मेरे घर में किताबें अजीब तरह से रखी हुई हैं। कुछ विषय और प्रसंग के हिसाब से व्यवस्थित हैं। उदाहरण के लिए, जीवनियां और आत्मकथाएं दो बड़े किताबखानों में रखी हुई हैं और उनको फिर अलमारी के हिसाब से बांटा गया है। और इसलिए उद्यमियों की जीवनियां एक साथ रखी हुई हैं। इसके अलावा प्रकाशक के आधार पर भी किताबों का बांटा गया है, इसलिए पेंगूइन ब्लैक क्लासिक श्रृंखला की लगभग 500 किताबें साथ हैं, हालांकि उनके विषय अलग-अलग हैं। उनमें प्लेटो और अरस्तू के प्राचीन ग्रीक ग्रंथों के अलावा कालिदास और पतंजलि के भारतीय ग्रंथ भी हैं।
कुछ किताबें इसलिए साथ रखी हुई हैं क्योंकि उनका आकार एक जैसा है। और इसलिए ट्रांसफर ऑफ पॉवर श्रृंखला की किताबें संविधान सभा की बहसों की श्रृंखला के साथ हैं। निश्चित रूप से, आमतौर पर एक लेखक की किताबें साथ हैं क्योंकि वे एक ही विषय पर हैं। इस नियम का एक अपवाद है, एक आदमी जिसने पर्यावरण, इतिहास, जीवनियां, क्रिकेट और राजनीति जैसे भिन्न विषयों पर किताबें लिखी हैं। अपनी लाइब्रेरी में उनकी किताबें तलाश करना मेरे लिए मुश्किल होता है क्योंकि उनका फैलाव बहुत बड़ा है। वह लेखक रामचंद्र गुहा हैं। गुरुवार, 2 नवंबर को गुहा ने ट्वीट किया, “मेरे नियंत्रण के बाहर की स्थितियों की वजह से मैं अहमदाबाद विश्वविद्यालय (एयू) में पदभार ग्रहण नहीं करूंगा। मेरी शुभकामनाएं एयू के साथ हैं। वहां काफी अच्छे शिक्षक और एक बेहतरीन कुलपति हैं। काश गांधी की भावनाएं एक बार फिर उनके जन्मस्थल गुजरात में जी उठें।”
वे जिन परिस्थितियों का संदर्भ दे रहे थे, उनके बारे में एक अखबार में लिखा गया था कि एबीवीपी ने गुजरात में उनके पढ़ाने का विरोध किया है। रिपोर्ट में कहा गया, “गोलबंद एबीवीपी जैसा तत्व एक खतरे की संभावना पैदा करता है। एक बड़ा सरोकार यह था कि गुहा को कैंपस में शारीरिक चोट पहुंचाई जा सकती है।”
अहमदाबाद विश्वविद्यालय के प्रशासन ने सोमवार को गुहा से इस संभावना पर चर्चा करने के लिए संपर्क किया कि क्या पदभार संभालने की तारीख को टाला जा सकता है। वे 1 फरवरी, 2019 से एयू में पदभार संभालने वाले थे। एयू द्वारा संपर्क करने के दो दिन बाद गुहा ने विश्वविद्यालय नहीं ज्वाइन करने का अपना फैसला ट्वीट किया।
अगले दिन बीबीसी में यह खबर छपी: “ऐसा लगता है कि हिंदू दक्षिणपंथ ने गुहा को गुजरात से खदेड़ दिया, जो प्रधानमंत्री मोदी का गृह प्रदेश है और जिसे बीजेपी का गढ़ माना जाता है। स्थानीय बीजेपी के छात्र संगठन के नेता ने कहा कि वे अहमदाबाद विश्वविद्यालय के अधिकारी से मिले थे और उनसे कहा था कि वे नहीं चाहते कि गुहा इस शहर में पढ़ाएं।” उसने कहा, “हमने उनसे कहा कि हम अपने शैक्षणिक संस्थानों में बौद्धिकों को चाहते हैं, राष्ट्र-विरोधियों को नहीं।” उसने यह भी जोड़ा कि गुहा की किताबों से “राष्ट्र-विरोधी उक्तियों” को पढ़कर उसने अधिकारी को सुनाया।
शिकायत में कहा गया कि गुहा के लेखन ने “विभाजनकारी प्रवृतियों को बढ़ाया है, व्यक्ति की आजादी के नाम पर अलगाव पैदा किया है, आतंकवादियों को रिहा करने और भारतीय संघ से जम्मू-कश्मीर को अलग करने की वकालत की है।”
“उन्होंने गुहा को कम्युनिस्ट कह कर भी संबोधित किया।”
बीबीसी की रिपोर्ट में कहा गया कि “शिकायतों से यह साफ होता है कि छात्रों ने गुहा की किताबें नहीं पढ़ी हैं।”
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मैं पाठकों को यह बताने में समय बर्बाद नहीं करूंगा कि गुहा किस तरह के लेखक हैं। इसका कोई मतलब नहीं है। मैंने उनके काम के फैलाव की चर्चा यही बताने के लिए की थी। गुहा ऐसे आदमी नहीं है जो किसी विचारधारात्मक दृष्टिकोण के साथ किसी विषय पर काम शुरू करते हैं। कोई भी इतने भिन्न विषयों पर किताबें नहीं लिख सकता जितनी उन्होंने लिखी है, जब तक कि उसके अंदर ईमानदार जिज्ञासा और सही अध्ययन क्षमता न हो।
चिंता की बात यह है कि बिना सरकार के प्रतिरोध के ऐसा हो गया। हम एक सहिष्णु समाज होने का जितना चाहे शोर मचा लें, लेकिन सच्चाई हमारी आंखों के सामने है।
मैं कह रहा हूं कि यह चिंता की बात है क्योंकि सरकार ऐसा होने दे रही है और इसे बढ़ावा दे रही है, लेकिन मैं कतई आश्चर्यचकित नहीं हूं। हम लोग कुछ सालों से इस रास्ते पर बढ़ रहे हैं। जो भारत में हो रहा है और जो पाकिस्तान में हो रहा है, उसमें दुनिया कोई अंतर नहीं करेगी। उस देश में लोग एक गरीब ईसाई महिला के सुप्रीम कोर्ट द्वारा छोड़े जाने का विरोध कर रहे हैं, जो इस्लाम को बदनाम करने के झूठे आरोपों के तहत कई सालों से जेल में बंद थी।
हम किस तरह का भारत चाहते हैं? एक ऐसा भारत जिसमें कुछ लोगों को कोई चीज अच्छी न लगे तो उसे नहीं बोला जाना चाहिए या एक ऐसा भारत जहां कुछ लोगों को कोई चीज न अच्छी लगे तो उसे नहीं बोला जा सकता? दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि हम बाद वाली श्रेणी में आ गए हैं।
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