आज से पंद्रह साल पहले 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर एक भयावह आतंकी हमला हुआ था। हथियारों से लैस दस आतंकी समुद्र के रास्ते मुंबई पहुंचे और उन्होंने बेरहमी से मुंबई के 237 निर्दोष नागरिकों का क़त्ल कर दिया। इस हमले में महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते के मुखिया हेमंत करकरे सहित तीन पुलिस अधिकारी मारे गए। आज जब हम इस हमले, जिसे 26/11 का नाम दिया दिया है, को याद कर रहे हैं, उसी समय हमास के आतंकी हमले और इजरायल के गैर-जिम्मेदाराना जवाबी हमले की चर्चा भी चल रही है।
पंद्रह साल पहले मुंबई पर हुए हमले के पीछे पाकिस्तान में अड्डा जमाए लश्कर-ए-तैय्यबा का हाथ था। उसके बाद से पश्चिम एशिया में तालिबान, आईएसआईएस और आईएस ने कई आतंकी हमले किये। भारत में कश्मीर में भी आतंकी घटनाएं हुईं, जिनकी जड़ में जटिल राजनैतिक कारण हैं।
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इनमें से अधिकांश संगठन इस्लामिक पहचान से जुड़े हुए हैं मगर इनके हिंसा का रास्ता अपनाने के पीछे के कारण अलग-अलग हैं। हमास के जन्म के पीछे इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के साथ किये गए अन्याय हैं। इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक प्रस्तावों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया। कश्मीर के घटनाक्रम के पीछे भी राजनैतिक कारण हैं, हालांकि उनकी प्रकृति एकदम अलग है। अल-कायदा और आईएस, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में स्थापित किये गए प्रशिक्षण केन्द्रों की उपज हैं। इन अलग-अलग कारकों को नजरअंदाज करते हुए मीडिया का एक हिस्सा और कई राजनैतिक विश्लेषक सभी आतंकी घटनाओं और संगठनों को इस्लामिक कट्टरपंथ से जोड़ रहे हैं।
यह ठीक नहीं है। आतंक की जड़ में इस्लाम नहीं है, बल्कि इसके पीछे जटिल राजनैतिक कारक हैं। इनमें से एक है एक वैश्विक महाशक्ति द्वारा कच्चे तेल के भंडारों पर कब्जा जमाने का प्रयास। साम्राज्यवादी देश और उनके सहयोगी, तेल संपदा पर काबिज होना चाहते हैं। अमेरिका ने सीआईए और अभी हाल तक उसका पिट्ठू रहे पाकिस्तान, के ज़रिये कई इस्लामिक कट्टरपंथी समूहों को पाला-पोसा है। अमेरिका तेल का भूखा है और इसलिए पश्चिम एशिया में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है। कई टिप्पणीकारों ने सीआईए के दस्तावेजों के हवाले से यह बताया है कि अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी ने मुजाहीदीन की ट्रेनिंग के लिए धन उपलब्ध करवाया, जिसके नतीजे में पहले अल कायदा और फिर आईएसआईएस अस्तित्व में आए।
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महमूद ममदानी की पुस्तक ‘गुड मुस्लिम-बैड मुस्लिम’ के अनुसार अमेरिका ने इस परियोजना पर 800 करोड़ डालर खर्च किए और मुजाहिदीनों को 7,000 टन हथियार उपलब्ध करवाए। हिलेरी क्लिंटन ने बिना किसी लाग-लपेट के यह स्वीकार किया था कि अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जे का प्रतिरोध करने के लिए अमेरिका ने अल कायदा को खड़ा किया। रूसी सेना की अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जानबूझकर हमें यह नहीं बताता कि अल कायदा और उसकी तरह के अन्य संगठनों के लड़ाकों का प्रशिक्षण अमेरिकी धन से पाकिस्तान में स्थापित किए गए मदरसों में हुआ था और ये लड़ाके बाद में पाकिस्तान के लिए ही भस्मासुर बन गए। इन आतंकी संगठनों के सबसे ज्यादा शिकार मुसलमान ही बने।
कश्मीर की समस्या के पीछे अलग कारण हैं। 1950 और 1960 के दशक में अनुच्छेद 370 के अंतर्गत कश्मीर को दी गई स्वायत्ता को धीरे-धीरे कम करने की कवायद शुरू हो गई। इससे असंतुष्ट युवाओं की एक नई पीढ़ी तैयार हुई, जिसने पाकिस्तान की आईएसआई की मदद से घाटी में हिंसा शुरू कर दी। आईएसआई को अमेरिका का समर्थन प्राप्त था। सन् 1990 के दशक में अल कायदा और उसके जैसे अन्य संगठनों ने कश्मीर में घुसपैठ कर ली। इसका नतीजा यह हुआ कि जो प्रतिरोध कश्मीरियत (बौद्ध, वेदांतिक और सूफी परंपराओं का संश्लेषण) पर आधारित था उसने सांप्रदायिक स्वरूप अख्तियार कर लिया और कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाने लगा। कश्मीर में आतंकवाद के पीछे राजनैतिक कारण थे मगर हिंसा करने वालों ने धर्म का लबादा ओढ़ रखा था।
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हमास का मामला इन सबसे अलग है। यहूदीवादियों ने पहले फिलिस्तीन की भूमि पर बसना शुरू किया और फिर धीरे-धीरे पूरे देश पर कब्जा करते गए। उन्होंने फिलिस्तीनियों के प्रजातांत्रिक प्रतिरोध का गला घोंट दिया। हालात यह हो गए कि फिलिस्तीन की कुल आबादी का 30 प्रतिशत होते हुए भी यहूदी वहां की 55 प्रतिशत भूमि के मालिक बन गए। इसके बाद दो किश्तों में यहूदियों ने फिलिस्तीन की 90 प्रतिशत जमीन पर कब्जा कर लिया।
यहूदीवादियों ने फिलिस्तीन पर बेजा कब्जा किया है। वे कुछ प्राचीन धार्मिक पुस्तकों के आधार पर यह दावा करते हैं कि वे फिलिस्तीन के हैं और फिलिस्तीन उनका है। वे अपने कब्जे की भूमि का विस्तार करते गए और आज गाजा पट्टी एक खुली जेल बन गई है और पश्चिमी किनारे में रहने वाले अरब लोगों को ढेर सारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है।
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फिलिस्तीनी समूहों, अल कायदा और तालिबान- तीनों को इस्लामिक आतंकवाद का प्रतीक बताया जाता है। यह एकदम आधारहीन है। इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर शोर मचाना अमेरिकी मीडिया ने 9/11 के बाद शुरू किया था। इसी दुष्प्रचार के बहाने अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और वहां के 60 हजार लोगों की जान ले ली। कच्चे तेल के भंडारों पर कब्जा करने की अपनी लिप्सा के चलते अमरीका ने ईराक पर हमला किया। बहाना यह बनाया गया कि महासंहारक अस्त्र बनाए जा रहे हैं, जबकि ऐसा कुछ नहीं था। अमेरिका ने दावा किया था कि ईराक के नागरिक उसकी सेना का फूलों और चाकलेटों से स्वागत करेंगे। हुआ यह कि स्थानीय लोगों ने अमेरिका का जबरदस्त विरोध किया और इसके नतीजे में इस्लामिक स्टेट अस्तित्व में आया।
26/11, 2008, भारत और पाकिस्तान के आपसी बैर का नतीजा था। पाकिस्तान में सेना का वर्चस्व था और वह अमेरिका के प्रभाव में था। और इसी के चलते उसने लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी समूहों को पनाह दी और इनका इस्तेमाल पाकिस्तान और भारत के बीच की खाई को और चौड़ा करने के लिए किया। जब भी पाकिस्तान की नागरिक सरकार भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने का प्रयास करती थी, सेना के जनरल परेशान हो जाते थे। वे नहीं चाहते थे कि सरहद पर अमन हो। इसी के चलते परवेज मुशर्रफ ने कारगिल पर हमला किया और इसी कारण 26/11 हुआ।
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26/11 के दौरान महाराष्ट्र के आईपीएस अधिकारी हेमंत करकरे की जान गई। वे मालेगांव से लेकर समझौता एक्सप्रेस तक हुए आतंकी हमलों की जांच कर रहे थे और इस सिलसिले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी असीमानंद और लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को गिरफ्तार किया गया था। साध्वी अब भी जमानत पर हैं और उनका दावा है कि उन्होंने हेमंत करकरे को श्राप दिया था जिसके कारण वे मारे गए। 26/11 की त्रासदी को याद करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसमें हेमंत करकरे सहित तीन पुलिस अधिकारी मारे गए थे। यह सोचना कि इस हमले के पीछे कोई धर्म था, बचकाना होगा।
कुल मिलाकर हर आतंकी हमले और हर आतंकी संगठन के लिए इस्लामिक कट्टरवाद को दोषी ठहराना अमेरिका और उसके मित्र देशों के जाल में फंसना होगा। इन देशों ने पश्चिम एशिया को बर्बाद कर दिया है। मीडिया को चाहिए कि वह इन हमलों और इन संगठनों की गहराई से पड़ताल करे। आतंकवाद का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। उसके पीछे राजनैतिक कारण हैं। आईरिश रिपब्लिकन आर्मी से लेकर लिट्टे तक के बारे में यह सही है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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