भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी पंचतत्व में विलीन हो गए। शुक्रवार दोपहर जब दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित बीजेपी मुख्यालय से उनकी अंतिम यात्रा प्रारंभ हुई तो मानो पूरा देश उन्हें श्रद्धांजलि देने सड़कों पर उमड़ पड़ा।
लेकिन क्या यह सिर्फ बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा थी, या फिर बीजेपी के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का टीवी इवेंट। बुधवार शाम से ही बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर देश भर के कैमरों का फोकस अपने ऊपर केंद्रित किए रखा था।
इस 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर पीएम मोदी ने लाल किले से जब अपने इस कार्यकाल का आखिरी और पांचवां भाषण दिया तो उनके लहजे में ‘व्याकुलता, व्यग्रता’ दोनों थीं। उनका भाषण देश को संबोधन कम और चुनावी सभा में वोटों की याचना करता ज्यादा नजर आया था। इस भाषण में पिछले वर्षों जैसी न तो आक्रामकता थी और न ही ‘यह इंडिया और वह इंडिया’ जैसी किसी नई स्कीम का ऐलान, तो उनके भाषण पर कोई खास चर्चा नहीं होनी थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के निधन ने पीएम मोदी को चर्चा में बने रहने का मौका दे दिया।
सब जानते थे कि वाजपेयी जी की तबीयत बेहद नाज़ुक थी। बुधवार और गुरुवार के बीच मोदी ने 16 घंटे के अंतराल में एम्स में भर्ती वाजपेयी को देखने के लिए दो बार दौरा किया। इस कारण पूरे देश का ध्यान एम्स पर केंद्रित था। बुधवार शाम से देश को एम्स से किसी बुरी खबर की आशंका थी। केंद्रीय मंत्री, बीजेपी-एनडीए और विपक्ष के बड़े नेता एम्स का चक्कर लगा रहे थे। गुरुवार दोपहर होते-होते कई केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता दिल्ली में कृष्णा मेनन मार्ग स्थित वाजपेयी के निवास स्थान पर भी जमा होने लगे थे। खबरें आ रही थीं, कि वहां कोई मंच बनाया जा रहा है। इस सबके बीच बाद शाम करीब सवा पांच बजे एम्स ने चंद पंक्तियों में देश को सूचित किया कि वाजपेयी नहीं रहे।
मोदी के अधिकारिक ट्विटर हैंडिल से शोक संदेश आ गया। अंग्रेजी और हिंदी में लिखा हुआ। संभवत: पहले से तय था। वाजपेयी के निधन पर टीवी कैमरे मानो किसी को तलाश रहे थे। और शाम ढलते-ढलते मोदी फिर कैमरों के फोकस में थे। टीवी स्क्रीन पर उनके ही बयान दिख रहे थे।
पूर्व प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा की व्यवस्था इस तरह की गई कि लोगों को उनके अंतिम दर्शन करने, अंतिम यात्रा में हिस्सा लेने का मौका मिल सके। इसमें कोई हर्ज भी नहीं। ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन एक चीज़ जो चौंका रही थी, वह यह कि अंतिम दर्शन के लिए जब वाजपेयी का पार्थिव शरीर पहले उनके निवास और फिर बीजेपी मुख्यालय में रखा गया तो मोदी ही फोकस में थे।
बीजेपी मुख्यालय से यमुना तट पर वह जगह साढ़े तीन-चार किलोमीटर दूर हैं जहां वाजपेयी का अंतिम संस्कार होना था। हजारों लोग इस यात्रा में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली की सड़कों पर थे तो इस छोटे सी दूरी में भी एक-डेढ़ घंटा तो लगना ही था। 24 घंटे के लाइव टीवी न्यूज (निजी और सरकारी दोनों) के दौर में ऐसे आयोजन की निरंतर कवरेज होती है। जब निजी चैनल नहीं होते थे, तो भी पूर्व प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा की कवरेज ऐसे ही हुई थी। ऐसी कवरेज से कोई ऐसा नेता कैसे दूर रह सकता था, जिसने बीते चार-साढ़े चार साल में मीडिया का कोई ऐसा साधन नहीं छोड़ा हो, खुद को केंद्र में रखने के लिए। लाल किले की प्राचीर से वोटों की याचना करते जिस नेता को बार-बार माथे का पसीना पोंछना पड़ा हो और सूखते गले के लिए बार-बार पानी पीना पड़ा हो, उसके लिए तो यह जबरदस्त मौका था।
तो तय किया गया कि इस अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी ही केंद्र में रहेंगे। उन्होंने इस अंतिम यात्रा में पूरे रास्ते शव वाहन के पीछे-पीछे पैदल चलने का फैसला किया। और टीवी कैमरों और स्टूडियो में बैठे एंकर और विश्लेषकों के लिए तो यह यूरेका मोमेंट था। ऐसे मौकों पर होने वाली चर्चा का विषय परंपरागत रूप से दिवंगत के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित होता है, लेकिन इस यूरेका मोमेंट के बाद चर्चा का केंद्र पीएम मोदी और उनका पथ संचलन था।
नि:संदेह इस शव यात्रा में जन सैलाब उमड़ा था, हज़ारों की भीड़ थी। लेकिन कैमरे यदा-कदा ही उस भीड़ को दिखा रहे थे। दिख रहे थे तो मोदी, अमित शाह, उनके पीछे चलते बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री।
भक्तों को यह सब पढ़ना-सुनना शायद अच्छा नहीं लगे, लेकिन वाजपेयी की अंतिम यात्रा में पीएम मोदी के पथ संचलन की चर्चा तो होनी ही चाहिए। आखिर अंतिम यात्रा बीजेपी के ऐसे पहले प्रधानमंत्री की थी, जो तीन बार सत्तासीन रहा। पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और फिर पूरे पांच साल। लेकिन बीजेपी के दूसरे प्रधानमंत्री इस उधेड़बुन में हैं कि क्या उन्हें दूसरा मौका मिलेगा? उधेड़बुन का एक कारण यह भी हो सकता है कि आखिर वाजपेयी भी तो संघ से आते थे, आखिर उन्होंने ही तो पहले जनसंघ और फिर बीजेपी को इस स्थिति में पहुंचाया, जिसकी परिणति के तौर पर नरेंद्र मोदी पीएम बन सके, तो फिर वाजपेयी की स्वीकार्यता इतनी अधिक क्यों है? क्यों देश के वे 69 फीसदी वोटर भी शोकाकुल हैं जिन्होंने हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व की राजनीति के प्रतीक मोदी को वोट नहीं दिया था।
यूं तो वाजपेयी और मोदी में कोई तुलना नहीं की जा सकती। दोनों के व्यक्तित्व, राजनीति और नीति में स्पष्ट अंतर है। फिर भी मोदी के इस कैमरा क्रम के बाद तुलना तो की ही जानी चाहिए।
टीवी, रेडियो, कम्प्यूटर, मोबाइल से लेकर देश में चुनावी रैलियों से लेकर विदेशों में आप्रवासियों भारतीयों के बीच भाषणों तक और समय-समय पर पसंदीदा टीवी चैनलों-अखबारों और न्यूज़ एजेंसियों को पहले से तय इंटरव्यू देकर चर्चा में रहने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी सर्व स्वीकार्य प्रधानमंत्री या नेता है।
वाजपेयी को डेमोक्रेट यानी लोकतंत्रवादी कहा जा रहा है, कुछ हद तक सही भी है। वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन का एक लंबा और बड़ा हिस्सा विपक्ष में रहते हुए ही बिताया, फिर भी क्रोध, शत्रुता और घृणा न तो उनके व्यक्तित्व से झलकी न उनके शब्दों से। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में एनडीए के सहयोगी दलों के नेताओं के साथ उनकी जितनी सहजता थी, उतनी ही विपक्ष में रहते हुए दूसरे दलों से। पंडित नेहरू और श्रीमति इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और पी वी नरसिम्हा राव तक, उनका रिश्ता-व्यवहार मित्रवत और सहयोग का रहा। वे राजनीतिक टिप्पणियां करते, लेकिन शब्दों की मर्यादा कभी नहीं लांघते थे।
लेकिन, बीजेपी के दूसरे प्रधानमंत्री मोदी क्या कुछ नहीं बोल जाते। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर भद्दी टिप्पणी हो, पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह के धर्म का बखान हो, सुनंदा पुष्कर को लेकर शशि थरूर पर टिप्पणी हो, हाल ही में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल गांधी द्वारा गले मिलने का मजाक उड़ाना हो। मोदी न सिर्फ बेहद सतही शब्दों का चयन करते हैं, बल्कि राजनीतिक व्यवहारिकता को सस्तेपन का जामा भी पहना देते हैं।
वाजपेयी के दौर में भी बहुत कुछ हुआ। ग्राह्म स्टेंस और उनके बच्चों को उन्हीं के कार्यकाल में जिंदा जलाया गया था, गुजरात दंगे उन्हीं के प्रधानमंत्री रहते हुए थे। आईसी 814 हाईजैक से लेकर करगिल युद्ध और संसद पर हमले तक आतंकवाद का चरमपंथ उन्हीं के कार्यकाल में हुआ। लेकिन उन्होंने गुजरात दंगों को देश पर कलंक कहा तो, मोदी को राजधर्म भी याद दिलाया। ग्राह्म स्टेंस कांड के लिए संघ की आलोचना भी की। लेकिन मोदी गौरक्षकों द्वारा की जा रही मॉब लिंचिंग पर चुप रहते हैं, महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर निशब्द रहते हैं।
आर्थिक मोर्चे पर भी वाजपेयी का रिकॉर्ड काफी बेहतर है। भयावह भूकंप, खतरनाक तूफान, कई राज्यों पर सूखे की मार, अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के उछाल मारते दाम और करगिल युद्ध के बावजूद वाजपेयी के दौर में देश के विकास की रफ्तार 8 फीसदी के आसपास रही। लेकिन जीडीपी गणना का तरीका बदलने और तेल की कीमतों पर जबरदस्त नरमी के बावजूद मोदी के दौर में जीडीपी विकास दर 6-7 फीसदी के ही आसपास है। और हाल ही में जारी आंकड़े बताते हैं कि पुराने तरीके से गणना करें तो स्थिति और खराब दिखती है।
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पड़ोसियों को लाल आंख दिखाने और एक के बदले दस सिर लाने का उद्घोष करने वाले पीएम मोदी अकसर पुरुषार्थ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन असली पुरुषार्थ तो वाजपेयी ने दिखाया था जब वे बस में लाहौर गए और अपनी वाकपटुता और शाब्दिक कलात्मकता से लाहौर जीत लिया। इसके विपरीत पीएम मोदी तो बिन बुलाए ही नवाज शरीफ को जन्मदिन की मुबारकबाद देने पहुंच गए थे।
वाजपेयी में हौसला था कि वे खुली प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों से खुलकर बात करते थे, लेकिन मोदी, वे तो पहले से तय सवालों के जवाब भर ही देते हैं, वह भी अपनी पसंद के पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को।
हां एक मामले में मोदी जरूर वाजपेयी से श्रेष्ठ नजर आते हैं, वह है मीडिया के निरंतन केंद्र में रहने की कला। वाजपेयी यह कभी न कर सके और मोदी सिर्फ यही कर पाते हैं।
और सबसे बढ़कर यह कि मोदी को सेक्युलर शब्द से मानो चिढ़ है, जबकि वाजपेयी का मानना था, “भारत अगर सेक्युलर नहीं है, तो भारत- भारत नहीं है। सरकारें आएंगी-जाएंगी, लेकिन देश बचा रहना चाहिए।”
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