विचार

आपसी विश्वास और व्यापार की कमी बन गई है भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश की तरक्की की राह का रोड़ा

अगर हम दक्षिण एशिया के इतिहास को देखें, तो हम पाते हैं कि 75 वर्षों में हमने हर तरह के सिस्टम का प्रयोग तो किया है लेकिन हम गरीब बने हुए हैं और एक साथ जुड़े हुए हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

हम मानते रहे हैं कि भारत कुछ मामलों में दक्षिण एशिया से अलग है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। कुछ अर्थपूर्ण संकेतकों को देखें तो सामने आता है कि बहुत मामूली तौर पर हम पाकिस्तानियों या बांग्लादेशियों से अलग हैं। मसलन, हमारी प्रति व्यक्ति आय लगभग एक जैसी है। 2021 में तीनों देशों में प्रति व्यक्ति आय समान थी। बांग्लादेश में 2503 डॉलर, भारत में 2277 डॉलर और पाकिस्तान में 1537 डॉलर थी। तुलना के लिए देखें तो केन्या में प्रति व्यक्ति आय 2006 डॉलर और दक्षिण अफ्रीका में 6900 डॉलर थी। अब चीन और अन्य देशों को देखते हैं। चीन में प्रति व्यक्ति आय 12,556 डॉलर, दक्षिण कोरिया में 34,757 डॉलर और जापान में 39,285 डॉलर है। ये देश निश्चित रूप से अलग स्तर पर है जबकि दक्षिण एशिया में हम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

इसी तरह मानव विकास सूचकांक को देखते हैं। संयुक्त राष्ट्र अपने मानव विकास सूचकांक को मानव विकास में हासिल की गई औसत उपलब्धियों को आधार बनाता है। इनमें लंबा और स्वस्थ्य जीवन, ज्ञान की प्राप्ति और जिंदगी जीने का एक बेहतर तरीका या साधन शामिल हैं।

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स्वास्थ्य आयाम का आकलन जन्म के समय जीवन प्रत्याशा द्वारा किया जाता है, शिक्षा आयाम को 25 वर्ष और उससे अधिक आयु के वयस्कों के लिए स्कूली शिक्षा के वर्षों और स्कूल में प्रवेश करने वाले बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा के अपेक्षित वर्षों के आधार पर मापा जाता है। जीवन स्तर के आयाम को प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय द्वारा मापा जाता है।

32 साल पहले 1990 में, बांग्लादेश की जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 56 साल थी और स्कूली शिक्षा का औसत वर्ष 3.3 साल था। पाकिस्तान की उम्र 60 साल 2.3 साल थी, जबकि भारत की 58 साल और 2.8 साल थी। 20201 में, यह बांग्लादेश के लिए 72 वर्ष और 7.4 वर्ष, भारत के लिए 67 वर्ष और 6.7 वर्ष और पाकिस्तान के लिए 66 वर्ष और 4.5 वर्ष हो गई है। तुलना के लिए देखें तो नेपाल 68 वर्ष और 5.1 वर्ष और श्रीलंका 76 वर्ष और 10.8 वर्ष हैं। विश्व में औसत जन्म के समय जीवन प्रत्याशा का 72 वर्ष और स्कूली शिक्षा का 8.6 वर्ष था, जिसका अर्थ है कि श्रीलंका को छोड़कर, सभी दक्षिण एशियाई देश विश्व औसत से नीचे हैं।

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उसी दौर में यानी 1990 में चीन में जीवन प्रत्याशा 68 वर्ष और स्कूली आयू 4.1 साल थी। आज यह 78 वर्ष और 7.6 वर्ष है। चीन में औसत आमदनी इतनी है कि इसके आधार पर चीन विश्व में मानव विकास इंडेक्स के औसत से भी आगे है।

बाहरी लोग अगर इन आंकड़ों को देखेंगे तो उन्हें पाकिस्तान या बांग्लादेश से भारत अलग नजर नहीं आएगा। चूंकि यह डेटा मुश्किल है इसलिए हमें उनसे सहमत होना होगा, भले ही हमारे पास अंतर का कुछ दार्शनिक आधार क्यों न हो।

यदि हम स्वीकार करते हैं कि हम समान हैं, और यदि एक जैसे नहीं हैं, तो हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि 1947 के बाद से हम अपने लोगों के लिए तेजी से विकास और जीवन को बेहतर बनाने में सक्षम क्यों नहीं हैं। तो क्या, जैसा कि अक्सर माना जाता है, समस्या हमारा वह 'सिस्टम' है? और बात वही है, अगर हम दक्षिण एशिया के इतिहास को देखें, तो हम पाते हैं कि 75 वर्षों में हमने हर तरह के सिस्टम का प्रयोग तो किया है लेकिन हम गरीब बने हुए हैं और एक साथ जुड़े हुए हैं।

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हमने संसदीय लोकतंत्र में ऐसी छेड़छाड़ की है, जिसमें एक पार्टी (पहले कांग्रेस और फिर 2014 के बाद से बीजेपी) का वर्चस्व रहा है, जिसमें विभिन्न गुट शामिल हैं (1979, फिर 1989, 1998 और वाजपेयी के दौर में), और जिसने खुद को सत्तावादी बनाया।

हमने कुछ सैनिक तानाशाही भी देखी है। (पाकिस्तान में 1960, 1980 और 2000 के दशक में और बांग्लादेश में 1970 और 1980 के दशक में)। हमने वंशवाद भी देखा है (गांधी, भुट्टे, मुजीब-हसीना, जिया-खालेदा), हमने क्षमता के आधार पर लोकतंत्र देखा है (मोरारजी देसाई, शास्त्री, वाजपेयी, शरीफ, मोदी, गुजराल, गौड़ा आदि)। हमने केंद्रीय योजना के तहत अर्थव्यवस्था के प्रबंधन की कोशिश की है (1950 और 1960 के दशक में), लाइसेंस राज से, उदारवाद से।

हम एक बार फिर उसी जगह आ गए हैं जो हम पहले करते रहे हैं (भारत में आयात का विकल्प अभी और 1970 के दशक में)। हमने ऐसे क्षेत्र विकसित किए हैं जिसमें हम शीर्ष पर है (भारत 30 साल पहले आईटी/बीपीओ और बांग्लादेश आज गारमेंट में)।

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हमने न्यूक्लियर हथियार विकसित किए हैं, हमने अपनी सेनाओं पर बहुत पैसा खर्च किया है। पाकिस्तान अपनी सेना पर  अपने खजाने का 17  फीसदी खर्च करता है। भारत और बांग्लादेश अपनी सेना पर 9 फीसदी खर्च करते हैं। हमने मजबूत होने की कोशिश की है, हमने हठी और जिद्दी होने की भी कोशिश की है। हमने पश्चिमी गठबंधन का साथ दिया है (पाकिस्तान ने 1960 के दशक में), हम गुट निरपेक्ष भी रहे हैं (भारत 1950 के दशक में) और इस दौरान हमने कुछ छोटे-मोटे काम और भी किए हैं।

लेकिन इन सबका आखिरी नतीजा क्या है। और वह है जो इस लेख की शुरुआत में लिखा गया है। इसका अर्थ है कि हम कुछ तो गड़बड़ कर रहे हैं, या हमसे कुछ तो छूट रहा है। आखिर वह क्या है?

विश्व बैंक बताता है कि बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी व्यापार कुल कारोबार का 5 फीसदी है, जबकि दक्षिण एशिया के अन्य देशों का कारोबार इससे पांच गुना ज्यादा है। यहां कारोबार 23 अरब डॉलर का है, हालांकि इसे पांच गुना होना चाहिए था। समस्या दरअसल मानवीय तौर पर पैदा की हुई है। विश्व बैंक के मुताबिक, “सीमाई चुनौतियों के कारण किसी कंपनी को भारत में अपने पड़ोसी के मुकाबले ब्राजील से कारोबार करना 20 फीसदी सस्ता पड़ता है” और यही मुख्य समस्या है। पूरे क्षेत्र में कारोबारी कमी का बड़ा कारण यही है।

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यह एक ऐसी बात है जिसके बारे में हमने कोशिश ही नहीं की। हमने एक-दूसरे के लिए अपने दरवाजे खोले ही नहीं, और हम एक तरह से उसी तरह की भौगोलिक और आर्थिक स्थितियों में रहे जैसा कि 1947 से पहले थे। क्या यह संभव है कि हम ऐसा कर सकें और इसका हमारे समाजों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? मुझे नहीं पता कि ऐसा करके हम चीन और जापान और दक्षिण कोरिया ने जो किया उसे दोहरा सकते हैं या नहीं, लेकिन मुझे पता है कि यह एक ऐसे झिझक या अवरोध को हटा सकता है जो हमने खुद पर लगाया है।

हकीकत यह है कि इस बारे में आज भी व्यापक रूप से चर्चा नहीं की जाती है, तीनों देशों में लोकतंत्र होने के बावजूद, हमने अपने हालात से मुंह मोड़ रखा है और लगातार उनकी अनदेखी कर रहे हैं। और, जब हम 21वीं सदी की दूसरी तिमाही में प्रवेश कर रहे हैं, दक्षिण एशिया में जिस तरह के हालात हैं, उससे हमारे राजनीतिक दल कितने संतुष्ट हैं।

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