कृष्णा सोबती महज शब्द शिल्पी नहीं बल्कि फासीवाद, असहिष्णुता, फिरकापरस्ती और असमानता के खिलाफ खड़ा सशक्त हस्ताक्षर थींं। आज उग्र राष्ट्रवाद के औजारों के जरिए जिस तरह दमनकारी ढंग-तरीकों से देश का नक्शा बदलने की साजिशें और कोशिशें बड़े पैमाने पर हो रही हैं, इसे उन्होंने 2014 में बखूबी भांंप लिया था। खुद खबरदार कृष्णाजी ने अवाम को दक्षिणपंथी सत्ता के कुचक्रिय समीकरण समझाने-बताने शुरु कर दिए थे। अपने अंतिम समय में रचनात्मक लेखन को एकबारगी दरकिनार करके वह वैचारिक लेखन को पूरी तरह समर्पित हो गईंं थींं। आखरी सांस तक उनकी चिंता थी कि इस माहौल में भारत का नागरिक समाज कैसे बचेगा और उसे कैसे बचाया जा सकता है।
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अंधराष्ट्रवाद के पैरोकार तमाम शक्तियां लगाकर उसे जबरन अंधी सुरंग में धकेल रहे हैं। 'जनसत्ता' में तब अक्सर पहले पन्ने पर प्रकाशित होते उनके आलेख इसकी गवाही देते हैं कि मरते लोकतंत्र की उन्हें कितनी बेचैनी थी और जो ताकतेंं लोकतंत्र की हत्या के लिए निकल पड़ी हैंं, उनके खिलाफ लड़ने का कितना गहरा जज्बा ढलती उम्र में भी उनमें था। अपनी जीवन संध्या में वह साफ देख रही थींं कि दिल्ली में काबिज निरंकुश सत्ता देश के एक से दूसरे कोने तक ऐसा तानाबाना बुन रही है कि अमन, सद्भाव और समरसता की बुनियादी नींंव पूरी तरह हिल जाए और भारतीय समाज को अफरा-तफरी के ऐसे जोरदार झटके लगेंं कि वह अंतत: उसके आगे समर्पण कर दे।
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2014 से लेकर अपने जिस्मानी अंत, 2019 तक कृष्णाजी ने इन खतरोंं की बाबत जिस निर्भीकता, अतिरिक्त साहस और सच्चाई के साथ लिखित-मौखिक कहा-बोला, वह बेमिसाल है। हिंदी संसार का इतिहास उन्हें उनके साहित्यिक अवदान के लिए ही नहीं, इसके लिए भी याद रखेगा। इसके लिए भी कि उन्होंने 'लेखक होने का धर्म' अपने अंतिम समय में कितनी आस्था और शिद्दत से निभाया। जुल्मत के इस दौर में उनकी वह सक्रियता अति उल्लेखनीय है। असहिष्णुता के विरुद्ध लड़ाई के लिए वह तब निकलींं, जब उसकी जरुरत थी लेकिन तब उनके ज्यादातर समकालीन अपने-अपने घरों में आराम कुर्सियों पर बैठे विपरीत समय को बगल से गुजरते देख रहे थे अथवा महज कागज काले कर रहे थे।
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मौजूदा सत्तातंत्र के खिलाफ हिंदी साहित्य समुदाय से पहली बड़ी बुलंद आवाज कृष्णा सोबती की थी। 2015 में असहिष्णुता पर प्रहार करते हुए कतिपय भारतीय लेखकों ने लोकतांत्रिक अभियान चलाया तो कृष्णाजी ने आगे आकर उसकी अगुवाई की। उन्होंने भारतीय साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता प्रतिरोध के तौर पर त्याग दी। साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता अपने आप में सर्वोच्च सम्मान का दर्जा रखती है। इससे पहले किसी कलमकार ने ऐसा कदम नहीं उठाया था। ना बाद में उठाया। लेखकों द्वारा उसका वापसी का ऐतिहासिक सिलसिला भी उनकी प्रेरणा से और नेतृत्व में शुरू हुआ। इसे 'अवॉर्ड वापसी गिरोह' का नाम देकर लांंछित किया गया और आज तक किया जा रहा है। लेकिन प्रतिरोध की आवाज और लोकतंत्र की पक्षधर महान लेखिका ने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की।
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कृष्णा सोबती देह की शिथिलता के बावजूद जनविरोधी सत्तासीन ताकतों के काफिले के आगे मशाल थामे बेखौफ चलती रहींं। बेशक पहले-पहल साथ देने वाले मुट्ठी भर ही थे। रफ्ता-रफ्ता कारवां बढ़ता गया। जब भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय शासन के तहत लोकतांत्रिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और अन्य सामाजिक संस्थाओं को खोखला करने की कवायद उफान पर आने लगी तो दिल्ली में 'प्रतिरोध' नाम से एक महत्वपूर्ण सेमिनार आयोजित किया गया। कृष्णा सोबती ने गंभीर बीमारी की हालत में उसकी अध्यक्षता की और सभागार में वह वहील चेयर पर बैठकर आईंं। ऐसा जोशीला और तार्किक लंबा वक्तव्य दिया कि सेमिनार में मौजूद लोग खड़े होकर समर्थन में देर तक तालियां बजाते रहे। यह एक लेखक की निर्भीकता और साहस का ऐसा सम्मान था, जो विरलों को मिलता है और कृष्णा जी यकीनन उसकी सच्ची हकदार थींं।
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बीजेपी शासन आने के बाद उर्दू लेखकों को मानव संसाधन मंत्रालय और ग्रह मंत्रालय की ओर से हिदायत दी गई कि उर्दू साहित्य को सरकारी सहायता देने और खरीद के लिए सबमिट की जाने वाली पांडु लिपियां, पुस्तकें, पत्रिकाएं हर अर्जी के साथ दो विशिष्ट नागरिकों का प्रमाण-पत्र भी संलग्न करें कि प्रकाशित, अप्रकाशित पांडुलिपियों में सरकार अथवा देश के विरुद्ध कुछ नहीं है। साथ ही सरकारी संस्थानों के विरुद्ध भी कुछ नहीं। भारत के विभिन्न वर्गों को लेकर कोई झगड़े-झमेलों की मुख़ालफ़त भी नहीं। अगर सामग्री में कुछ भी ऐसा पाया गया तो कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
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कृष्णा सोबती ने इस तुगलकी फरमान का यह कहकर तीखा विरोध किया कि साहित्य का मुख्य स्वर विरोध भी है। लेखक अपने नागरिक समाज की विस्तृत सीमाओं की क्रूरता, निर्धनता, सामाजिक परिवर्तन और लोकतांत्रिक मूल्यों को तरेरनेवाली हिंसक कोशिशों और प्रयोगों पर भी आंख रखते हैं। इतना कहकर वह बहुत कुछ कह जाती हैंं। षड्यंत्रों का एहसास उन्हें बहुत सूक्ष्मता और सहजता से होता था! शायद यह सब विभाजन की पीड़ा और बेघरबारी की विडंबना से जन्मा हो जिसकी गहरी परछाइयां उनकी ज्यादातर रचनाओं में भी खूब मिलती हैंं। आज जब इस दौर में उनके हस्तक्षेपकारी जुझारू व्यक्तित्व की सबसे ज्यादा दरकार है तो हमारे बीच जिस्मानी तौर पर नहीं हैंं लेकिन उनके शब्दों का 'आलोक' है जो सदैव रोशनी दिखाता रहेगा और 'जिंदगीनामे' बेहतर बनेंं बल्कि ज्यादा मानवीय बनें इसकी सही राह बताता रहेगा।
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