हाल के समय में भू-स्खलनों (लैंडस्लाईड्स) के समाचार तो बढ़ते ही जा रहे हैं और इनसे होने वाले तबाही भी बढ़ रही है। विशेषकर हिमालय क्षेत्र के कुछ भू-स्खलन तो बहुत डरावने रूप में सामने आए है। उधर पश्चिम घाट क्षेत्र में व विशेषकर केरल में भी भू-स्खलनों से बहुत तबाही हुई है। अनेक भू-स्खलन एक तो स्वयं बहुत तबाही करते हैं, तिस पर वे कई तरह से अन्य आपदाओं जैसे बाढ़ को अधिक उग्र करने की भूमिका भी निभाते हैं। पहाड़ों में बाहर से जाने वाले व्यक्ति प्रायः भू-स्खलन को मुख्य रूप से सड़क के यातायात को बाधित करने वाली समस्या के रूप में जानते हैं, पर इस समस्या का असली दर्द तो वहीं समझेगा जिसने पहाड़ी परिवारों के भू-स्खलन के नीचे के क्षेत्र में रहने के दर्द को देखा है।
विश्व स्तर पर भी हाल के अनुसंधान से पता चला है कि भू-स्खलनों की समस्या पहले के अनुमानों से कहीं अधिक गंभीर है। विज्ञान पत्रिका ‘ज्योलॉजी’ ने हाल ही में उपलब्ध जानकारी व आंकड़ों के आधार पर बताया है कि विश्व में भू-स्खलन के कारण होने वाली मौतों की संख्या वास्तव में पहले के अनुमानों की अपेक्षा दस गुणा अधिक हो सकती है। यह ‘डरहम फेटल लैंडस्लाईड डेटाबेस’ के आधार पर कहा गया है। जानलेवा भूस्खलनों संबंधी आंकड़ों व जानकारियों के इस कोष को ब्रिटेन के डरहम विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने तैयार किया है। जहां पहले के अनुमान बताते थे कि वर्ष 2004 और 2010 के बीच भूस्खलनों के कारण 3000 से 7000 मौतें हुईं, वहां इस नए डेटाबेस ने बताया है कि इस दौरान भूस्खलनों में 32300 मौतें हुईं।
भू-स्खलन की समस्या बढ़ने का एक बड़ा कारण पर्वतीय क्षेत्रों में हो रहा पर्यावरणीय विनाश है। जहां-जहां वृक्ष व वन काटे जाते हैं, वहां भू-स्खलन का खतरा बढ़ता है। इस स्थिति को हिमाचल प्रदेश में कालका-सोलन हाईवे पर बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है। इस हाईवे के आसपास हजारों पेड़ काटे गए तो बहुत बड़े लैंडस्लाईड आने लगे व बहुत बड़े पत्थर लुढ़क कर गिरने लगे। कारण स्पष्ट था कि पेड़ों की जड़ों ने जिस मिट्टी और पत्थरों को रोक कर रखा हुआ था पेड़ों के कटने से वह मलबा बन कर नीचे गिरने लगे। इससे सड़क पर आवागमन खतरनाक हो गया व नीचे के अनेक गांवों के लिए भी गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है।
इसके अतिरिक्त अत्यधिक खनन कार्य से भी लैंडस्लाईड का खतरा आसपास के क्षेत्र में बहुत बढ़ जाता है। खनन कार्य व अन्य कार्यों में जब डायनामाईअ का अधिक उपयोग होता है तो उससे भी अनेक पहाड़ बुरी तरह हिल जाते हैं व लैंडस्लाईड बढ़ जाते हैं। कुछ वर्ष पहले दून घाटी के अनेक गांवों में जाने पर देखा कि चूना पत्थर के खनन के कारण यहां के अनेक गांव भू-स्खलन से बुरी तरह तबाह हो गए हैं व एक छोटे गांव का तो अस्तित्व ही मिट गया है। इस खत्म हुए गांव का केवल एक व्यक्ति हमें मिला जिसने बताया कि भू-स्खलन से ऐसी स्थिति बनती थी जैसे गांव पर कोई गोले बरसा रहा हो। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने यहां खनन पर रोक लगाई और कुछ स्थानों पर उपचार के तौर पर वृक्षारोपण का कार्य भी हुआ।
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असावधानी से होने वाले सड़क निर्माण कार्य व अन्य निर्माण कार्यों से भी लैंडस्लाइड की संभावना बढ़ती है। पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क निर्माण में जिन विशेष सावधानियों की जरूरत होती है प्रायः उनका उल्लंघन होते हुए देखा गया है।
वैसे तो भू-स्खलन क्षेत्र का उपचार कर भू-स्खलन को नियंत्रित करने की अब अनेक उन्नत तकनीक अब आ गई हैं पर जब तक पर्यावरणीय विनाश बढ़ता रहेगा तब तक केवल नई तकनीकों के आधार पर भू-स्खलन की समस्या को कम करना कठिन है। भू-स्खलन के क्षेत्रों को सावधानी से चिह्नित करना चाहिए और उनका उचित उपचार करना चाहिए। पर इसके साथ पर्यावरण संरक्षण की व्यापक नीतियां भी बहुत जरूरी हैं अन्यथा नइ्र्र-नई जगहों पर भू-स्खलन होते ही रहेंगे।
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