीते कुछ दिनों में देश भर से कई लोगों ने संपर्क कर इसके बारे में जानना चाहा है ताकि वह अपने पैतृक गांव में भी ऐसी ही लाइब्रेरी शुरू करें। इनमें से अधिकतर दिल्ली या दूसरे बड़े शहरों में रहने वाले उत्तराखंडी लोग हैं। लाइब्रेरी शुरू करना मुश्किल नहीं। असल चुनौती उसे सुचारू रूप से चलाना है। कई पुस्तकालय इसलिए बंद हो जाते हैं कि लाइब्रेरियन नहीं होते। लेकिन स्थानीय लोगों को साथ लेकर, उनकी समस्याओं का हल देते हुए, उनकी सहभागिता से पुस्तकालय बनाया जाए तो लोगों की रुचि बढ़ती है और वे जवाबदेह भी बनते हैं।
इंस्टाग्राम, फेसबुक रील्स के इस दौर में किताबें तो रखी जा सकती हैं लेकिन पाठक तैयार करना असल चुनौती है। भारतीय गांवों की चुनौतियां वैसे ही कम नहीं होती हैं। कई ग्रामीण इलाकों तक तो सड़क भी नहीं पहुंचती है। लेकिन इस प्रयास की सफलता से इतना तो तय है कि प्रकृति और किताबों का यह मेल आने वाले दौर में हमारे गांवों की तस्वीर बदलने वाला साबित हो सकता है।
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