सावन का महीना है। चंडीगढ़ से यमुनानगर के रास्ते पर दौड़ती कार से धीरे धीरे चलते कांवड़िये दिखलाई पड़ते हैं। उमस भरे दिनों के बाद सुबह से जो बारिश हो रही है, वह अब सम पर आ गई है। उस बारिश में भीगते हुए कांवड़ियों में कोई हड़बड़ी नहीं दीखती। न ईश्वर से कोई शिकायत कि वे निकले हैं भोले बाबा को जल चढ़ाने और उनका ध्यान इंद्र देवता नहीं रखते।
काँवड एक तरह की नहीं। लचकती बहँगी जैसी पुरानी काट की जिसके दोनों ओर जल से भरे कलश या लोटे हर बढ़ते क़दम के साथ झूलते हैं। गोटेदार चमकीले रंगीन कपड़ों से सजी कांवड। दो मंज़िला कांवड या चार मंज़िला भी। मैं अपने हमसफ़र से उनपर पड़ रहे वजन को लेकर सहानुभूति व्यक्त करता हूँ। कोई कांवड़ मंदिर की तरह लगती है तो कोई ताजिए की तरह! बुरा भी क्या है इसमें! लेकिन उन्हें दूर से फिसलती निगाह से देखने पर लगता नहीं कि उन्हें किसी बोझ का अहसास है। “अपनी अपनी श्रद्धा है जी।”, मेरे साथी कहते हैं।
ऐसी कांवड यात्राएँ अभी श्रावण मास में पूरे भारत में चल रही होंगी। सावधान, कांवड यात्रा जारी है, के चेतावनी सूचक पट्ट हर कुछ दूर पर चमक उठते हैं। प्रशासन को चिंता है कि शंकर के भक्तों को उनकी संक्षिप्त तीर्थ यात्रा में कोई विघ्न न हो। इसलिए रोज़ाना इन रास्तों का इस्तेमाल करने वालों को ध्यान दिलाया जाता है कि अभी ये रास्ते पवित्र हैं और इनसे होकर गुज़रनेवाले भी ख़ास हैं, आप ज़रा किनारे हो रहिए।
माना जाता है कि यदि आपने इस पवित्र अभियान में मदद की तो कुछ पुण्य आपको भी मिल जाएगा। इसलिए रास्ते में जगह जगह टेंट लगे दीखते हैं, कुछ उत्साही पानी लिए हुए कांवड़ियों की प्रतीक्षा करते मिल जाते हैं। बारिश के मौसम में झिलमिले शामियाने का अर्थ समझ में नहीं आता।
कांवड़िए एक तरह के नहीं। कुछ तो मंद मंद चलते चले जाते हैं: बाबा का बुलावा है , चले हैं तो पहुँच ही जाएँगे। दूसरे, दौड़ते चले जाते दीखते हैं। इन्हें हमारी ओर डाक बम कहते हैं। इधर वे नहीं नज़र नहीं आते, लेकिन पूरे रास्ते को दण्डवत होकर नापते हुए पार करने वाले यात्री अजूबा आपको भले लगें, भक्ति में परिश्रम उनका अधिक है इसलिए उनके प्रति अन्य जन की श्रद्धा भी उसी अनुपात में अधिक होती है। खड़े हुए, पेट के बल लंबे हुए, फिर खड़े हुए और फिर पेट के बल लंबे हुए! कुछ लुढ़कते हुए शिव तक पहुँचते हैं।
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आख़िर जा किसके पास रहे हैं! जो ख़ुद भांग धतूरे में धुत हों, जिनके संगी साथी ऐसे हों कि बारात में उन्हें देख सास बेहोश हो जाए, अगर उनके भक्त उनके पास जाने के तरीक़े भी विचित्र खोजते हैं तो क्या आश्चर्य! आपको शंकर तक पहुँचने के ये तरीके अगर अजीब लग रहे हों, तो आपको अपनी आस्था की जांच की ज़रूरत है। श्रद्धालु जितना ही कष्ट खुद को देता है, उतना ही पुण्य का भागी होता है।
शंकर को गंगा का जल चढ़ाने की यह प्रथा अब प्रायः भारत के हर हिस्से में फैलती जा रही है। बचपन से सुल्तानगंज की गंगा से जल लेकर कांवड़ियों का देवघर तक जाना सुना है, देखा कभी नहीं। देवघर को बाबाधाम कहते हैं और वहाँ के शंकर की बड़ी महिमा है। सो,देवघर से दूर सीवान में रहते हुए जब देखा कि धीरे धीरे कांवड़ियों की संख्या बढ़ती चली गई तो थोड़ा गर्व ही होता था।
सावन के महीने के पहले तैयारी शुरू हो जाती थी। बाज़ार में धीरे धीरे कांवड़ सजने लगती थी। यात्री अपने जत्थे तैयार करते थे। कौन सुस्ता-सुस्ताकर शिव तक जाएगा, कौन डाक बम होगा, कौन लम्बवत होकर, यह सब तय होता था. अतार्किक लगता था सब कुछ। यह भी कि सावन में हम कभी अपने घर, यानी देवघर गए नहीं। वह रहने, चलने लायक नहीं रह जाता है, यही सुना था अपने घरवालों से। इंच-इंच ज़मीन भर जाती है यात्रियों से। गंदगी का साम्राज्य।
लेकिन देवघर की अर्थव्यवस्था के लिए यह महीना बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा है। जजमानिका और पुरोहिती पर निर्भर पंडा समाज के लिए जितना अधिक उतना वहाँ के व्यापारियों, दुकानदारों और दूसरों के लिए भी।
बचपन से ही सुनते आए कि रास्ते में यात्री उपद्रव करते हैं। क्रमशः यह यात्रा क़ानून व्यवस्था का मुद्दा बन गई। पुलिस का भारी और अलग से बंदोबस्त इस महीने में राज्य के लगभग हर हिस्से में ही करना होगा, यह जैसे मान लिया गया।
मान लिया गया कि कुछ लुच्चे लफंगे तो यात्रा में होंगे ही। लेकिन साधारण यात्रियों में भी जैसे उस वक्त एक अलग शक्ति का संचार होने लगता है। वे स्वयं को शिव का प्रतिनिधि मानकर रास्ते में हर किसी से विशेषाधिकार मांगने लगे। रास्ते पर पूरा उन्हीं का हक होगा, उनके लिए रास्ता छोड़ना होगा, आदि ,आदि।
हर पवित्र यात्रा में कुछ कार्निवाल, जश्न होता ही है। हम कहते हैं, यह अधार्मिक है. लेकिन धर्म में कष्ट, तपस्या जितनी है, आनंद भी कम नहीं। वही धार्मिकता को जीवित भी रखता है।
इसलिए ताम झाम यात्रा का बढ़ने लगा। यात्रियों के साथ ट्रक, लाउडस्पीकर पर भजन। सुना, बम्बइया गानों की पैरोडी शिव भजन के नाम पर चल रही है। उसका भी औचित्य है। शिव को अगर नई पीढ़ी में स्वीकार्य होना है तो उन्हीं की भाषा और भंगिमा में यह होगा न?
अब सोचता हूँ, तो लगता है, इस बात को भी दो पीढ़ियाँ गुजर गईं। पहले जो पैरोडी सस्ती लगती थी, अब शायद क्लासिकल लगे!
यह सब कुछ यात्रा में था। लेकिन दिल्ली आकर देखा, उद्धतपन कहीं अधिक, हॉकी-स्टिक, डरावने डंडे, माथे पर भगवा पट्टा पहने यात्री और उनके सहायक शिव के गण तो नहीं ही थे। बेटी के स्कूल के आगे थके यात्रियों के लिए शामियाना तना तो देखा, उसकी शिकायत भी सुनी कि पूरे महीने स्कूल की ओर मुंह करके गाने बजाए जाते हैं। स्कूल शिकायत कर सके, ऐसी अधार्मिकता अभी उसमें नहीं।
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पिछले तीन वर्षों में नया विकास देखा। देखा, यात्रा में तिरंगा झंडा! ताज्जुब हुआ। लकिन फिर यह संख्या बढ़ने लगी। इस वर्ष हरियाणा की सड़क पर और दिल्ली में भी तिरंगा और भगवा को गलबहियाँ करते हर जत्थे में देखा। छोटे जत्थे का नेता लंबे डंडे में तिरंगा बाँध कर शिवोन्मुखी है! तो क्या शिव का राष्ट्रीयकरण हो रहा है? क्या त्रिलोक के स्वामी को अब एक देश और राष्ट्र की सीमा में बंधकर रहना होगा?
जमुई में रहने वाले अपने डॉक्टर मामा से बात हुई तो उन्होंने कहा कि अभी देवघर वाले बाबा का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ है। लेकिन हर देवता , देवी का पूजा, उत्सव में नारा जय श्री राम का लगने लगा है!
तो हिंदू, जो तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के उपासक रहे हैं, अब मात्र रामाधीन हो गए हैं और फिर राम हों या शिव, सब एक राष्ट्र के पहरुए होकर रह जाएँगे?
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