जम्मू और कश्मीर में पीडीपी से अलग होने का ऐलान करके बीजेपी ने एक बार फिर यह संदेश देने की कोशिश की हैं कि पीडीपी घाटी में सक्रिय आतंकवादी हिंसा के मद्देनजर नरम रुख रखती है। बीजेपी ने कहा कि वह अलगाववादियों के विरुद्ध सैन्य अभियान को जारी रखना चाहती है, जबकि पीडीपी ऐसा नहीं चाहती है।
बीजेपी के लिए यह सुविधा की राजनीति है कि वह कब किस पार्टी को ‘राष्ट्रवादी’ मान लें और कब उसे ‘अलगाववाद’ का समर्थक कह दे।
देश में जिन पार्टियों को गैर-बीजेपी पार्टियां अलगाववाद का समर्थक मानती हैं, उन्हें बीजेपी राष्ट्रवादी मानती है। इसका एक उदाहरण त्रिपुरा में भी सामने आया था। देश के कई दूसरे राज्यों में भी यही देखने को मिला।
त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी ने शून्य की स्थिति से 2018 के चुनाव में सीधे दो तिहाई बहुमत हासिल कर लिया। इसका श्रेय भारतीय जनता पार्टी का आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग करने वाली पार्टी आईपीएफटी के साथ गठबंधन को दिया गया। त्रिपुरा में पच्चीस वर्षों तक सत्ता में रहने वाली पार्टी सीपीएम हमेशा आईपीएफटी या उसके जैसी आदिवासियों के बीच सक्रिय दूसरी पार्टियों को अलगाववादी पार्टी के रूप में पेश करती रही है।
सीपीएम जिन्हें अलगाववादी पार्टी मानती रही है, उन्हें बीजेपी अपने राष्ट्रवाद का हिस्सा क्यों मानती है? बीजेपी खुलेआम राष्ट्रवाद की राजनीति पर जोर देती है, लेकिन उसके चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो गैर-बीजेपी पार्टियां जिन्हें अलगाववादी या उग्रवादी मानकर उसके विरोध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही हैं, उन पार्टियों को बीजेपी ने अपना चुनावी साझेदार बनाने में कोई देरी नहीं की।
जम्मू और कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी को अलगाववादियों की समर्थक पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है। महबूबा मुफ्ती के वालिद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जब कश्मीर घाटी में राजनीतिक सक्रियता के लिए 1998 में जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का गठन किया था तो उन्होने अपनी पार्टी के गठन के बाद होने वाले चुनाव में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया था। जिन राज्यों में राष्ट्रवाद की राजनीति को लेकर असंतोष रहा है, उन राज्यों में स्थानीय राष्ट्रवाद के स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व के लिए हथियारबंद संगठन खड़े हुए हैं। उन्हें अपनी मांगों को लेकर लोगों के एक हिस्से का समर्थन भी हासिल रहा है। इस समर्थन को ही अपना आधार बनाने के लिए मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपनी पार्टी बनाई और चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया। लेकिन 2014 के चुनाव के माहौल में राष्ट्रवादी होने की दावेदार पार्टी बीजेपी ने इस पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया और सरकार भी बना ली।
पंजाब में भी जिस समय सिख असंतोष जोरों पर था और सरकार और दूसरी तमाम पार्टियां सिख असंतोष को एक स्वतंत्र देश खालिस्तान की मांग करने वाली रा-ष्ट्रविरोधी अभिव्यक्ति के रूप में पेश कर रही थी, उस समय सिखों की राजनीति करने वाली पार्टी अकाली दल ने चुनाव वहिष्कार का नारा दिया था। चुनवा बहिष्कार की नीति राज्यों में पार्टियां इसीलिए अपनाती रही है ताकि इससे वे हथियारबंद संगठनों की राजनीतिक मांगों के प्रति सकारात्मक रुख रखने वालों के बीच अपना आधार बना सकें। चुनाव बहिष्कार वैसे समर्थकों के बीच पैठ जमाने का पहला कदम माना जाता है।
दूसरे शब्दों में ये भी कहा जा सकता है कि इन पार्टियों ने जब अपने मतदाताओं को पूरी तरह संतुष्ट रखने में विफलता की स्थिति देखी और उनका झुकाव हथियारबंद संगठनों की तरफ देखा तो उन्हें अपने अस्तित्व के लिए चुनाव बहिष्कार की नीति के जरिये अपने मतदाताओं के करीब दिखना जरूरी लगा। पंजाब में भी जिस अकाली दल पर सिख अलगाववादियों के करीब होने का आरोप लगाया जा रहा था, उसके साथ भी भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी गठबंधन कायम कर लिया।
राजनीतिक विश्लेषण यह बताता है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की नीति की यह बुनियादी बात है कि वह अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने वाले नारों का तमाम राजनीतिक प्रक्रियाओं पर दबाव बनाता है। राजनीति का हिन्दूत्वकरण करना होगा, इस नारे का उद्देश्य पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का हिन्दुत्वकरण करना है। इसी तरह वह राष्ट्रवाद को भी अपने राजनीतिक विस्तार का एक मुख्य नारा मानता है। राष्ट्रवाद के नारे के पीछे जब तमाम तरह की राजनीतिक शक्तियां लग जाती हैं तो वह अपने इस नारे को सत्ता की शक्ल में तब्दील करने की योजना में लग जाता है।
मजेदार बात यह दिखती है कि दूसरी पार्टियां राष्ट्रवाद के नारे से इतना ज्यादा आतंकित हो जाती हैं कि वे खुद को राष्ट्रवाद की अगुवाई करने वाली पार्टी के रूप में दिखाने की कोशिश करने लगती है। जिस तरह हिन्दूत्व के नारे के प्रभाव के कारण कई राजनीतिक पार्टियों को भी अपने हिन्दू-विरोधी नहीं होने की सफाई देनी पड़ती है जो धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को सबसे अहम मानती रही हैं। इनमें कांग्रेस से लेकर वामपंथी पार्टियां सभी शामिल हैं। वामपंथ पंजाब में राष्ट्रवाद के लिए अपनी शहादतों पर गर्व करता है। राष्ट्रवाद की अगुवाई करने में जब पार्टियां लग जाती है तो राष्ट्रवादी संघ की पार्टी बीजेपी उन राजनीतिक शक्तियों के साथ चुनावी तालमेल करने में सक्रिय हो जाती है जिन्हें ‘अलगाववादी राष्ट्रवाद’ का समर्थक माना जाता रहा है।
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त्रिपुरा में वामपंथ ने राष्ट्रवाद को इसी नजरिये से देखा और वहां आदिवासियों के असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में जन्मे संगठनों को अलगाववादी के रूप में देश के सामने पेश करता रहा। जबकि दूसरी तरफ वह अपनी विचारधारा का जनपक्षीय चेहरा बनाने के लिए आदिवासियों और दलितों के चेहरों को ही प्रस्तुत करता रहा है। राजनीतिक पर्यवेक्षक बताते हैं कि राष्ट्रवाद को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में राष्ट्रवादी दिखने की कोशिश करना दरअसल उस राष्ट्रवाद के पीछे चले जाना है जिसका विरोधी होने का स्वर उनके बीच सुनाई पड़ता है। अपनी वैचारिकी के आधार पर राष्ट्रवाद की नीति को छोड़ना और प्रतिक्रिया वाले राष्ट्रवाद के विमर्श में घुसपैठ की कोशिश ही राजनीतिक विचलन होती है।
एक विश्लेषण के रूप में ये सामने आता है कि पंजाब में आरएसएस और वामपंथी पार्टियों के राष्ट्रवाद में कोई अंतर नहीं दिखता है। चुनावी राजनीति में ये दिखता है कि संघ की पार्टी बीजेपी ने अकाली दल के साथ अपने चुनावी रिश्ते बनाकार अपने राष्ट्रवाद की जमीन को पुख्ता कर लिया हैं। इस कदर पुख्ता कर लिया है कि पंजाब में कांग्रेस की सरकार को भी अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए खालिस्तान के खतरे को बार-बार पेश करना पड़ता है। कांग्रेस के लिए यह सुरक्षा कवच वाला राष्ट्रवाद तैयार करता है।
उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी बीजेपी का गठबंधन जिन स्थानीय पार्टियों के साथ होता रहा है, यदि उसका अध्ययन करें तो ऐसी ही राजनीतिक प्रवृति उभरकर सामने आती है।
अब अगले चुनाव के मद्देनजर जम्मू-कश्मीर में बीजेपी अपने राष्ट्रवादी आधार को ठोस कर लेना चाहती है। सवा तीन साल तक सत्ता में रहने के बाद बीजेपी को पीडीपी सैन्य अभियान विरोधी नजर आने लगी है।
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