भारत में 1872 में हुई पहली जनगणना में देश की जनसंख्या 20,61,62,360 थी। मतलब, 20.61 करोड़ उस भारत में थे जिसमें आज का बांग्लादेश और पाकिस्तान भी शामिल था। 1881 में यह संख्या 23 फीसदी बढ़कर 25.38 करोड़ हो गई। ऐसा कुछ तो जनसंख्या वृद्धि के कारण हुआ, एक और कारण यह भी था कि इन वर्षों के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में विस्तार हुआ। 1911 में जनसंख्या में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और यह 31 करोड़ हो गई। लेकिन दस साल बाद 1921 में यह 31 करोड़ ही रही।
इस पूरे एक दशक के दौरान आखिर जनसंख्या क्यों नहीं बढ़ी? इसका जवाब है एच1एन1 वायरस जिसे स्पैनिश इन्फ्लुएंजा कहा जाता है। यह कोरोना वायरस की तरह की महामारी थी और उसने इस दशक के दौरान जनसंख्या वृद्धि को समाप्त कर डाला था। करीब 1.5 करोड़ लोग, और संभवतः उससे भी ज्यादा ही, लोगों की इसने जान ले ली थी। इन्फ्लुएंजा यूरोप से यहां आया जहां यह पहले विश्व युद्ध के अंत में सैन्य अस्पतालों से शुरू हुआ।
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हमें नहीं पता कि यह कैसे शुरू हुआ लेकिन संभव है कि यह सेना के मेस (भोजनालयों) से परोसे जाने के लिए काटे जाने वाले पक्षियों या जानवरों से आदमी में संक्रमित हुआ। 1918 में जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया था और ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लड़ने वाले भारतीय सैनिक बंबई लौटे थे। इन लोगों ने ही वायरस को साथ लाया था, उसी तरह जैसे कोरोना वायरस लेकर बाहर से लोग यहां आए।
अमेरिका समेत कई देशों ने वह लड़ाई लड़ी थी और लौटने वाले सैनिक पूरी दुनिया में इसे अपने साथ ले गए। माना जाता है कि तब दुनिया की लगभग 25 प्रतिशत आबादी संक्रमित हुई और इनमें से लगभग 10 प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो गई। संक्रमण और मौत की यह काफी उच्च दर है और आज कोरोना वायरस के दौर में हम उसी तरह की चुनौती से जूझ रहे हैं। इस नए वायरस के साथ समस्या यह है कि इसका कोई इलाज नहीं है। कोई ऐसी दवा नहीं है जो ली जा सके और इसमें तेजी से फैलने की क्षमता है जैसा कि हम आज भारत में भी देख रहे हैं।
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अ नामक व्यक्ति संक्रमित होता है और उसे लक्षण दिख सकते हैं या नहीं भी दिख सकते हैं, पर वह जिस भी व्यक्ति के निकट जाता है, वह उसे संक्रमित कर देता है और फिर वे लोग जो संक्रमित होते हैं, वे अपने निकट वाले दूसरे लोगों को संक्रमित कर देते हैं। और यह सब एक ही दिन में होता है। इस वायरस की प्राणघातक शक्ति में कोई कमी नहीं होती क्योंकि यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक जाता रहता है और यह वायरस मद्धम नहीं पड़ता।
तरीके हैं जिसमें इसके फैलने के क्रम या चेन को रोका जा सकता है और यह है कि सभी लोगों के बीच संपर्क को यथासंभव कम-से-कम किया जाए। तब यह सुनिश्चित होता है कि जो संक्रमित हुए हैं, उन्हें अपनी ही व्यवस्था, अपने ही शरीर में इसे समाप्त होने का अवसर मिले। इनमें कुछ बच जाते हैं और कुछ लोग जीवन से हाथ धो बैठते हैं। लेकिन अलग-थलग हो जाना (आइसोलेशन) यह सुनिश्चित करता है कि जो संक्रमित हुए भी हैं, वे इस रोग को अपने तक ही सीमित किए हुए हैं।
आइसोलेशन सिर्फ संक्रमित व्यक्ति को लाभ नहीं पहुंचाता बल्कि यह सामान्य तौर पर उसके आसपास रहने वाले लोगों के लिए भी फायदेमंद रहता है क्योंकि आइसोलेशन के दौरान वे उस व्यक्ति के संपर्क में नहीं होते। जब तक यह कड़ी नहीं टूटती या यह वायरस कम संक्रमित अवस्था या कम प्राणघातक अवस्था में नहीं पहुंचता, संक्रमण चरम प्राणघातक तरीके से फैलता रहता है।
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चीन ने पूरे शहरों के लाॅकडाउन के जरिये कोरोना वायरस के प्रसार को रोका है। लोगों को घर से बाहर निकलकर घूमने से रोक दिया गया था। सरकार ने सुनिश्चित किया कि प्रशिक्षित लोगों द्वारा खाद्य पदार्थ हर घर को उपलब्ध कराया जाए। यूरोप में लोकतांत्रिक देशों के लिए चीन की तरह पूरी तरह बंदी को लागू करना संभव नहीं था। यही वजह है कि इटली और अब स्पेन में वायरस का प्रसार तेजी से हुआ और यहां मौतें भी चीन से अधिक हुईं। निश्चित तौर पर, यूरोपीय लोग सोशल डिस्टेन्सिंग और खुद को एक कमरे में बंद कर लेने (सेल्फ क्वैरेन्टाइन) की आदतें अपना रहे हैं जैसा कि हमने सोशल मीडिया में वीडियो वगैरह में देखा है, लेकिन यह सब पूरी तरह लाॅकडाउन की तरह प्रभावी नहीं है।
हममें से कई लोग एक कहानी के जरिये लगातार दोगुनी होती जाने वाली प्रगति से शायद परिचित होंगे। इस कहानी में एक व्यक्ति राजा से कहता है कि वह शतरंज में पहले घर में अनाज का एक दाना दे और अगले बढ़ते घर में अनाज के दाने की संख्या दोगुनी करता जाए। इस तरीके से वह 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64, 128, 256, 512, 512, 1024 और सिर्फ 12वें घर में 2,048 दाने हासिल कर लेता है। अब कल्पना करें कि ये दाने लोग हैं और 1 वह है जो देश में प्रवेश करने वाला पहला संक्रमित व्यक्ति है। जब तक आप 64वें घर तक पहुंचेंगे, कुछ को छोड़कर हर व्यक्ति संक्रमित हो चुका होगा। यही कोरोना वायरस के साथ होगा।
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सच्चाई यह है कि भारत के पास कोरोना वायरस से बचने का कोई तरीका नहीं है। औसतन सभी भारतीयों में से एक तिहाई एक ही कमरे में रहते हैं। अन्य दो तिहाई दो कमरों में रहते हैं। वे अपने को सेल्फ क्वैरेन्टाइन या आइसोलेट नहीं कर सकते और अगर संक्रमित हो गए तो दूसरों को संक्र मित करेंगे। भारत के लिए महामारी को नियंत्रित करना असंभव है। हमारे पास चीन की तरह की सरकारी क्षमता नहीं है कि हम हर घर तक प्रशिक्षित और सुरक्षित लोगों के जरिये खाद्य पदार्थ पहुंचा सकें और हर व्यक्ति को अपने ही घर में खुद को कैद करने को कह सकें।
वैसा भारत में नहीं हो पाएगा। हमारे पास वह स्वास्थ्य-व्यवस्था भी नहीं है कि हम संक्रमित लोगों को बचा सकें। हमारे पास ऐसी क्षमता भी नहीं है। भारत स्वास्थ्य पर जितना खर्च करता है, उससे चार गुना रक्षा पर खर्च करता है। पिछले साल सरकार ने आयुष्मान भारत (जिसे हेल्थकेयर कहा जा रहा है) को सिर्फ 3,200 करोड़ रुपये दिए। लेकिन 36 राफेल फाइटर्स पर 59,000 करोड़ रुपये खर्च कर दिए।
संक्रमित हुए लोग जो दूसरे देशों में बचा लिए जा सकते थे, भारत में उन्हें मौत का मुंह देखना पड़ेगा। यह सच्चाई है और यह हम जल्दी ही देखेंगे जब हम ऐसे रोग से जूझेंगे जो कुछ लोगों की ही जान नहीं लेगा बल्कि आबादी के एक हिस्से को खत्म कर देगा। दुनिया देखेगी कि भारत संक्रमण नहीं रोक सकता और इसका परिणाम भी हम देखेंगे, जो अच्छा नहीं होगा।
लेकिन भारत के साथ एक अच्छी बात भी है जो शायद अन्य किसी देश में नहीं है और वह है भाग्य पर भरोसा करने की हमारी आदत। हम चरम पर होने वाले नुकसान, गरीबी और क्षति के इतने आदी हैं कि लाखों लोगों की मौत हो भी गई, तब भी कोई क्रांति, कोई सामाजिक उथलपुथल नहीं होगी। इस महामारी से बच जाने वाले लोग उसी तरह जीते रहेंगे जिस तरह एक शताब्दी पहले स्पैनिश इन्फ्लुएंजा से बच गए लोग रह रहे थे।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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