सुबह के अखबार की सुर्खी थी, “लोगों को अपना धर्म चुनने की आजादी है: सुप्रीम कोर्ट”....यह सुर्खी उस खबर की थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का जिक्र था जो उसने उस याचिका पर सुनाया था जिसमें लोगों को धर्मांतरण से रोकने की अपील की गई थी। इस बात पर जज नाराज हुए और उन्होंने कहा, “यह किस किस्म की याचिका है। 18 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी का धर्म क्यों नहीं चुन सकता?” यह याचिका बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की थी।
धर्म की आजादी पर भारतीय न्याय व्यवस्था का एक इतिहास रहा है। ऐसे मौके पर इन्हें देखने की जरूरत है। लेकिन पहले पाठकों को यह समझना होगा। आपको धर्म की आजादी नहीं है। आपको उस धर्म को छोड़ने की भी आजादी नहीं है जिसमें आप पैदा हुए थे। मुझे नहीं पता कि हमारे जजों को इस कानून की जानकारी था या उन्होंने वाकई कानून पढ़ा था। लेकिन वास्तविकता तो यही है।
संविधान के अनुच्छेद 25 में लिखा है, “सभी नागरिक अपनी मर्जी और अंतरात्मा के आधार पर अपनी पसंद का धर्म चुनने, उसे व्यवहार में लाने और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र हैं।”
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दरअसल यह एक बुनियादी अधिकार है। यानी इसमें सरकारी दखल के विरुद्ध संविधानिक कवच है। बुनियादी अधिकारों को एक लंबी बहस के बाद शामिल कि. गया था, जिसमें ईसाइयों ने खासतौर से मांग की थी कि उन्हें अपने धर्म के प्रचार (दूसरे लोगों को धर्मांतरण करने) की इजाजत हो क्योंकि यह एक आस्था का मामला था। भारत में मुसलमान समूह में धर्म का प्रचार नहीं करते हैं। तबलीगी जमात मुसलमानों से और बेहतर मुसलमान होने की अपील करती है। सिर्फ ईसाई ही ऐसे हैं जो जिन्हें अपने धर्म के प्रसार-प्रचार में विश्वास है ताकि ईसा मसीह के उपदेशों को और लोगों तक पहुंचाया जा सके। उन्होंने ही इस अधिकार की मांग की थी और उन्हें संविधान निर्माताओं ने यह अधिकार दिया था। संविधान निर्माताओं में के एम मुंशी जैसे कट्टर हिंदू भी शामिल थे और वे भी ईसाइयों की इस मांग से हमत थे। संविधान सभा के सिर्फ एक सदस्य ने धर्म के प्रचार के अधिकार का विरोध किया था। वे थे ओडिशा के 26 वर्षीय लोकनाथ मिश्रा जो रंगनाथ मिश्रा के भाई और दीपक मिश्रा के भतीजे थे। ये दोनों ही सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बने।
मिश्रा ने कहा था कि भारत को सेक्युलर बनाकर, हिंदुओं ने दूसरे समुदायों पर अहसान किया है, इसलिए प्रचार की अनुमति तो हो लेकिन इसे बुनियादी अधिकार न बनाया जाए। लेकिन उन्हें इस विषय में ज्यादा चिंता करने की जरूत नहीं थी क्योंकि इस अधिकार को उप-शरण द्वारा उसी तरह छीन लिया गया था क्योंकि जिस तरह और भी कई तरह के अधिकार सुप्रीम कोर्ट की आंखों के सामने छीन लिए गए।
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आइए देखते हैं कि मेरे अपने राज्य गुजरात में क्या माजरा है।
सन 2003 में नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कानून पास किया, जो मोटे तौर पर गुजरातियों के धर्म के अधिकार को खत्म करता है। इसके तहत किसी भी व्यक्ति को धर्म बदलने के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत है। इसके लिए किसी को एक फॉर्म भरना होगा जिसमें जिलाधिकारी के सामने बताना होगा कि वह धर्म क्यों बदलना चाहत है, उनका पेशा क्या है और मासिक आमदनी कितनी है, मौजूदा धर्म में वह कब से हैं, वे आदिवासी हैं या दलति हैं, किस समय और किस तारीख को धर्म परिवर्तन करेंगे और इसमें कितने लोग शामिल होंगे। अगर कोई ऐसा नहीं करता है तो धर्म परिवर्तन के 10 दिन के अंदर उस पर मुकदमा दायर हो जाएगा और उसे एक साल तक की जेल हो सकती है।
जो व्यक्ति धर्म बदल रहा है उसे एक और फॉर्म भरना होगा जिसमें उसे ऊपर बताई गई सारी जानकारियां देकर एक महीने पहले जिलाधिकारी के पास जमा कर अनुमति मांगनी होगी। जिलाधिकारी के पास इसकी इजाजत देने या इनकार करने के लिए एक महीने का समय होहा। इस तरह किसी को प्रचार से इनकार करना उस व्यक्ति के अधिकारों का भी उल्लंघन है जो धर्म बदलना चाहता है। यानी कुल मिलाकर बात यह है कि जब तक सरकार इजाजत नहीं देती तब तक किसी व्यक्ति को उसी धर्म में रहना होगा जिसमें वह पैदा हुआ है।
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जिलाधिकारी को एक रजिस्टर भी रखना होगा जिसमें धर्म परिवर्तन की अर्जी देने वालों का लेखा-जोखा, यानी कितने लोगों को इजाजत दी गई, कितनी को इनकार किया गया आदि का रिकॉर्ड होगा। हर तीन महीने में इसकी जानकारी सरकार को भेजनी होगी। इस प्रक्रिया से आप अनुमान लगा सकते हैं।
जनवरी 202 में गुजरात विधानसभा में बताया गया कि बीते 5 साल के दौरान राज्य में धर्म परिवर्तन करने के लिए कुल 1,895 अर्जियां दाखिल की गई, इनमें से 889 को इजाजत देने से इनकार कर दिया गया।
सरकार ने 1006 लोगों को धर्म परिवर्तन की इजाजत दी, इनमें से लगभग सभी सूरत के दलित थे जिन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया। दलितों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने वाले दितों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है क्योंकि 2014 में उन्होंने एक सामूहिक धर्म परिवर्तन आयोजन की अनुमति नहीं दी गई। मोदी सरकार ने इस कानून में एक बदलाव करने की कोशिश की, जिसके तहत बौद्धों और जैनियों को हिंदु धर्म अपनाने या हिंदू धर्म वालों को बौद्ध या जैन धर्म अपनाने की इजाजत नहीं होगी। यानी बौद्धों और जैनियों को कानूनी तौर पर हिंदू माना जाएगा और ऐसे में वे असलियत में तो धर्म परिवर्तन नहीं कर रहे हैं। लेकिन गुजरात के जैनियों ने इसका विरोध किया कि उन्हें हिंदू धर्म के साथ क्यों जोड़ा जा रहा है, और इस संशोधन को वापस ले लिया गया।
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मैंने मिसाल सिर्फ गुजरात की दी है, लेकिन ज्यादातर राज्यों में ऐसे ही कानून हैं, जो बुनियादी अधिकार को अपराध मानते हैं।
गुजरा में कानून के तहत धर्म का प्रचार करने पर तीन साल और अगर धर्म परिवर्तन करने वाली महिला, आदिवासी या दलित हो तो 4 साल की सजा है। लेकिन जिलाधिकारी किस आधार पर धर्म के मामले में फैसला लेगा, यह स्पष्ट नहीं है। एक बार मैंने एक धर्मगुरु से इस बारे में बात की। उन्होंने कहा, भारत में धर्म को लेकर कानून एकदम तर्कहीन हैं क्योंकि धर्म की प्रकृति पर आधारिक हैं। उन्होंने कहा, “मान लो मैं ईसाई धर्म मानना छोड़ देता हूं, इसका अर्थ होगा मैं एक आस्थावान से नास्तिक बन गया हूं। इसके लिए मुझे सरकार की इजाजत चाहिए, लेकिन मैं तो पहले ही धर्म का पालन छोड़ चुका हूं।”
हाल के महीनों में बीजेपी शासित उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों ने लव जिहाद कानून पास का है, जिससे कि राज्य में धार्मिक स्वतंत्रता पर सरकार का पहरा कड़ा हो गया है। इसलिए ऐसा कहना कि भारतीयों को धार्मिक आजादी है, बिल्कुल गलत है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी की यही पृष्ठभूमि है कि, “लोगों को अपनी पसंद का धर्म चुनने की आजादी है।”
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