विचार

खरी-खरी: रुपया ऊपर, अर्थव्यवस्था गर्त में, तैयार हो जाइए मंदी और महंगाई झेलने के लिए

कमर कस लीजिए कमरतोड़ महंगाई की एक और लहर को झेलने के लिए! जी हां, पहली लहर तो नोटबंदी की मार से आरंभ हुई। कोविड महामारी और उसके कारण लंबे लॉकडाउन ने दूसरी लहर छेड़ दी।

फोटो: IANS
फोटो: IANS 

कमर कस लीजिए कमरतोड़ महंगाई की एक और लहर को झेलने के लिए! जी हां, पहली लहर तो नोटबंदी की मार से आरंभ हुई। कोविड महामारी और उसके कारण लंबे लॉकडाउन ने दूसरी लहर छेड़ दी। फिर, इस वर्ष फरवरी में यूक्रेन युद्ध ने पेट्रोल के दामों में जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आग लगाई, उसके कारण भारत में मुद्रास्फीति ने आम आदमी को मार डाला। अब यह खबर कि डॉलर के दाम अस्सी रुपये की सीमा छू गए, तो बस गजब ही है।

यदि बाजार में इस समय एक डॉलर खरीदना हो, तो आपको भारतीय अस्सी रुपये खर्च करने होंगे। अब जरा सोचिए कि इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा। सबसे पहले हम जो प्रति माह हजारों करोड़ डॉलर तेल की खरीददारी में खर्च करते हैं, उसके लिए अब शायद लाखों करोड़ का खर्च बढ़ जाएगा। जाहिर है कि सरकार यह खर्च अपनी जेब से चुकाएगी नहीं। अर्थात पेट्रोल के दाम अब एक बार और तेजी से बढ़ेंगे। पेट्रोल एवं डीजल के दाम बढ़े, तो आटा, दाल, चावल, सब्जी से लेकर कपड़ा, दवा, सीमेंट, स्टील और कौन-सी चीज है जिसके दाम और नहीं बढ़ जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि मुद्रास्फीति दर जल्द ही 20 प्रतिशत तक पहुंच सकती है।

हर चीज के दामों में आग लगने वाली है। ऐसी आग जो सबको झुलसा देगी। यह तो रहा डॉलर के दाम में बढ़ोत्तरी का प्रमाण। फिर सरकार ने स्वयं इस आग में तेल झोंक दिया है। समझ ही गए होंगे कि रोजमर्रा की दूध-दही जैसी हर समय के इस्तेमाल की चीजों पर सरकार ने जो इस माह जीएसटी लगाया है, उसके बाद छोटी-छोटी चीजों के दाम भी बढ़ जाएंगे। यह तो रहा मुद्रास्फीति और रोजमर्रा की चीजों की आसमान छूती महंगाई का मामला। उससे बड़ी समस्या यह है कि सारी दुनिया और स्वयं भारतीय बाजार में यह भय उत्पन्न हो गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था डूब रही है और इसके संभलने की जल्द कोई संभावना नहीं है।

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इसका पहला प्रमाण यह है कि भारतीय बाजार में विदेशी जो माल लगाते हैं, वह तेजी से अपना पैसा वापस खीींच रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, हाल में भारतीय बाजार से 30 बिलियन डॉलर मुद्रा विदेशियों ने खीींच ली। अब जब डॉलर के दाम आसमान छू रहे हैं और महंगाई बढ़ रही है, तो मंदी, जाहिर है कि, बढ़ रही है। बढ़ती मंदी में विदेशी निवेशक अपना पैसा क्यों लगाएगा, अर्थात महंगाई के साथ-साथ देसी कारोबार और कारखानों में भी मंदी फैलेगी। स्पष्ट है कि कई धंधे बंद होंगे, तो कई कारखानोों में कटनी-छंटनी आरंभ होगी।

अब आप समझे, केवल डॉलर के दाम ही नहीं बढ़े हैं बल्कि हम और आप जैसों की नौकरी भी खतरे में आ गई है। एक तो वैसे ही बेरोजगारों की फौज देश में घूम रही है। यह कमबख्त डॉलर के बढ़ते दाम न जाने कितने और भारतीयों के रोजगार खा जाए, अभी यह कह पाना कठिन है। यह तो कौन नहीं जानता कि जब अर्थव्यवस्था बिगड़ती है, तो देश की राजनीति भी बिगड़ती है। अब देख ही रहे हैं कि पड़ोसी श्रीलंका में क्या हो रहा है। पहले अर्थव्यवस्था डूबी, फिर देश डूबा और अंततः राजपक्षे परिवार डूबा।

मैं यह हरगिज नहीं कह रहा कि नरेन्द्र मोदी सरकार को कोई समस्या है। सत्य तो यह है कि जितनी अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है, उतनी हालत विपक्ष की नाजुक हो रही है। अभी देखिए, राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की क्या हालत हुई। स्पष्ट है कि मोदी सरकार को विपक्ष से कोई खतरा नहीं है। खतरा है तो सड़कों से। अरे भाई, अभी अग्निपथ स्कीम पर कैसे सड़क प्रदर्शनों से भड़क उठी। ऐसी स्थिति पुनः कब, कैसे और कहां उत्पन्न हो जाए, कहना मुश्किल है।

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ऐसा नहीं है कि भाजपा को यह बात समझ में नहीं आ रही होगी। स्वयं प्रधानमंत्री देश के राजनीतिक उतार-चढ़ाव से जैसा वाकिफ रहते हैं, ऐसा दूसरा कोई और नेता अवगत नहीं रहता। जब हम और आप को यह दिखाई पड़ रहा है कि अर्थव्यवस्था भंवर में है, तो फिर प्रधानमंत्री भी समझ ही रहे होोंगे। तो फिर वह ऐसी समस्या से निपटने का कोई प्लान भी रखते ही होंगे। भला यह प्लान क्या हो सकता है। प्रधानमंत्री स्वयं एवं उनकी पार्टी हर समस्या से निपटने का केवल एक ही प्लान जानती है और वह है हिन्दुत्व राजनीति, अर्थात 80 बनाम 20 की राजनीति। देश में हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की अफीम तेज करो और हिन्दू वोट बैंक संगठित रखो। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था जितनी बिगड़ेगी, हिन्दुत्व राजनीति और तेज होगी। और नफरत की राजनीति जितनी तेज होगी, देश उतनी ही तेजी से भंवर में फंसता जाएगा।

इन तमाम बातों का सारांश यह कि भारत प्रगति एवं उन्नति के रास्ते से भटक चुका है। हम अब दुनिया की एक और डूबती अर्थव्यवस्था हैं जो ऊपर नहीं, नीचे की ओर ही जा रही है। इस बात का अहसास एक तबके को जरूर हो चुका है। तब ही तो बीते कुछ वर्षों में करीब 4 लाख भारतीय अपनी नागरिकता छोड़कर विदेश जा बसे और यह सभी पैसे वाले थे। यह एक दुखद सिग्नल है जिसकी कहीं चर्चा भी नहीं है।

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बैंकों के राष्ट्रीयकरण का युग समाप्त

लीजिए, बैंकों के राष्ट्रीयकरण को इस माह 53 वर्ष बीत गए। आज की जवान पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कैसे और कब हुआ। दरअसल, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ इस देश की राजनीति ने एक ऐतिहासिक मोड़ भी लिया था। यह बात है जुलाई, 1969 की। उस समय हम भी स्कूल ही में थे। लेकिन जब इंदिरा गांधी सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, तो मानो सारे देश में एक लहर दौड़ गई। वह कांग्रेस का एक नया दौर था। पार्टी दो गुटों में बंटी थी। बुजुर्ग कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी का विरोध कर रहे थे। इंदिरा गांधी ने पार्टी तोड़ दी और देश को काफी हद तक वामपंथी मोड़ पर डाल दिया। पहले राजे-रजवाड़ों को सरकार से जो सालाना मुआवजा मिलता था, वह बंद किया, फिर जल्दी ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। जनता में बस इंदिरा लहर दौड़ गई क्योंकि इंदिरा गांधी ने देश की सबसे सशक्त दो लॉबी राजे-रजवाड़ और उधर बैंकों के पूंजीपति मालिकों से टक्कर ली और दोनों को पछाड़ दिया। देश की जनता को पहली बार यह लगा कि अब देश में उसका ही राज है।

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सत्य तो यह भी है कि इन दोनों चालों से इंदिरा गांधी ने पहली बार देश में सामंती ताकतों से टक्कर ली। बैंक राष्ट्रीयकरण कर बैंकों का पैसा पहली बार गांव-देहात के विकास में लगना शुरू हुआ। इतना ही नहीं, बड़े-बड़े बैंकों की शाखाएं देहातों में खुल गईं। इस प्रकार बैंकों में जमा पूंजी पर आम आदमी की हिस्सेदारी हो गई। देहातों में जो सामंती ताकतें हजारों साल से जमी थीं, वह उखड़ गईं। इस प्रकार सन 1969 के बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहली बार सही मायनों में सामंतवाद का अंत आरंभ हुआ और देहातों की गरीब जनता को लोकतंत्र का आर्थिक लाभ मिलना शुरू हुआ।

उससे पूर्व देश की अर्थव्यवस्था पर सामंतों एवं पूंजीपतियों का कब्जा था। सन 1969 से लेकर 1979 तक देश इंदिरा जी के नेतृत्व में काफी हद तक वामपंथी राजनीति की राह पर चला। गरीब और आम आदमी को लोकतंत्र का आर्थिक फल भी मिलना शुरू हुआ। हालांकि बैंक राष्ट्रीयकरण के समय इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में थी। लेकिन उसको बाहर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का समर्थन था। इस कारण सत्ता कांग्रेस के हाथों से निकली नहीं।

इतना ही नहीं उस समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। एक ओर पूंजीवादी अमेरिका के नेतृत्व वाला खेमा था। दूसरी ओर सोवियत यूनियन के नेतृत्व में वामपंथी खेमा था। दुनिया में शीतयुद्ध चल रहा था। ऐसे समय में इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके एक वर्ष बाद सोवियत यूनियन के साथ मैत्री संधि कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका विरोधी राजनीति का साथ चुन लिया। भारत को इस मैत्री संधि से बड़ा लाभ हुआ।

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सन 1971 में भारत की पाकिस्तान के साथ जो जंग हुई, उसमें सोवियत यूनियन की संधि के कारण बांग्लादेश के निर्माण में अमेरिका सीधा भारत के विरोध का कोई भी कदम नहीं उठा सका। हां, अमेरिका का समुद्री बेड़ा भारतीय क्षेत्र के करीब जरूर आ गया। लेकिन उसने भी बांग्लादेश युद्ध के समय कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इस प्रकार 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट गया और बांग्लादेश का गठन हुआ।

भारत की वाम झुकाव की यह राजनीति सन 1969 के बैंक राष्ट्रीयकरण से आरंभ होकर सन 1974 तक चलती रही। लेकिन सन 1974 में जेपी आंदोलन छिड़ गया और फिर 1975 में देश में इमरजेंसी लागू हो गई। अब कुछ लोगों का यह कहना है कि जेपी आंदोलन एक अंतरराष्ट्रीय साजिश थी जिसको इंदिरा के विरुद्ध देश के भीतर दक्षिणपंथी लॉबी और अमेरिका का भी समर्थन था।

आज बैंकों के राष्ट्रीयकरण को जब 53 वर्ष बीत चुके हैं, तो भारतीय सरकार धीरे-धीरे पुनः निजीकरण कर रही है। बात सीधी है कि इस समय भाजपा के नेतृत्व में दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता पर काबिज हैं। आज बड़े-बड़े तीन-चार पूंजीपतियों का राज है। कांग्रेस पार्टी ने देश के लिए जो बड़ी संपत्ति वाले संस्थान बनाए थे, आज की सरकार वे सारे संस्थान अब कौड़ियों के दाम पूंजीपतियों के हाथोों बेच रही है- वह चाहे एलआईसी हो या एयरपोर्ट या बंदरगाह। हर चीज बेच रही है। तभी तो अडानी और अंबानी हजारों करोड़ के मालिक बन जाते हैं और देश की जनता को दूध-दही जैसी सामग्री तक पर जीएसटी देनी पड़ रही है।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने जो युग आरंभ किया था, वह युग समाप्त हो चुका है। अब सत्ता पर से जनता की भागीदारी नाममात्र को है और उधर अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद का डंका बज रहा है। तभी तो हम आए दिन बढ़ती महंगाई की मार झेल रहे हैं और अडानी-अंबानी मजे कर रहे हैं।

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