आजकल मैं ‘टेन सीक्रेट्स ऑफ लिविंग टु बी ए हन्ड्रेड’ और ‘सेवन थिंग्स यू मस्ट डू बिफोर यू डाई’ जैसी किताबें पढ़ रहा हूं। हालांकि, एक समय था जब मैं बड़ी रोमांचक किस्म की किताबें पढ़ा करता था, लेकिन अब उनमें से ज्यादा की बातें विस्मृति के कोहरे में धुंधला-सी गई हैं। लेकिन उनमें से एक किताब का एक प्रसंग मुझे आज भी अच्छी तरह याद है जिसमें एक महिला अपने प्रेमी से कहती है- ‘आप किसी महिला ‘से’ प्यार नहीं करते, बल्कि आपको उस ‘पर’ प्यार आता है (यू डोण्ट मेक लव ‘टु’ अ वुमन, यू मेक लव ‘ऐट’ हर)’। भ्रमित न हों, सारा माजरा इन पूर्वसर्गों (प्रेपोजीशन) के इस्तेमाल से आशय में आने वाले बदलाव का है। वैसे ही, जैसे कहते हैं कि ‘नुक़्ते के फेर से ख़ुदा जुदा हो जाता है’।
आइए, इसपर गौर करें। ‘से’ का मतलब है आपस में बातचीत, स्नेह, चिंता, अनुभव को साझा करना। यानी जब आप किसी ‘से’ प्यार करते हैं तो सामने वाले की अहमियत को स्वीकार करते हैं, उसका खयाल रखते हैं। दूसरी ओर, अगर आपको किसी ‘पर’ प्यार आता है तो यह एकतरफा संचार और एहसास को दिखाता है और इसमें सामने वाले के लिए चिंता का भाव नहीं होता। आपके मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि आखिर इस समय इस ‘पांडित्य भरे भाषण’ का मतलब?
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मतलब है और बहुत गहरा मतलब है।
क्योंकि जब भी मैं अपने आदरणीय प्रधानमंत्री को सुनता हूं- चाहे वह पूर्वनियोजित सार्वजनिक रैली में बोल रहे हों या फिर ‘मन की बात’ जैसे पूर्णत: नियंत्रित माहौल में या फिर उन्हें देवता और पहुंचे हुए संत की तरह पेश करने वाले टीवी और उसके पोर्टल के जरिये, तो उनकी बातों का मूल क्या होता है? यही कि वह क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं, क्या चाहते हैं, वह क्या मानते हैं जो राष्ट्र के लिए अच्छा है, वगैरह-वगैरह। उनके उपदेशों में इस बात का कतई कोई जिक्र नहीं होता कि जनता- यानी आप और मैं- क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं, क्या चाहते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि उनके लिए हमारा अस्तित्व ही नहीं है। जनता से कथित संपर्क का उनका माध्यम तो बस लाइट, कैमरा और टेली-प्रॉम्प्टर (बेशक ये काम करें) हैं।
अब बात कुछ दिन पहले की। तब कर्नाटक के नतीजे नहीं आए थे और बीजेपी के बड़े-बड़े दावे जमीन नहीं सूंघे थे। प्रचार का दौर था। एक रैली में प्रधानमंत्री ने इस बात का रोना रोया कि उन्हें दूसरी पार्टियों ने 91 बार गाली दी। गौर कीजिए, वो पूरी गिनती बताते हैं। लेकिन इस एक वाक्य से मुझे उन तमाम सवालों के जवाब मिल गए जिन्होंने मुझे सोते-जागते उलझा रखा था।
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पता चल गया कि आखिर क्या वजह है कि सरकार के पास कोई जानकारी नहीं कि कोविड से कितने लोगों की मौत हुई, लॉकडाउन के दौरान शहरों से पलायन के दौरान कितने लोगों की जान गई, कृषि कानूनों के खिलाफ धरने दे रहे कितने किसानों की मौत हो गई, लद्दाख में कितनी जमीन पर चीनियों का कब्जा है, चुनावी बॉन्ड और पीएम केयर्स में योगदान करने वालों का कोई डेटा क्यों नहीं है, नोटबंदी और जीएसटी के बाद कितने एमएसएमई को बंद करना पड़ा वगैरह- वगैरह।
जब तक प्रधान मंत्री ने बेंगलुरू में ‘जुटाई गई भीड़’ को संबोधित नहीं किया था, मैं यही सोचा करता था कि सरकार यह सब छिपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन अब तो मेरी आंखें खुल गईं हैं।
असल वजह यह है कि पूरा पीएमओ पीएम को गालियां देने के आंकड़े जुटाने में लगा हुआ था। और यह आसान काम नहीं है। उन्हें प्रिंट से लेकर डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक रैलियों, न्यूयॉर्क टाइम्स से लेकर वाशिंगटन पोस्ट और फिर कुणाल कामरा से लेकर सत्य पाल मलिक द्वारा दी गई हर गाली पर नजर रखनी पड़ी होगी।
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फिर किसी को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी, शहजाद पूनावाला और संबित पात्रा (दोनों संवाद की ऐसी शैली में माहिर हैं) से परामर्श करना पड़ा होगा ताकि गाली की गंभीरता को मापा किया जा सके। उक्त दुर्व्यवहार की शुरुआत किसने की, इसकी छानबीन की गई होगी और फिर उसके पीछे आयकर या ईडी के लोगों को छोड़ा गया होगा ताकि इस तरह की बात जिसने की, वह ऐसा करने को अपनी आदत न बना ले। और फिर प्रधानमंत्री की अगली रैली के लिए टेली-प्रॉम्प्टर को सही ढंग से इनपुट देना पड़ा होगा। उफ्, इतना सारा काम!
यह वाकई एक बड़ा ऑपरेशन है और इसलिए पीएमओ में इस अहम काम पर खास तौर पर एक कार्य समूह या फिर एक संयुक्त सचिव को लगाया गया होगा। अगर कार्य समूह बनाया गया होगा तो सरकार में मेरा लंबा अनुभव यही कहता है कि इसका नाम शायद ‘एब्यूजर्स (हार्ड) वर्किंग ग्रुप’ होगा।
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ऐसे ‘अभिनव’ संगठनों का नाम लेना आसान नहीं जैसा हमने 1980 के दशक में शिमला में पाया। तब बंदरों (ये किसी खास संगठन से जुड़े नहीं बल्कि असली रीसस प्रजाति के बंदर थे) ने व्यावहारिक रूप से हिमाचल सरकार के सचिवालय पर कब्जा कर लिया था। वे सचिवालय में कहीं भी जाने को पूरी तरह आजाद थे, सभी सचिवों ने मिलकर जितनी फाइलें निपटाई होंगी, उनसे ज्यादा फाइलें उन्होंने निपटाई थीं, और यहां तक कि उन्होंने कैबिनेट की बैठकों में भाग लेना भी शुरू कर दिया था। बेशक, इन बंदरों के कैबिनेट में भाग लेने की बात महज अटकल है, लेकिन उस समय लिए गए कैबिनेट के कुछ फैसलों पर साफ तौर पर बंदरों की छाप को देखते हुए ऐसा अंदाजा लगाया।
और अंत में, जब बंदरों ने सचिवालय की छत पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया, तो इस मामले की जांच और ऐसे खतरे को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने के उपाय सुझाने के लिए वरिष्ठ सचिवों की एक समिति गठित करने का निर्णय लिया गया। इस समिति को अनुभाग अधिकारी (सामान्य प्रशासन) द्वारा अधिसूचित किया गया था, लेकिन अभी कुछ ही समय पहले मैंने पाया कि इस समिति को ‘कमेटी ऑन मंकीज’ की जगह ‘कमेटी ऑफ मंकीज’ कहा गया था।
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यहां भी वही पूर्वसर्ग यानी प्रेपोजीशन की समस्या जिससे मैंने इस लेख की शुरुआत की थी। बहरहाल, कमेटी के सभी सदस्यों ने इस आशंका में इस्तीफा दे दिया कि कहीं ऐसा न हो जाए कि यह ‘सम्मान’ उनके बायोडाटा में जुड़ जाए और भविष्य में उनकी पदोन्नति के अवसरों पर ही पानी फिर जाए। बेशक, अनुभाग अधिकारी को उनकी ‘मंकी बात’ के लिए निलंबित कर दिया गया।
संभव है कि पीएमओ के पास गालियों पर नजर रखने की कोई समर्पित समिति न हो बल्कि यह काम किसी संयुक्त सचिव को दे दिया गया हो। अगर ऐसा है, तो शायद उनका पदनाम संयुक्त सचिव (गाली) हो। मैं यह सोचकर ही कांप जाता हूं कि वह सचिव करते क्या होंगे।
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं)
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