अप्रैल के दूसरे हफ्ते तक दुनिया भर में कोविड-19 से 19 लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं, जबकि मरने वालों की संख्या सवा लाख से भी अधिक है। कोरोना वायरस चीन के वुहान क्षेत्र में पहली बार 31 दिसंबर को चिह्नित हुआ था और 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने उसे वैश्विक जन-स्वास्थ्य आपदा घोषित किया था। इसी दिन भारत में भी केरल में पहला मामला प्रकाश में आया था और अप्रैल के दूसरे हफ्ते तक भारत में हजारों लोग संक्रमित हो चुके हैं और मरने वालों की संख्या 350 को पार कर गई है।
कोरोना वायरस ने अमीर-से-अमीर देशों तक की स्वास्थ्य प्रणाली की कठोरतम परीक्षा ले ली है। अमेरिका, फ्रांस, इटली, स्पेन और इंग्लैंड- जैसे देशों में एक-एक दिन में हजार के आस-पास लोगों की मौतें होने के कारण वहां की स्वास्थ्य प्रणाली पर चरमरा देने वाला भार पड़ा है। कोरोना वायरस के संक्रमण और रोग के सर्वव्यापी खतरे ने शहरी, विकसित तथा अति-आधुनिक समाज को भी ठहर जाने के लिए मजबूर किया है। हवाई जहाज, रेल, बस जैसे यातायात के सारे साधन ठप्प हैं और अनाज या खाने-पीने की चीजों को छोड़कर तमाम मॉल-बाजार सब बंद हैं।
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भारत में कई राज्यों की सरकारों को निजी अस्पतालों के अधिग्रहण पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यह दिखाता है कि सरकार को भी संकट की घड़ी में निजी चिकित्सा संस्थानों पर भरोसा नहीं है, क्योंकि उनमें से अधिकांश लोकहित के लिए नहीं, बल्कि मुनाफा कमाने के लिए खोले जाते हैं। इस देश में समाजवादी सोच रखने वालों की हमेशा से मांग रही है कि शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र का निजीकरण नहीं होना चाहिए।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने तो दो अलग-अलग फैसलों में यहां तक कहा है कि सरकारी वतने पाने वाले ऊंचे-से-ऊंचे पद पर बैठने वालों को भी अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालय में पढ़ाना चाहिए और अपने तथा अपने परिवार के सदस्यों का इलाज सरकारी अस्पताल में उसी चिकित्सक से कराना चाहिए जो उस समय ड्यूटी पर हो। ऐसा इसलिए कहा गया ताकि जब सरकारी अस्पताल और विद्यालय ठीक तरीके से काम करेंगे तो बहुसंख्यक गरीब आबादी को भी उसका लाभ मिलेगा।
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कोराना वायरस का खतरा जब सिर पर आकर खड़ा हो गया है, तब लोग महसूस कर रहे हैं कि हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवा की स्थिति चिंताजनक है और कोरोना से निपटने में तो बिल्कुल अक्षम है। इसलिए रेलवे के डिब्बों को अस्थायी अस्पतालों में तबदील किया जा रहा है। काश, हमने जन स्वास्थ्य प्रणाली पर शुरू से ही ध्यान दिया होता। अब भी समय है कि हम चेत जाएं और चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की नीति को पलट दें। कोरोना वायरस के संकट के दौर में ही स्पेन ने स्वास्थ्य क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर लिया है।
इधर, अमेरिका, भारत से कोरोना से बचाव में लगे स्वास्थ्यकर्मियों के लिए हाइड्राॅक्सी-क्लोरोक्वीन नामक दवा मांग रहा है। ऐसा इसलिए है कि यह जेनेरिक दवा भारत में सस्ते दामों में उपलब्ध है। भारत तीसरी दुनिया के देशों को जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा स्रोत है। यह भी एक लोकप्रिय मांग रही है कि जनहित में चिकित्सक जेनेरिक दवाओं की ही संस्तुति करें, न कि कोई ऐसी दवा की जिस पर किसी कंपनी का एकाधिकार हो, यानी मुनाफा कमाने की छूट हो।
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कोरोना वायरस रोग एक प्रकार का निमोनिया है जो ज्यादा संक्रामक है और इससे प्रभावित लोगों की मृत्यु-दर भी चिंताजनक है। भारत में पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में निमोनिया मृत्यु का सबसे बड़ा कारण तो कई वर्षों से रहा है। विश्व में निमोनिया से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक भारत में है। सवाल यह है कि जब निमोनिया से बचाव संभव है और इसका इलाज भी उपलब्ध है तो भारत में पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के मरने का सबसे बड़ा कारण निमोनिया क्यों बना हुआ है? क्या इसलिए कि अमीर और साधन संपन्न वर्ग के लोगों को यह कम प्रभावित करता है? क्या इसलिए कि अमीर वर्ग के बच्चों के लिए सघन देख-रेख इकाई पहुंच में है और उनकी जान बचाई जा सकती है?
हालांकि कोरोना वायरस रोग दुनिया भर में हवाई यात्रा करने वाले अमीर वर्ग से अनजाने में फैला है, लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा गरीब वर्ग को भुगतना पड़ रहा है। कोरोना वायरस रोग ने समाज में व्याप्त गैर-बराबरी को जग-जाहिर कर दिया है। समाज का बड़ा हिस्सा जब साफ पीने के पानी, नल से बहते पानी, स्वच्छ शौचालय, सुरक्षित और पर्याप्त बड़े घर जिसमें लोगों को भीड़-भाड़ में न रहना पड़े, पोषण आदि से ही वंचित हो तो हम उससे बार-बार हाथ साफ करने, एक मीटर की सामाजिक (जो असल में भौतिक है) दूरी बनाए रखने, घर से बाहर न निकलने जैसे जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक निर्देशों का पालन करने की कैसे अपेक्षा कर सकते हैं?
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सोचने का विषय है कि यदि कोरोना वायरस से बचना है तो सभी इंसानों को सम्मान से जीवन-यापन का अधिकार क्यों नहीं है? आज जो अमीर दानवीर बन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कोष में धन दे रहे हैं, वह भी उन्होंने गैर-बराबरी वाली व्यवस्था से ही अर्जित किया है। एक तरफ कोरोना वायरस ग्रसित देशों में फंसे भारतीय नागरिकों को वापस लाने के लिए सरकार ने विशेष हवाई-जहाजों की व्यवस्था की, तो दूसरी तरफ देश में ही दैनिक मजदूरों को अपने घर जाने के लिए सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा, वह भी पुलिस का उत्पीड़न झेलते हुए।
मानवीय संवेदना सिर्फ अमीरों के लिए ही कैसे हो सकती है? समाज के संपन्न वर्ग को अलग-थलग रखने के लिए होटलों की व्यवस्था है, तो गरीब के ऊपर हानिकारक रसायन का छिड़काव होता है। कोरोना वायरस रोगियों की सेवा कर रहे सरकारी स्वास्थ्यकर्मी निःसंदेह प्रशंसा के पात्र हैं, किंतु जब कोरोना वायरस अमीर-गरीब में भेद नहीं करता तो उससे लड़ने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों में भेदभाव क्यों बरता जा रहा है?
चिकित्सकों को तो सरकार द्वारा अधिग्रहित पांच-सितारा होटलों में रखा जाता है और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को रैन-बसेरा अथवा छात्रावासों में रहने को कहा जाता है। लखनऊ में एम्बुलेंस चालकों को हड़ताल करनी पड़ी क्योंकि तीन माह से उनका वेतन नहीं मिला था। कोरोना के प्रकोप की वजह से उनके वेतन भुगतान का तुरंत आदेश भी हो गया, अन्यथा न जाने कितने दिन उन्हें और इंतजार करना पड़ता।
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इस बात में कोई शक नहीं कि इस समय कोरोना वायरस रोग पर अंकुश लगाना जरूरी है और यह सबसे बड़ी प्राथमिकता भी है, पर यह भी समझने की जरूरत है कि बिना हर किस्म की और हर स्तर पर गैर-बराबरी मिटाए, ऐसी आपदा से निपटना आसान नहीं होगा। यह गैरबराबरी अनेक पीढ़ियों की देन है जिससे आज भी काॅरपोरेट जगत और समाज का अमीर वर्ग पोषित हो रहा है। यह हमारे लिए अवसर है कि हम उस गैरबराबरी को समझदारी पूर्वक, सबकी सहमति और सरकारी प्रयासों से खत्म करें।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा है कि कोरोना के दौर में कोई भूखा न रहे और कोई सड़क पर न सोए, लेकिन जिस देश में आधे बच्चे कुपोषित हों, हरेक महत्वपूर्ण चौराहे पर लोग भीख मांगते हों, रात को सड़क पर ही खाना बनाते हों और वहीं सोते हों, तो इसकी चिंता सरकारों को बहुत पहले ही कर लेनी चाहिए थी। देर आए, दुरुस्त आए मानकर कम से कम अब से ही ईमानदारी से सुनिश्चित करें कि किसी को भूखा न रहना पड़े, भीख न मांगना पड़े और सड़क पर न रहना पड़े।
कोरोना संकट ने हमें अहसास कराया है कि हम इंसान भले ही आपस में भेद-भाव की श्रेणियां बना लें, प्रकृति तो कोई भेद नहीं करती। यदि इस महामारी से हम यह पाठ सीख लें तो समझिए कि हजारों मासूम लोग जिन्होंने कोरोना की वजह से अपनी जान गंवाई, उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।
(संदीप पांडेय, प्रवीण श्रीवास्तव और बॉबी रमाकांत का लेख सप्रेस से साभार)
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