बौने निकले अरविंद केजरीवाल। याद है वह केजरीवाल जो अन्ना के प्लैटफॉर्म पर खड़े होकर झंडा लहराते थे और रामलीला मैदान की भीड़ के मन को छू लेते थे। छोटा कद, गले में मफलर लेकिन आवाज में ऐसा क्रोध की हर किसी को चौंका दे। साल 2012 का यह ‘एंग्री यंग मैन’ एक नई आशा लेकर उभरा था। साल 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव आते-आते केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) भारत के राजनीतिक क्षितिज पर एक नई आशा लेकर उभरी। दिल्ली ही नहीं देश के कोने-कोने में मध्यवर्ग तो केजरीवाल पर फिदा हो गया। मध्यवर्ग को यह प्रतीत होने लगा कि दिल्ली का यह नेता अब देश से भ्रष्टाचार दूर करके एक नई साफ-सुथरी राजनीति आरंभ करेगा।
तब ही तो आईआईटी से पढ़े इस इंजीनियर पर दिल्ली ऐसी फिदा हुई कि 2015 के विधानसभा चुनाव में वह नरेंद्र मोदी को भी भूल गई। और आम आदमी पार्टी ऐसे भारी बहुमत से दिल्ली विधानसभा चुनाव में उभरी कि बीजेपी और कांग्रेस- दोनों ही दल यहां धराशायी हो गए। और तो और, अभी 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल ने फिर से बीजेपी और कांग्रेस- दोनों को ही धराशायी कर दिया।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
परंतु 2012 के केजरीवाल तो एक छलावा थे। वह देश को स्वच्छ राजनीति देने नहीं अपितु सत्ता की लालसा में अन्ना हजारे के कांधे पर सवार होकर नौटंकी कर रहे थे। अंततः केजरीवाल भी उतने ही सत्ता के लालची राजनीतिज्ञ निकले जैसे बाकी सब हैं। वही वोट बैंक की राजनीति, वही राजनीति के पुराने हथकंडे और वैसे ही खोखले वादों और छलावों से चुनाव में जनता का वोट बटोरना और फिर सारे आदर्शों पर खाक डाल, ऐसे ही सत्ता से चिपके रहना जैसा कि इस देश की राजनीति में प्रायः अधिकांश सत्ताधारी नेता करते हैं।
हम तो केजरीवाल से 2012 ही में खटक गए थे। हमने इस प्रकार की राजनीति और छवि वाले एक और नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह को 1986-89 के बीच बहुत करीब से देखा था। वीपी सिंह भी देश की राजनीति से भ्रष्टाचार दूर करने के नाम पर एक मसीहा के तौर पर उभरे थे, लेकिन अंततः वोट बैंक की तलाश में केवल ‘मंडल मसीहा’ बनकर सिकुड़ गए। पर वीपी सिंह का सही स्वरूप जल्द ही देश के सामने आ गया था।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
केजरीवाल तो अपने गुरु वीपी सिंह से भी निपुण निकले। कम से कम पांच वर्षों तक साफ सुथरी छवि लिए चमकते रहे और चुपचाप वोट बैंक की राजनीति करते रहे। कभी बिजली-पानी के नाम पर गरीबों का वोट बैंक तैयार करना, तो कभी चुनाव से कुछ दिन पहले महिलाओं को दिल्ली की बसों में ‘फ्री राइड’ देकर एक नया वोट बैंक तैयार करना। ऐसे ही मोदी के विरूद्ध खोखला विरोध कर दिल्ली के पढ़े-लिखे लिबरल वर्ग का मन मोहना। हद यह है कि मोदी की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध कर केजरीवाल ने तो दिल्ली के वामपंथी मतदाताओं का मन भी मोह लिया था।
पर छलावा तो छलावा ही होता है। अंततः उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों ने केजरीवाल की राजनीतिक नौटंकी से पर्दा उठा ही दिया। और इस पर्दे के पीछे से केजरीवाल का जो व्यक्तित्व उभरा उसका न तो कोई आदर्श था और न ही कोई आदर्शवादी राजनीति कहने का मोह। तब ही तो ये केजरीवाल भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे की 2012 की राजनीति तो पहले ही भूल चुके थे। तब ही तो पिछले पांच वर्षों में दिल्ली सरकार ने भ्रष्टाचार विरोधी कोई बड़ा कदम नहीं उठाया।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
यह तो जाने दीजिए। सत्ता की लालसा में केजरीवाल अपने गुरु अन्ना हजारे को भी ऐसे भूले कि उनका नाम तक कभी उनकी जुबान से नहीं निकला। और फिर अभी दिल्ली दंगों के बीच जो केजरीवाल उभरे उनकी वैचारिक सहानुभूति संघ के साथ निकली। और तो और, दिल्ली दंगों में तो केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह से हाथ ही मिला लिया। दिल्ली का वह अल्पसंख्यक समुदाय जिसने झोली भरकर ‘आप’ को वोट दिया था, मानो वह तो केजरीवाल के लिए अर्थहीन हो गया।
तब ही तो, उत्तर-पूर्वी दिल्ली जलती रही, बल्कि जलाई जाती रही और केजरीवाल सहित पूरी दिल्ली सरकार आंख बंद किए देखती रही। केवल इतना ही नहीं जब दिल्ली में दंगें चरम सीमा पर थे तो ठीक उसी दौरान माननीय केजरीवाल जी अमित शाह और मोदी जी से मिलकर उनसे अपनी पीठ थपथपवा रहे थे और उनको आश्वासन दे रहे थे कि वह मोदी और शाह के सहयोग से अगले पांच वर्ष तक दिल्ली सरकार चलाएंगे।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
यह एक नए केजरीवाल हैं जिन्होंने दिल्ली ही नहीं देश भर में अपने समर्थकों को आश्चर्यचकित कर दिया है। यह केजरीवाल तो बौने निकले, उनकी राजनीति का कद भी छोटा ही है। आम आदमी पार्टी को वोट देने वाले बहुत सारे लोग अब आश्चर्य के साथ केजरीवाल की राजनीतिक पलटी पर टिप्पणी कर रहे हैं। परंतु हमारे जैसों के लिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। क्योंकि पत्रकारिता के अपने लगभग चार दशकों के दौर के दौरान हम वीपी सिंह का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन परख कर समझ चुके थे कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन दरअसल एक छलावा होता है और इससे जुड़े पात्रों का टारगेट असल में अपने विरोधी दल को बदनाम कर सत्ता पर अपना कब्जा जमाना होता है।
साथ ही इस राजनीति को चलाने वालों का झुकाव प्रायः दक्षिणपंथी राजनीति की ओर ही होता है। और इनके तार अंततः संघ से मिलते हैं। केजरीवाल भी दरअसल ऐसे ही भ्रष्टाचार विरोधी कबीले के नेता हैं। वैचारिक तौर पर उनका झुकाव भी दक्षिणपंथी और स्रोत संघ की ओर है। वह हनुमान चालीसा का पाठ टीवी पर केवल वोट बटोरने के लिए नहीं करते हैं, अपितु मोदी और शाह के समान अब वह खुलकर हिंदुत्ववादी राजनीति करने को तैयार हैं।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
दिल्ली दंगों के दौरान उनकी भूमिका एक बड़ी सोची समझी रणनीतिक भूमिका थी। उनको भलीभांति यह ज्ञान है कि इस राजनीति से उनका अल्पसंख्यक वोट बैंक और लिबरल तथा वामपंथी समर्थक उनसे छटक जाएंगे। परंतु इस प्रकार मोदी और शाह के समान दिल्ली हिंदू वोट बैंक के संकटमोचक बनकर वह अगला चुनाव फिर जीत लेंगे। निःसंदेह इस राजनीति के लिए उन्होंने नरेंद्र मोदी से डील भी की होगी। इस डील में क्या लेन-देन हुआ, ये अलग सवाल है।
लेकिन केजरीवाल अब अपनी राष्ट्रव्यापी राजनीति करने की महत्वाकांक्षा फिलहाल समेटकर दिल्ली तक ही सीमित रहेंगे। इसके लिए वह विपक्ष के किसी मोदी विरोधी मोर्चे का अंग नहीं बनेंगे। यह उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में किसी विपक्षी नेता को न बुलाकर स्पष्ट कर दिया था। इसके बदले में मोदी सरकार जमकर दिल्ली सरकार को फंड देगी ताकि केजरीवाल अपनी ‘गरीब समर्थक’ छवि बनाए रखें, बिजली-पानी और मोहल्ला क्लीनिक तथा सरकारी स्कूल सुधार जैसी नौंटकी जारी रख सकें। और इस प्रकार दिल्ली में केजरीवाल की नौंटकी चलती रहे।
लेकिन नौटंकी तो नौटंकी होती है। हर नौटंकी से कभी न कभी पर्दा तो उठता ही है। दिल्ली दंगों ने यह तो स्थापित कर ही दिया है कि केजरीवाल एक आदर्शहीन दक्षिणपंथी नेता हैं, जिसके सिरे संघ और मोदी से मिले हैं। देखिए इसी प्रकार बिजली, पानी, मोहल्ला क्लीनिक और स्कूल सुधार के नाम पर की जा रही ‘गरीब राजनीति’ की पोलपट्टी भी खुल ही जाएगी। और फिर जो केजरीवाल उभरेंगे वह एक आदर्शविहीन बौने केजरीवाल होंगे, जो शायद सत्ता से भी महरूम रह जाएं।
Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST
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Published: 05 Mar 2020, 8:01 PM IST