विचार

राम पुनियानी का लेख: बीजेपी-आरएसएस के दलित-विरोधी चेहरे को समझना दलित नेताओं के लिए जरूरी

पासवान, उदित राज और रामदास अठावले जैसे कुछ दलित नेताओं की सत्ता की भूख का लाभ उठा कर पार्टी उनका उपयोग दलितों में अपनी पैठ बनाने के लिए और अपने आप को दलितों का शुभचिंतक बताने के लिए कर रही है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया बीजेपी-आरएसएस का एजेंडा दलित-विरोधी

अत्याचार निवारण अधिनियम में अग्रिम जमानत का प्रावधान कर उसे कमज़ोर करने के प्रयास का देशव्यापी विरोध हुआ। विरोध प्रदर्शनों का मूल स्वर यह था कि बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार दलित-विरोधी है। बढ़ते विरोध के मद्देनज़र, सरकार को एक विधेयक के जरिये इस अधिनियम में संशोधन करना पड़ा। गत 6 अगस्त को लोकसभा ने सर्वसम्मति से ‘अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम 2018’ पारित कर दिया। इस अधिनियम द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा किये गए परिवर्तनों को शून्य कर दिया गया है और अब पूर्ववत, दलितों या आदिवासियों पर अत्याचार के आरोपी अग्रिम जमानत की अर्जी प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे। विधेयक पर हुए चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान, जो एनडीए का हिस्सा हैं, ने प्रधानमंत्री को धन्यवाद देते हुए कांग्रेस की निंदा की। कांग्रेस को दलित-विरोधी सिद्ध करने के लिए पासवान ने यह तर्क भी दिया कि कांग्रेस ने चुनाव में अंबेडकर के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा किया था।

पासवान की अंबेडकर की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता संदेह के घेरे में है। वे इस समय एक ऐसी पार्टी के साथ खड़े हैं, जिसका एजेंडा है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण। सामाजिक न्याय, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के हामी अंबेडकर के जीवन और विचारों में हिन्दू राष्ट्र के लिए कोई जगह नहीं थी।

पासवान घोर अवसरवादी राजनेता हैं और सत्ता में बने रहने के लिए पलटी खाने में उनका कोई जवाब नहीं है। वे किसी विचारधारा के खूंटे से बंधे नहीं हैं। सत्ता ही उनकी विचारधारा है और सत्ता ही उनका लक्ष्य है। सत्ता पाकर वे स्वयं को धन्य महसूस करते हैं।

जहां तक कांग्रेस द्वारा अंबेडकर के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करने का प्रश्न है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंबेडकर कभी भी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। और न ही हमें यह भूलना चाहिए कि इसके बावजूद भी कांग्रेस ने उन्हें अपने पहले मंत्रिमंडल में शामिल लिया और उन्हें संविधान सभा की मसविदा समिति का अध्यक्ष भी बनाया। यही नहीं, उन्हें हिन्दू कोड बिल तैयार करने की ज़िम्मेदारी भी दी गयी थी। यह बिल पारिवारिक कानूनों में संशोधन कर उन्हें लैंगिक दृष्टि से न्यायपूर्ण बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। क्या कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व की मर्ज़ी के बिना यह सब हो सकता था?

पासवान जैसे सत्ता के लोभियों, जो अंबेडकर के नाम की माला जपते रहते हैं, को क्या यह याद नहीं है कि अंबेडकर द्वारा तैयार किये गए संविधान और हिन्दू कोड बिल के सबसे कटु आलोचक और विरोधी वे लोग थे, जिनके राजनैतिक उत्तराधिकारियों की गोद में पासवान बैठे हैं। बीजेपी की हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, बाबासाहेब के स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों की धुर विरोधी है। हिन्दू राष्ट्र न तो धर्मनिरपेक्ष होगा और न ही प्रजातान्त्रिक - और धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र अंबेडकर को बहुत प्रिय थे। आरएसएस ने भारतीय संविधान को पश्चिमी बताते हुए उसकी कड़ी आलोचना की थी। बीजेपी ने संघ और उसके हिन्दू राष्ट्रवाद से अपना नाता कभी नहीं तोड़ा।

सन 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान, नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि चूंकि उनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था और चूंकि वे राष्ट्रवादी हैं, इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा था कि बीजेपी भारतीय संविधान को बदलेगी। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने धर्मनिरपेक्षता को स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा झूठ बताया था।

जहां तक दलितों का प्रश्न है, बीजेपी एक नाज़ुक संतुलन बना कर चल रही है। पासवान, उदित राज और रामदास अठावले जैसे कुछ दलित नेताओं की सत्ता की भूख का लाभ उठा कर पार्टी उनका उपयोग दलितों में अपनी पैठ बनाने के लिए और अपने आप को दलितों का शुभचिंतक बताने के लिए कर रही है। दूसरी ओर, आदित्यनाथ और हेगड़े जैसे लोगों को पार्टी का दूसरा चेहरा जनता के सामने रखने की छूट भी मिली हुई है। वोटों के खेल में जीतने के लिए बीजेपी अपने से विरोधी विचारधारा वाले अंबेडकर की शान में कसीदे भी काढ़ रही है।

ज़मीनी स्तर पर, बीजेपी-एनडीए, जिसके पासवान सदस्य हैं, ने दलितों का जीना हराम कर दिया है। सुहेल देव और शबरी माता जैसे काल्पनिक नायकों के सहारे बीजेपी दलितों के एक हिस्से को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। परन्तु इस सोशल इंजीनियरिंग के समानांतर, दलितों को दबाने-कुचलने की राजनीति भी जारी है। ऊना में दलितों के साथ जो कुछ हुआ, उसे पासवान ने एक मामूली घटना बता कर टाल दिया। परन्तु क्या यह सच नहीं है कि गौ-माता के मुद्दे के जोर पकड़ने के कारण, दलितों के एक तबके की रोजी-रोटी पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ा है? इसी सरकार के कार्यकाल में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या हुई और भीमा कोरेगांव की घटना भी। मोदी सरकार ने अत्याचार निवारण अधिनियम में संशोधन भी भारी दबाव के चलते किया। अगर तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव नज़दीक नहीं होते और अधिनियम को कमज़ोर किये जाने का इतना कड़ा विरोध नहीं हुआ होता तो शायद सरकार अब भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रहती।

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बीजेपी अंबेडकर का यशोगान करती है, परन्तु भगवान राम उसकी राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हम सब जानते हैं कि अंबेडकर राम के बारे में क्या सोचते थे। ‘रिडल्स ऑफ़ हिंदूइस्म’ में उन्होंने राम के चरित्र का विश्लेषण किया है। बीजेपी, अंबेडकर के चित्रों पर माल्यार्पण तो करना चाहती है, परन्तु सामाजिक न्याय के उनके सपने को पूरा करने में उसकी कोई रूचि नहीं है। कांग्रेस और अंबेडकर के बीच चुनावी लड़ाई की चर्चा कर राष्ट्रीय आन्दोलन और विशेषकर महात्मा गांधी और कांग्रेस की अछूत प्रथा के विरुद्ध लड़ाई के महत्व को कम करने का प्रयास है।

जहां तक अंबेडकर के सपनों को पूरा करने का सवाल है, इसके लिए हमें अभी मीलों चलना है। परन्तु जैसा कि अंबेडकर स्वयं भी कहते थे, हिन्दू राज दलितों के लिए कहर से कम न होगा।

परन्तु हम पासवान और उनके जैसे दूसरे नेताओं से यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे अंबेडकर की विचारधारा के अपने आकलन पर पुनर्विचार करेंगे और यह समझेंगे कि बीजेपी-आरएसएस के साथ जुड़ कर उन्होंने महती भूल की है क्योंकि बीजेपी-आरएसएस का एजेंडा मूलतः दलित-विरोधी है।

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