हिंदी साहित्य के तमाम नीम, करेला और भटकटैया के कांटों से भरे ऊबड-खाबड विस्तार के बीच कृष्णा जी एक दुर्लभ ऑर्किड थीं। बूटा सा कद, चौड़ा माथा, आंखों को ओझल बनाता मोटा धूपछांही चश्मा और सर पर लिपटा एक रंगबिरंगा सुनहली, रुपहली कोर वाला दुपट्टा। हमारी पीढ़ी उनके अविस्मरणीय बुतशिकन उपन्यास : डार से बिछुड़ी, तिन पहाड़, यारों के यार, मित्रों मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के,और (कथासंकलन) बादलों के घेरे पढ़ती हुई बड़ी हुई। वे उन विरल लेखिकाओं में से थीं, जिनकों औसत हिंदुस्तानी किस्म के महिलापने से जोड़कर आंकने की धृष्ठता नहीं की गई। वे समय, आयु, लिंग-जाति के भेदों से बहुत ऊपर एक विशुद्ध चौबीस कैरेट कथाकार थीं, जिसे किसी सुकवि ने ‘कनक डहडहा सोलहबानी’ कहा है।
कृष्णा जी गुजरात (पंजाब) में 1925 में जनमी और विभाजन की विभीषिका से दो चार हुईं। डार से बिछुड़ी उसका एक उत्पाद है। उनके यारों के यार ने बहुत बेबाकी से दिल्ली के सचिवालयों की दर्दभरी उस दुनिया से पर्दा उठाया जो गालियों का अक्षय कोष है। सूरजमुखी अंधेरे के में पाठक पहली बार हिंदी में #मीटू आंदोलन से दो दशक पहले बलात्कार की शिकार बच्ची के मन के डरावने खंडहरों में पैठ करता है। मित्रों मरजानी, एक नितांत बिंदास अर्धशहरी औरत की आंखों से देखा गया भारतीय समाज का पाखंड और अतृप्त कामनायें हमारे सामने ला खड़ा करता है। मित्रों पहले खड़ी-खड़ी देखती रही फिर देवर को आंख मार हाथ से ताली बजा दी। मान गई फूलांरानी, मान गई। गुलजारी तेरी इस बन्नो को न धड़की है, न कोई दर्द न कमजोरी। ..तुम मिट्टी के माधो बने रहे तो एक दिन तुम्हारी अकल बुद्धि सब चुरा ले जाएगी ये चोट्टी।
ज़िंदगीनामा और ऐ लड़की जैसे उपन्यास भी सिर्फ सोबती ही लिख सकती थीं। पहला भारत के इतिहास का जीवंत दस्तावेज़ है, दूसरा अपनी मर रही बूढ़ी मां और उसके अर्धविक्षिप्त मनसंसार के आईने में जीवन और मृत्यु को नये सिरे से पहचान रही बेटी की गाथा। इस सबके अलावा लंबे समय तक सोबती ‘हम हशमत’ नाम का बहुत लोकप्रिय कालम भी जनसत्ता के लिए लिखती रहीं। उनकी जिजीविषा और परिहास रसिकता अद्भुत थीं, और बीमारी के बीच भी चारों तरफ घट रहे देश के जीवन से उनका एक बेहद अंतरंग नाता बना रहा। हस्पताल से भी मौजूदा राजनेताओं और बंटवारे की तरफ लगातार देश को खींचती दक्षिणपंथी प्रतिगामी राजनीति पर उन्होंने जम कर निडर और कठोर प्रहार किये।
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हममें से जिन सौभाग्यशालियों को उनका सहज स्नेह सौजन्य भर झोली मिलता रहा, आज किसी कदर रिक्त अनाथ महसूस कर रहे हैं। आज के तमाम कपटी फकीरों के बीच वे हिंदी की उस असली अवधूती परंपरा का लगभग अंतिम वटवृक्ष थीं, जो हिकारत से आडंबर को तार-तार करते हुए कालजयी कृतियों से इस दुनिया को कुछ और सुंदर, कुछ और समझदार और ममत्वभरा बनाता था। अलविदा अवधूती सोबती, ‘सौ सौ पद्मा, चौंसठ पांखुड़ी, जा चढ़ि नाचति बुद्धि बापुड़ी’| सौ सौ पद्म पुष्पों की चौंसठ पंखुड़ियों पर अद्भुत् नृत्य कर हमको आनंद से भरने वाली बुद्धि की स्वामिनी को हम साहित्य प्रेमियों का साश्रु अंतिम प्रणाम !
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