विचार

CAA-NRC के विरोध में जामिया और शाहीन बाग ने देश के ध्रुवीकरण के बीजेपी के खेल का भांडा फोड़ दिया

जामिया, जिसे गांधी और जाकिर हुसैन का आशीर्वाद मिला था, के लिए खड़े होने में युवाओं ने संविधान और संपूर्ण मानवता पर दावा किया है। अब यह उन शेष पुरुषों-महिलाओं पर है कि वे उन कृत्रिम दीवारों और खाइयों को ध्वस्त करें जो लोगों को विभाजित करने के लिए बनाई गई हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

भारत को गणतंत्र बने और संविधान को अंगीकार किए हुए 70 साल हो चुके हैं। गणतंत्र के पुनःपुष्टिकरण की वार्षिक रस्मों में विचार-गोष्ठियां और देशभक्ति के गीतों का गायन शामिल था। संविधान का जश्न भी मनाया गया और उस पर चर्चा भी हुई। लेकिन इस वर्ष यह पूरी तरह से भिन्न हैः संविधान को इससे पहले न तो इस तरह से कभी भी महसूस किया गया और न ही स्वतंत्रता और गरिमा के समर्थन में राष्ट्रवादी उत्साह के गहरे अनुभव के लिए इसको कवच और अपने विचारों को फैलाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया गया।

अगर इतिहास के क्षण उस मूल दस्तावेज के रूप में जीवित हो जाएं जो हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व को संचालित करता है, तो वह यही है। लेकिन जाहिर है, जहां संविधान लोगों, नौजवानों और बुजुर्गों, के दिलों में बसता और धड़कता है, वहीं विधायिका और कार्यपालिका में इसके संरक्षक संवैधानिक नैतिकता का बेरहमी से उल्लंघन करते हैं।

हालांकि संविधान के समर्थन में लोकप्रिय मनोभाव से देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं है, लेकिन जामिया और शाहीन बाग ने तिरंगे से बंधी भावनाओं की वास्तविक लहर का नेतृत्व किया है। शाहीन बाग की महिलाओं ने जो प्रतिबद्धता दिखाई है उसने इस दुष्प्रचार को निर्णायक रूप से किनारे लगा दिया है कि मुस्लिम महिलाएं स्वतंत्र रूप से नहीं सोचती हैं।

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मैंने करीब-करीब अपना पूरा जीवन ही जामिया परिसर के भीतर गुजारा है और इसलिए मैं समय-समय पर वहां होने वाली उथल-पुथल और विद्यार्थियों के प्रदर्शनों से परिचित हूं। लेकिन हर बार कुछ क्षण भर के लिए वाद-विवाद होता है जो कुछ घंटों के लिए विश्वविद्यालय परिसर की शांति में खलल डालता है और ज्यादातर मामलों में अगली सुबह चीजें सामान्य हो जाती हैं।

यहां तक कि रुश्दी के ‘सैटेनिक वर्सेज’ के खिलाफ तथाकथित जुनून के साथ हुए प्रदर्शन भी बहुत लंबे समय तक व्यवधान नहीं डाल पाए। परंपरा के बतौर पुलिस को सड़क के उन रणनीतिक स्थानों पर तैनात किया गया था जो यूनिवर्सिटी कैंपस को बाइफर्केट करते हैं। लेकिन इस बार एकदम अलग हुआ है, क्योंकि पुलिस विश्वविद्यालय, यहां तक कि लाइब्रेरी जिसका नाम उसके मेंटर और पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के नाम पर रखा गया है, के अंदर घुसी, उसने छात्र-छात्राओं पर हमला किया और बहुत ही बेरहमी से मारापीटा। तबसे जामिया बिरादरी अपना विरोध जताने के लिए हर रोज इकट्ठा होती है।

भारत में अन्य जगहों की तरह यहां भी कोई नेता या विस्तृत योजनाएं नहीं हैं, लेकिन यह अराजक या अव्यवस्थित नहीं है, बल्कि यह स्वतःस्फूर्त संगठनात्मक हुनर के लिए पुरस्कार का हकदार है। यह सच्चाई कि हर शाम प्रदर्शन स्थल पर एकत्र हुए लोग जाने से पहले पूरे स्थल को बड़े ही करीने से साफ करके जाते हैं जो कि समाज के प्रति प्रदर्शनकारियों की जिम्मेदारी के अहसास के बारे में बहुत कुछ बताता है।

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इस बार जो फर्क है, वह यह भी है कि पुलिस की बर्बरता के खिलाफ हुआ प्रदर्शन संविधान की पुनःप्रतिज्ञा के एक व्यापक उद्देश्य से जा मिला है, जो नारों और दीवारों तथा सड़कों पर लिखी गई देशभक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति में दिखाई देता है। हालांकि सतह पर अद्वितीय एकता और भाईचारे का जश्न निरंतर मनाया जा रहा है लेकिन यह सतह के नीचे अंतर्निहित तनाव के बिना नहीं है।

हालांकि कुछ लोग मौजूदा मुद्दों और अहं के टकराव की वजह से स्थानीय राजनीतिकों को हतोत्साहित करते हैं, अन्य कुछ अपनी धार्मिक पहचान को उजागर करने के लिए कभी-कभी नारों का सहारा लेते हैं। निश्चित रूप से सत्ता इस कवच में ऐसी दरारें ढूंढ रही होगी जिनमें वह मतभेद के पच्चर फंसा सके और असहमति के इस सामूहिक स्वर को दबा सके। फिर भी, भारत की गलियों और मनों में अनेकता में एकता ने अपना मुकाम फिर पा लिया है। हालांकि विरोध-प्रदर्शन के संवैधानिक और राष्ट्रवादी चरित्र को सचेतन रूप से आगे बढ़ाया जा रहा है, किंतु अनिवार्य रूप से खत्म किए बिना भी मतभेदों को आम उद्देश्य में कैसे परिवर्तित किया जाएगा, यह चुनौती बनी रहेगी।

जय श्रीराम और अल्लाह-ओ-अकबर को सार्वजनिक विमर्श में किसी भी दौर में अनुचित नहीं माना जा सकता, यदि कोई इनके मूल तत्व को समझता हो। हालांकि, इनके आक्रामक संस्करणों का इस्तेमाल राजनीतिक हिंदुत्व और इस्लाम को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। परिणाम स्वरूप हल्की-फुल्की फुसफुसाहट को भी यह मान लिया जाता है कि वह अभियान की धर्मनिरपेक्ष साख को नष्ट करने के लिए है।

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दूसरी ओर, जहां एक तरफ राम के भजन और रामाणय से लिए गए सांकेतिक प्रसंग हैं, वहीं दूसरी तरफ ‘नाम रहेगा बस अल्लाह का, जो गायब भी है हाजिर भी’ का क्रांतिकारी सिंटेक्स न केवल स्पष्ट तौर पर धर्मनिरपेक्ष और पुष्टकर हैं, बल्कि व्यापक तौर पर स्वीकार भी किए जाते हैं। जाने-पहचाने सांस्कृतिक विशेषणों पर जोर देने से शायद अशांत युवाओं को एकत्र किया जा सके, लेकिन इससे आगे बढ़कर चंद राजनीतिक दलों के एजेंटों को आरोपित करना रपटीला और खतरनाक हो सकता है। यदि अधिक सावधानी नहीं बरती गई तो पूरा आंदोलन असफलता की ओर जा सकता है।

सीएए-एनआरसी के विरोध की सुस्पष्ट सर्वव्यापकता ने उस विचार का भांडा फोड़ दिया है कि एनडीए ने पूरे भारत का धार्मिक आधार पर सफलतापूर्वक ध्रुवीकरण कर दिया है। युवाओं ने एकता और भाईचारे के अपने प्रदर्शन में देश को बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक में बांटने के भारत के दूसरे विभाजन की कल्पना और इरादे को नष्ट कर दिया है। इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि जो बातचीत खत्म हो गई थी वह फिर से शुरू हुई है, जो संवाद गायब हो गया था उसने लोगों को फिर से जोड़ दिया है, अशांति और आत्म-चेतना से जुड़े मसलों पर बहस हो रही है, लगातार असफलताओं के साये ने उम्मीद को जगह दी है, और यह भरोसा दिया है कि हम इससे उबर जाएंगे।

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विरोध-प्रदर्शन का एक आयाम है जो दिखाई और सुनाई दे रहा है; एक रोशनी जो सूर्यास्त के अंधेरे को भी जीत जाती है। एक अकेला प्रदर्शनकारी, बल्कि न्याय का पैरोकार, एक पीएचडी स्कॉलर जिसका नाम साजिद है, वह पोस्टरों और राष्ट्रीय ध्वज को लपेटे हुए रात भर जागता रहता है, ताकि आंदोलन को नींद न आ जाए। पास में ही नौजवानों और बुर्जुगों का एक और समूह अपने हाथों में मोमबत्तियां थामे हुए है और यहां तक कि जिनके लिबासों पर ‘आजादी’ लिखा है। उनके पीछे की बाउंड्री ग्रील को सुंदर चित्रों और खूबसूरत शैली की ग्राफिटी से ढका गया है जो जामिया के अतीत, वर्तमान और भविष्य तथा उसके पूर्व छात्रों के समुदाय, विद्यार्थियों, शिक्षकों, कर्मचारियों और शुभचिंतकों से भरी है। संवैधानिक आकांक्षा के नारे धातु की ग्रिल की कठोरता को भी दबा देते हैं।

अंकुश से आजादी का इससे बेहतर प्रदर्शन नहीं हो सकता था। जामिया, जिसे महात्मा गांधी और डॉ. जाकिर हुसैन का आशीर्वाद मिला था, के लिए खड़े होने में युवाओं ने संविधान, देश और संपूर्ण मानवता पर दावा किया है। यह अब देश के उन शेष पुरुषों और महिलाओं पर है कि वे उन कृत्रिम दीवारों और खाइयों को ध्वस्त कर दें जो भारतीयों को विभाजित करने के लिए बनाई गई हैं।

वर्तमान विरोध-प्रदर्शनों के दौरान अनगनित बार संविधान की मूल प्रतिज्ञा को पढ़ाजा रहा है। न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व संपूर्ण अस्तित्व के लिए मानव आकांक्षाओं की एक पूरी श्रृंखला को जोड़ते हैं। इनमें से एक या दूसरे के बारे में लोगों के बीच में व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकता है लेकिन ये सब मिलकर हमारे सार्वजनिक विमर्श के आवश्यक एकीकरणीय आयाम को इंगित करते हैं। संवाद और अंतर्वैयक्तिक संचार के बिना वे रैली स्थलों के रूप में अपना महत्व तो बनाए रखेंगे लेकिन संवाद की मौजूदगी उन्हें हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व की जीवंत आधारशिला बना देगी।

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अभी तक तो संवाद स्थापित करने का कोई संकेत नहीं है। इसके बजाय समय-समय पर अवपीड़न की धमकियों का सहारा लिया जा रहा है, पुलिस बल का अत्यधिक इस्तेमाल किया जा रहा है, और यहां तक कि डराने और हतोत्साहित करने के लिए अनुचित भ्रामक सूचना का सहारा लिया जा रहा है। यह आश्चर्यजनक है कि जो लोग सत्ता में हैं वे सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के इतिहास को भूल गए हैं।

गणतंत्र और संविधान को फिर से प्राप्त करने के क्रम में भारत के युवा रतजगे करने और प्रतिमाओं की स्थापना करने मात्र से आगे बढ़कर महात्मा गांधी की महान विरासत को सच्ची भावना के साथ पुनः अपना रहे हैं। हमें खौफ और नफरत से परे जाकर भारत का पुनर्निर्माण करना है। शायद इससे भी बड़े बलिदानों की जरूरत होगी। जो विजय हम चाहते हैं, और जिसके अधिकारी हैं, शायद इतनी भी करीब न हो।

इस बार बाहर के लोगों से नहीं, बल्कि अपने ही लोगों से जब हम स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो धैर्य और साहस निरंतर हमारे साथी बने रहने चाहिए। आज हमारे युवाओं में हमारा संविधान बोल रहा है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों का साहस के साथ सामना करते हुए अपने एक हाथ में संविधान की प्रस्तावना और दूसरे हाथ में राष्ट्रीय झंडे को थामे हुए हैं। सचमुच में हम भाग्यशाली हैं कि हमें आधुनिक भारत के निर्माताओं से विरासत में मिले विचार और आदर्शों के प्रति एक पूरी पीढ़ी द्वारा दिखाई जा रही पूर्ण प्रतिबद्धता का गवाह बनने का अवसर मिला है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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