लखीमपुर खीरी जिले की पहचान पहले अपने एक कस्बे- ओयल, से ज्यादा होती थी जिसे पीतल नगरी भी कहते थे। अब यह उत्तर प्रदेश के इकलौते दुधवा नेशनल पार्क की वजह से ज्यादा जाना जाता है। क्षेत्रफल के लिहाज से यह जिला पहली कतार में शामिल है, तो राजस्व देने के मामले में भी अव्वल है। यहां की मुख्य फसल धान, गेहूं और गन्ना है। खेती-किसानी के हिसाब से इसे दो भागों में बांटकर देखना सही होगा। जिले के एक हिस्से में आजादी के समय या बाद में बाहर से आए किसानों को बसाया गया जिनके पास बड़ी जोत है। वहीं दूसरे हिस्सों में पुश्तैनी किसान अधिकांशतः छोटी जोत वाले हैं। आर्थिक रूप से संपन्नता में भी यह अंतर साफ दिखाई पड़ता है।
बाहर से आकर बसे किसान वे हैं जिनके पुरखों ने देश के विभाजन की त्रासदी झेली। जब वे भारत आए और रोजी-रोटी के लिए खेती करने की इच्छा जाहिर की तो पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रयास से उन्हें पीलीभीत सहित लखीमपुर खीरी के भीरा, बिजुआ, पलिया कलां, सम्पूर्णानगर, निघासन, तिकुनिया, बेलरायां, ढकेरवा आदि क्षेत्रों में बसाया गया। बाद में इन परिवारों ने अपने अनेक रिश्तेदारों को भी पंजाब से बुला लिया। उन परिवारों में अनेक लोग सेना और पुलिस से रिटायर थे।
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लखीमपुर खीरी जिले की उत्तरी सीमा नेपाल से लगती है। इस लंबी खुली सीमा पर ही दुधवा नेशनल पार्क है। यह पूरा इलाका घने जंगल का है। इसी जिले से होकर असम रोड गुजरती है। यह सड़क चीन से हुए युद्ध के बाद आनन-फानन में बनी थी। तब नेहरू की दूरदर्शी नीति थी कि नेपाल से लगी खुली सीमा पर आने वाले समय में अगर कभी जनता के सहयोग की जरूरत पड़े तो देश के लिए इन लोगों की सेवाएं ली जा सकें। इसी बात को ध्यान में रखकर विभाजन में पाकिस्तान से आई बहादुर सिख कौम को यहां बसाया गया। वैसे, बाद में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को भी इस इलाके में लाया गया। बांकेगंज सहित जंगल के आसपास कई जगह बाकायदा इनकी बंगाली कॉलोनियां बसी हैं।
इसी कड़ी में खीरी-पीलीभीत उपनिवेशन योजना के तहत पूर्वांचल से लोगों को लाया गया। इसमें बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़ आदि जिलों से आए लोगों को पट्टे पर जमीनें दी गईं। ऊपर जिन क्षेत्रों का जिक्र किया गया है, वहां बड़े पैमाने पर जमीन तो थी, पर उनमें झाड़-झंखाड़ और जंगल थे। बाहर से आए लोगों ने काट-छांटकर इसे रहने और खेती करने लायक बनाया। वैसे, कुछ लोग नौकरी के पेशे में भी गए। कई परिवारों के लोग विदेशों तक में काम-धंधा करते हैं। कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनके कुछ सदस्य यहां रहते हैं तो कुछ पंजाब अथवा पूर्वांचल में।
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दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना इंदिरा गांधी के प्रयास से हुई थी। इसमें कड़ी बने थे पूर्व केन्द्रीय मंत्री बालगोविन्द वर्मा, उपेन्द्र त्रिवेदी गांधीऔर पद्मश्री विली अर्जुन सिंह। इंदिरा गांधी को किसी मित्र देश से बतौर तोहफा तारा नामक बाघिन मिली थी। उसे उन्होंने विली को सौंप दिया था। यहीं पार्क के पास रहने वाले विली परिवार का वह लंबे समय तक हिस्सा रही। उत्तराखंड बनने के बाद इस इकलौते नेशनल पार्क में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में पलिया कलां में हवाई पट्टी का निर्माण किया गया था। लेकिन उसे आज तक शुरू नहीं किया जा सका।
बड़ी जोत वाले किसानों के इस क्षेत्र में पहले वामपंथी पार्टियों का जनाधार हुआ करता था। गांव-गांव उनके कार्यकर्ता होते थे। नागरिक अधिकारों के सवालों को लेकर वामपंथी पार्टियों के बैनर तले दो-चार सौ लोग ब्लॉक, तहसील से लेकर जिला मुख्यालय तक जुट जाते थे। जिला मुख्यालय पर स्थित युवराज दत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बौद्धिकों का एक तबका होता था। इस कॉलेज की स्थापना ओयल के राजा युवराज दत्त ने की थी। उनकी विद्वता की चर्चा देश-दुनिया में आज भी पुराने लोग किया करते हैं। रेलवे स्टेशन की चठिया- सामाजिक-सांस्कृतिक और वैचारिक लोगों का एक समूह होती थी। दोनों का नेतृत्व कथाकार देवेन्द्र किया करते थे। गांधीवादी पत्रकार उपेन्द्र त्रिवेदी ‘गांधी’ अभिभावक के रूप में मौजूद रहते थे। सामाजिक, सांस्कृतिक और नाट्य क्षेत्र में सक्रिय अभिव्यक्ति के युवाओं की टोली हुआ करती थी। इन सबसे इन आंदोलनों को वैचारिक खुराक मिलती थी।
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इस इलाके में छिटपुट किसान आंदोलन समय-समय पर होते रहे हैं लेकिन आजादी के पहले निघासन और धौरहरा में बड़े किसान आंदोलन इतिहास में दर्ज हैं। अवधी के प्रख्यात कवि और विधायक पं. वंशीधर शुक्ल ने किसान समस्या को अपनी कविताओं में बड़ी बारीकी से उठाया है। विधायक और राज्यपाल रहे लेखक माता प्रसाद ने बताया था कि विधानसभा में शुक्ल जी सदन में अपनी बात कविताओं के जरिये ही रखते थे। आजादी के आंदोलन के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए भी यह जिला जाना जाता है। खीरी के डिप्टी कमिश्नर सर रॉबर्ट विलियम डगलस विलोबी को मौत के घाट उतारने वाले नसीरुद्दीन मौजी और राजनारायण मिश्र का नाम स्वतंत्रता आंदोलन में अमर है। उनकी याद में जिला मुख्यालय पर बना नसीरुद्दीन मौजी भवन आज भी इसकी गवाही देता है।
काश, जिले की इन विभूतियों से आज के नेता कुछ सीख पाते तो लखीमपुर खीरी का नाम आज जिसके लिए कुख्यात हुआ है, वह न होता।
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