भारतीय मुस्लिम समाज इस समय अत्यंत कठोर परिस्थितियों से गुजर रहा है। इसे राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर जिस प्रकार की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, उससे साफ है कि यह स्वतंत्र भारत में मुस्लिम समाज की सबसे कठिन परीक्षा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत अब खुलकर कह रहे हैं कि भारत हिंदू राष्ट्र था और सदा हिंदू राष्ट्र रहेगा। दूसरे शब्दों में, अब इस देश की मुस्लिम जनसंख्या दूसरे दर्जे की शहरी बनकर ही रहेगी।
सत्य भी यही है किअब भारतीय मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक की स्थिति में पहुंच चुका है। किसी समय का चर्चित मुस्लिम वोट बैंक बेमानी हो चुका है। लिंचिंग अब एक ‘न्यू नॉर्मल’ बात है। जो कुछ बची-खुची कसर रह गई थी वह एनआरसी ने पूरी कर दी है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने खुलकर यह स्पष्ट कर दिया है कि पूरे देश में मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा असम के मुसलमानों की तरह अपने नागरिक अधिकारों से वंचित बंदी गृहों में रहेगा।
किसी भी समाज की इससे भी बुरी दुर्दशा होना समझ में तो नहीं आता है। लेकिन किसी समाज पर पड़ने वाली आफत उस समाज के लिए नेमत भी बन सकती है। शर्त यह है कि उस समाज को यह समझ में आना चाहिए कि उसकी समस्या का मूल कारण क्या है? तभी समस्या का समाधान संभव होगा। लेकिन अगर वही समाज हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे या रोता रहे कि ‘हाय मोदी ने मार दिया’, तो फिर समस्या हल नहीं होने वाली है।
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तो आइए, पहले यह समझा जाए कि इस समय भारतीय मुस्लिम समाज जिन समस्याओं में घिरा है उसकी जड़ कहां है। यूं तो भारतीय मुस्लिम समाज मुगल सल्तनत के पतन के बाद 1857 से ही पिछड़ेपन का शिकार है। आजादी के बाद भी लगातार सांप्रदायिक दंगों ने मुस्लिम समाज को उलझाए रखा। लेकिन 1990 के दशक में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद समस्या के साथ-साथ बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय से अब तक मुस्लिम समाज को सिर उठाने की मोहलत नहीं मिली।
कभी अयोध्या में मस्जिद गिरी और देश भर में दंगे हुए, तो कभी मुंबई जैसे 1993 के दंगों ने समाज को दहला दिया। फिर 2002 में मोदी जी के गुजरात में खुला मुस्लिम नरसंहार हुआ। अंततः 2014 से 2019 के बीच मोदी के नेतृत्व में भारत हिंदू राष्ट्र की स्थिति को पहुंच गया। एक के बाद एक समस्याओं से घिरा ही रहा मुस्लिम समाज, यह सब कैसे हुआ और इस कठिन परिस्थितियों में मुस्लिम समाज का नेतृत्व कौन कर रहा था और वह नेतृत्व मुस्लिम समाज के लिए कैसा साबित हुआ?
दरअसल, संघ और बीजेपी की राजनीति सदा से ‘मुस्लिम फैक्टर’ पर केंद्रित रही है। दोनों की राजनीतिक रणनीति यह रही है कि किसी प्रकार मुस्लिम वोट बैंक को बेमानी बनाया जाए और उसके सामने एक बहुसंख्यक हिंदू वोट बैंक खड़ा किया जाए। लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब हिंदू और मुस्लिम समाज आपस में स्पष्ट रूप से प्रतिद्वंद्वी के रूप में आमने-सामने हों। 1980 और 1990 के दशक में संघ तथा बीजेपी को यह मौका मिल ही गया। पहला मौका 1985 में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात आया। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो को तीन तलाक मामले में गुजर बसर के लिए पैसे देने का फैसला दिया। यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ नियमों के खिलाफ था। बस इस फैसले के आते ही मुस्लिम समाज में शोर मच गया और देखते-देखते मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मामले में कूद पड़ा। दिल्ली और आसपास नारा-ए-तकबीर की गूंज के साथ मुस्लिम समाज की तीन तलाक बचाओ के मुद्देप र बड़ी-बड़ी रैलियां शुरू हो गईं। भावुक मुस्लिम समाज इस धार्मिक मुद्दे पर एकत्रित होकर इस संबंध में कानून बनाने की मांग करने लगा। मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व ने इतना शोर और दबाव बनाया कि कांग्रेस सरकार को झुकना पड़ा तथा कानून पारित कर शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला गया।
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मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह आंदोलन और मुस्लिम समाज की तीन तलाक की लड़ाई भारतीय राजनीति में एक बड़ा मोड़ साबित हुई, क्योंकि इस मुद्दे पर जिस प्रकार मुस्लिम समाज मौलवी-मुल्लाओं की छत्रछाया में एकत्रित हुआ उससे संघ और बीजेपी को हिंदू समाज को एकत्रित करने का बेहतरीन मौका मिल गया। क्योंकि यह संभव तो नहीं है कि एक समाज धार्मिक मुद्दे पर एकत्रित हो और दूसरे समाज पर उसका कोई प्रभाव ही नहीं पड़े।
लाल कृष्ण आडवाणी ने तीन तलाक मुद्दे को देशव्यापी मुद्दा बना दिया था। कहने को इस बात को मुस्लिम महिला पर होने वाले अत्याचार का रंग दिया गया, लेकिन बीजेपी और संघ ने जमीनी स्तर पर जो प्रचार किया वह बहुत जहरीला था। सबसे पहले पढ़े लिखे मिडिल क्लास में सेकुलरवाद को ‘सूडो सेकुलरवाद’ बना दिया गया। जनता में यह प्रचार हुआ कि मुसलमान इस देश में चार शादियां कर अपनी जनसंख्या बढ़ा रहा है। फिर तीन तलाक के नाम पर और न जाने कितनी शादियां रचाता रहेगा और अपनी जनसंख्या बढ़ाता रहेगा। अंततः भारत भी बहुसंख्यक मुस्लिम देश के रूप में दूसरा पाकिस्तान बन जाएगा और बेचारा हिंदू कहीं का नहीं रहेगा।
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बस यहीं से हिंदू समाज में संघ और बीजेपी ने मुस्लिम समाज के प्रति शक तथा डर का बीज बो दिया। यह स्थिति मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की शाहबानो मामले में जिद के कारण उत्पन्न हुई।
यह तो पहला मौका था जो मुस्लिम नेतृत्व ने संघ और बीजेपी को देश में हिंदू-मुस्लिम गोलबंदी के लिए प्रदान किया। अभी यह समस्या चल ही रही थी कि 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुल गया। एक बार फिर मुस्लिम समाज बाबरी मस्जिद संरक्षण के नाम पर एकत्रित हो गया। मुस्लिम धार्मिक गुरुओं का यह फैसला था कि जहां एक बार मस्जिद बनी वह सदा मस्जिद ही रहेगी। अतः बाबरी मस्जिद संरक्षण के लिए 1986 में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनी, जिसने अत्यंत भावुक आंदोलन छेड़ा। फिर नारा-ए-तकबीर की सदाओं के साथ हजारों मुसलमानों की रैलियां और गोलबंदी शुरू हुई। भला संघ और बीजेपी कैसे इस बात पर चुप रहते। फिर हिंदू आस्था के हिसाब से तो बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि थी। अतः बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के जवाब में पहले विश्व हिंदू परिषद और अंततः स्वयं आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी राम जन्मभूमि संरक्षण आंदोलन में उतर पड़ी।
देखते-देखते राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद मामले पर हिंदू-मुस्लिम गोलबंदी पूरी तरह हो गई। सन् 1992 में अंततः बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, दंगे हुए और हजारों लोग मारे गए और अब प्रतिक्रिया के रूप में संपूर्णतया एक हिंदू वोट बैंक बनकर तैयार हो गया। अंततः यह नौबत आई कि नरेंद्र मोदी बहुमत के साथ सत्ता में आए और उन्होंने भारत को हिंदू राष्ट्र बना दिया। भारतीय मुस्लिम समाज आज उसका खामियाजा भुगत रहा है।
इन दोनों प्रकरणों में राजनीतिक स्तर पर यह स्पष्ट है कि यदि मुस्लिम समाज धार्मिक मुद्दों पर एकत्रित होगा, तो हिंदू समाज में इसकी प्रतिक्रिया होगी। संघ और बीजेपी इस प्रतिक्रिया की भावना को हिंदू वोट बैंक में परिवर्तित कर देगा जिसका खामियाजा सबसे ज्यादा मुस्लिम समाज को भुगतना पड़ेगा। आज हिंदू राष्ट्र के रूप में मुस्लिम समाज इसी समस्या को झेल रहा है।
अतः मुस्लिम समाज को स्वयं से यह प्रश्न करना होगा कि वह आज जिन परिस्थितियों में है उन परिस्थितियों का माहौल किसने तैयार किया। यदि आप मुड़कर देखें, तो यह स्पष्ट नजर आता है कि तीन तलाक मामले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कट्टर धाार्मिक रुख और बाबरी मस्जिद प्रकरण में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का भावुक नेतृत्व दोनों ने संघ और बीजेपी को एक हिंदू वोट बैंक बनाने में बड़ी मदद की।
यह संभव है कि दोनों मुस्लिम संगठनों की यह मंशा नहीं रही हो। लेकिन दोनों मुद्दों पर मुस्लिम राजनीति से केवल बीजेपी ही फली फूली। बेचारा मुसलमान तो केवल मारा ही गया। किसी भी समाज के नेतृत्व का काम क्या होता है? नेतृत्व का उद्देश्य ही यही है कि वह किसी भी समस्या के समय में अपने समाज का ऐसा मार्ग दर्शन करे कि उसका समाज समस्या से उबर सके। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और बाबरी मस्जिद ने मुस्लिम समुदाय की समस्याओं का समाधान ढूंढने के बजाय समस्याओं को और जटिल बना दिया।
अंततः तीन तलाक गया, बाबरी मस्जिद ढहाई गई, हजारों मुसलमान दंगों में मारे गए और अब एक सशक्त हिंदू वोट बैंक तैयार है जिसको अब हिंदू राष्ट्र चाहिए है। अर्थात सन् 1985 से अब तक जो भी मुस्लिम नेतृत्व रहा वह न तो मुस्लिम हित में काम कर सका और न ही देशहित सिद्ध कर सका। दूसरे शब्दों में यदि यह कहा जाए कि मुस्लिम समाज को सबसे पहले मौजूदा मुस्लिम नेतृत्व से छुटकारा हासिल करना होगा, नहीं तो उसका उद्धार संभव नहीं है।
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यह मुस्लिम नेतृत्व है क्या! पर्सनल लॉ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेतृत्व से स्पष्ट है कि मुस्लिम नेतृत्व में दो प्रकार के तत्व हैं। पहला, कट्टर मौलवी-मुल्ला गिरोह जो शरीयत एवं फतवे की राजनीति करता है। दूसरा, कट्टर भावुक मुस्लिम तत्व जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी अथवा ओवैसी जैसे नेताओं के समान केवल मुस्लिम हित और समुदाय की बात करता है। ये दोनों तत्व ही स्वयं मुस्लिम समाज के लिए अत्यंत क्षतिपूरक रहे हैं। क्योंकि संघ और बीजेपी की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि केवल मुस्लिम धार्मिक हित एवं समुदाय हित की राजनीति होगी, तो आडवाणी और मोदी जैसे नेता प्रतिक्रिया की राजनीति कर उसको हिंदू हित की राजनीति में परिवर्तित कर देंगे।
अतः अब मुस्लिम समाज के लिए समय आ गया है कि वह कट्टरपंथी मुल्लाओं और ओवैसी जैसे भावुक नेतृत्व से अपना दामन छुड़ाए। इसी बात में मुस्लिम हित और देश हित सिद्ध हो सकता है। अभी भी मुल्लाओं से दामन नहीं छुड़ाया, तो हिंदू राष्ट्र से भी निजात नहीं मिलेगी।
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