2014 के लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण का मतदान खत्म होने के बाद लखनऊ से दिल्ली की उड़ान में मुझे आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार के रूप में एक दिलचस्प सहयात्री मिले। मैंने उनसे पूछा कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी चुनाव जीतती है, तो सरकार से उनकी क्या उम्मीदें हैं। जवाब मिला, “हिंदू आतंकी बताए जाने वाले सभी मामलों में क्लोजर रिपोर्ट हासिल करना।” इंद्रेश खुद अजमेर विस्फोट मामले में स्वामी असीमानंद और मध्य प्रदेश के संघ प्रचारक सुनील जोशी के साथ आरोपी थे। और मोदी ने आखिर अपने संघ के भाइयों के लिए ऐसा ही किया।
दस साल बाद, मैं मोदी को लेकर दिया इंद्रेश कुमार का बयान पढ़कर आश्चर्यचकित रह गया: “भगवान राम ने बीजेपी को उसके अहंकार के सिर्फ 240 सीटों (बहुमत से 32 कम) तक सीमत कर दंडित किया है”।
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यह दोनों उदाहरण बीते एक दशक में बीजेपीा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच रिश्तों में आए बदलाव का निचोड़ हैं। जिस आरएसएस ने बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए अथक प्रयास किया, वही अब राजनीति में जो कुछ भी गलत हो रहा है, उसके लिए उसे दोषी ठहरा रहा है।
अब यह दोनों के बीच की चलने वाली अनवरत लड़ाई बन चुकी है, भले ही खुलकर सामने न आई हो। फिलहाल तो यह परदे के पीछे से और प्रतीकों के सहारे ही लड़ी जा रही है। बीजेपी खुद को बाघ के उस बच्चे जैसा समझती है जो वयस्क हो चुका है और अब उसे अपनी मां की मदद की जरूरत नहीं रही। संघ को भी लगता है कि बीजेपी में इतना ज्यादा निवेश कर देने के बाद अब उसकी पकड़ ढीली पड़ गई है और शावक उसके दांतों तले दबा हुआ है।
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मोदी के उत्थान में संघ प्रमुख मोहन भागवत की सक्रिय भूमिका रही है: पहले बीजेपी की अभियान समिति के प्रमुख के तौर पर, और फिर 2013-14 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्हें पेश करके। लेकिन यह भी सच है कि मोदी ने पिछले 10 वर्षों में भागवत के साथ कभी भी आमने-सामने मुलाकात नहीं की। अयोध्या में राम मंदिर उद्घाटन के मौके पर ऐसी बैठक के उनके अनुरोध को मोदी ने ठुकरा दिया था।
दोनों संगठनों के बीच त्याग के साथ आगे बढ़ने में मददगार रही वह सहजीवी डोर अब उनके बीच एक ऐसी उलझन बन चुकी है जिसे सुलझाना जरूरी है। शीर्ष नेतृत्व के करीबी बीजेपी के एक नेता के मुताबिक, “यह दो नेताओं के लिए करो या मरो की लड़ाई है। बीच का कोई रास्ता नहीं बचा है।”
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हर कोई जानता है कि संघ लोकसभा चुनावों में कभी भी मोदी-केंद्रित अभियान के पक्ष में नहीं था। वह सरकार की उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं पर केंद्रित प्रचार अभियान चाहता था। फिर भी, बीजेपी नेता अपने ‘मोदी की गारंटी’ अभियान के साथ आगे बढ़े। यही कारण रहा कि प्रथम चरण के मतदान के बाद संघ ने अपने कदम थोड़ा पीछे जरूर खींचे लेकिन तत्काल अपनी चिंता न जताकर चुनावी नतीजों की प्रतीक्षा करना बेहतर समझा।
संघ का मिजाज भांपते हुए बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने यह मुद्दा अपने इस बयान के साथ सार्वजनिक कर दिया कि, “शुरुआत में, बीजेपी इतनी मजबूत नहीं थी, इसलिए हम संघ पर आश्रित रहे। लेकिन अब बीजेपी अपनी राह पर आगे निकल चुकी है और उसे संगठन चलाने या चुनाव लड़ने में संघ के सहारे की जरूरत नहीं रही।”
चुनाव के बाद अब बीजेपी को संघ को उसी अंदाज में जवाब दे रहा है। जब भागवत ने कहा, “एक सच्चा आरएसएस कार्यकर्ता कभी अहंकारी नहीं होता”, तो साफ था कि उनके निशाने पर मोदी थे। संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में इसके थिंक टैंक के सदस्य रतन शारदा के लेख में भी अभियान अपने इर्द-गिर्द केंद्रित रखने के लिए मोदी पर हमला किया गया। और कहा गया कि बीजेपी अति-आत्मविश्वास (मोदी पर) के कारण हारी।
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इस महीने की शुरुआत में झारखंड के दुमका में संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए भागवत ने कहा था, “विकास का कोई अंत नहीं है, चाहे वह आंतरिक हो या बाहरी। ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अभी तक इंसान बनना भी नहीं सीखा है जो सुपरमैन बनना चाहते हैं। लेकिन वह यहीं नहीं रुकते, वह देवता बनना चाहते हैं। लेकिन फिर, ईश्वर महान है, इसलिए वे स्वयं ईश्वर बन जाना चाहते हैं। और फिर ईश्वर कहते हैं, मैं सर्वव्यापी (विश्वरूप) हूं।”
यहां याद दिला दें प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में संपन्न चुनावों से पहले कहा था, “जब तक मेरी मां जीवित थीं, मुझे लगता था कि शायद मेरा जन्म जैविक रूप से हुआ था... लेकिन उनकी मृत्यु के बाद मैं मान चुका हूं कि मुझे ईश्वर ने यहां भेजा है।”
अब अगर किसी को इस बात पर शक रहा हो कि भागवत किसे निशाना बना रहे थे, तो कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने यह कहकर धुंधलका छांट दिया: “मुझे यकीन है कि स्व-घोषित गैर-जैविक प्रधानमंत्री को अब तक नागपुर (संघ मुख्यालय) द्वारा लोक कल्याण मार्ग (प्रधानमंत्री आवास) पर दागी गई नवीनतम अग्नि मिसाइल के बारे में पता चल गया होगा।”
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संघ नियमित रूप से बीजेपी समेत अपने अनुषांगिक संगठनों के लिए अपना कैडर तैयार करता रहा है। किसी भी मंत्री, सांसद और विधायक के स्टाफ में संघ का एक कार्यकर्ता होना अनिवार्य होता है। संघ अपने सचिवों के जरिये बीजेपी के संगठन का प्रबंधन करता रहा है, मसलन- सुरेश सोनी (अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में), राम लाल, डॉ. कृष्ण गोपाल और अरुण कुमार (मोदी के दौर में)। राज्य से लेकर जिला मुख्यालय तक हर जगह एक ही व्यवस्था लागू है, और दोनों संगठनों के कार्यकर्ता आपस में इस तरह घुले-मिले हैं जैसे पानी में चीनी। ऐसे में क्या संघ अपने सारे कैडर को अचानक या धीरे-धीरे बीजेपी से बाहर निकाल सकता है?
साफ बात है कि ‘नहीं’। अब वह इसके लिए स्पष्ट अपील भी जारी करे, तब भी उसके कैडर का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक संगठन में बने रहना पसंद कर सकता है। अरुण कुमार और सुरेश सोनी जैसे संघ के नेता मोदी के प्रति सहानुभूति रखने वाले माने जाते हैं। सोनी पिछले 10 वर्षों में केंद्र द्वारा लिए गए प्रमुख राजनीतिक फैसलों पर मोदी के सलाहकार रहे हैं। उम्मीदवारों के चयन और सरकार में प्रमुख पदों पर नियुक्तियों में बीजेपी के ओबीसी समर्थक रुख के वास्तुकार वही हैं।
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इतना सब होने के बावजूद, दोनों संगठनों की कई राज्य इकाइयां परस्पर सहयोग कर रही हैं। झारखंड में संघ की इकाई ने विधानसभा चुनावों में बीजेपी को पूरा सहयोग करने का वादा किया है। यह मानते हुए कि अपने पूरे कैडर को नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है और बीजेपी के साथ खुली लड़ाई से 99 साल पुराने संगठन में विभाजन हो सकता है, आरएसएस नेतृत्व धीरे-धीरे बीजेपी नेतृत्व को अहंकारी और निष्ठाहीन साबित करने के लिए उस पर हमले कर रहा है।
बीजेपी को भी इसका अहसास है। लोकसभा में बीजेपी की सीटें 302 से घटकर 240 रह गई हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में, वह पहले की तुलना में बहुत कम अंतर से जीत सकी। पार्टी कर्नाटक और तेलंगाना चुनाव हार गई। अगले कुछ महीनों में उसे महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का सामना करना है। इनमें से किसी भी राज्य में उसके लिए हालात सहज तो नहीं ही हैं।
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बीजेपी के हाल के कुछ फैसलों से साफ होता है कि बीजेपी अपने तौर पर संघ को खुश करने की कोशिशों में क्यों लगी है। इस महीने की शुरुआत में, 58 साल पुराने उस सरकारी आदेश को केंद्र ने चुपके से रद्द कर दिया जो सरकारी कर्मचारियों को संघ की शाखाओं में भाग लेने से प्रतिबंधित करता था। इस फैसले के समय को लेकर कई सवाल खड़े हुए। इसे तो पिछले 10 वर्षों के दौरान कभी भी रद्द किया जा सकता था। यह घोषणा अगले वर्ष इसके शताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में, उस समय भी की जा सकती थी। अभी ही क्यों, जब दोनों के बीच रिश्ते टूटने की हद तक तनावपूर्ण हैं? इसका सिर्फ एक ही कारण हो सकता है: भड़की हुई आग को शांत करना...!
यह पहली बार नहीं है कि बीजेपी के साथ संघ के रिश्ते तनावपूर्ण हुए हैं। प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के छह वर्षों के कार्यकाल में दोनों संगठन दो ध्रुवों पर थे। इस हद तक कि संघ पदाधिकारियों ने यशवंत सिन्हा को अर्थशास्त्री के बजाय विनाशवादी, ‘अर्थ मंत्री’ (वित्त मंत्री) के बजाय ‘अनर्थ मंत्री’ और वाजपेयी को “भारत का अब तक का सबसे खराब प्रधानमंत्री” तक कहा। उन्होंने भारत के आर्थिक उदारीकरण, सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण और यहां तक कि पाकिस्तान प्रस्ताव का भी विरोध किया। विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या में राम शिला पूजन यात्रा निकाली।
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लेकिन मोहन भागवत की तुलना में तत्कालीन संघ प्रमुख के एस सुदर्शन कहीं अधिक अ-राजनीतिक और उदारवादी थे। उन्होंने कभी भी वाजपेयी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश नहीं की बल्कि इसके बजाय इसके अपनी ही गलतियों के बोझ तले दबने का इंतजार किया। असल चिंतन 2004 में वाजपेयी सरकार के पतन के बाद शुरू हुआ। 2006 में चित्रकूट में हुई एक बैठक में संघ के शीर्ष पदाधिकारियों ने गंभीरता के साथ ‘पटरी से उतर चुकी’ बीजेपी को छोड़ने और इसके बदले एक नया राजनीतिक संगठन तैयार करने पर विचार किया जो संघ के आदर्शों का पालन करता।
लेकिन वह प्रस्ताव इसमें लगने वाले समय के कारण खारिज कर दिया गया। इसके बजाय, बीजेपी में सुधार करने और इसे संघ की वैचारिक राह पर वापस लाने का निर्णय लिया गया। बीजेपी को दोबारा सत्ता में लाने में करीब सात साल लग गए। इसका क्या और कितना लाभ हुआ, यह गुणा-गणित होना अभी बाकी है।
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उत्तर प्रदेश में नेतृत्व का मुद्दा एक और जटिल मुद्दा है। 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में प्रचंड जीत के बाद संघ ने मोदी-शाह की जोड़ी को मोदी की पसंद (मनोज सिन्हा) के बजाय योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री चुनने के लिए मजबूर किया था। संघ को मोदी के अलावा हिन्दुत्व के एक और शुभंकर की जरूरत थी। लेकिन जैसे-जैसे योगी की लोकप्रियता पूरे देश में बढ़ती गई, वैसे-वैसे दोनों संगठनों के बीच मतभेद भी बढ़ने लगे।
मोदी-शाह की टीम ने पिछले सात सालों में योगी की राह में मुश्किलें बोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसमें दो उप-मुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली बैठकों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित करना भी शामिल था। यह घोर अनुशासनहीनता थी, फिर भी पार्टी ने कार्रवाई से परहेज किया।
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योगी आदित्यनाथ ने कमर कस ली है। बिना लड़े वह अपनी कुर्सी नहीं छोड़ने वाले। बीजेपी ऐसे कई फार्मूलों पर काम कर रही है कि ज्यादा नुकसान भी न हो और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाय। इनमें से एक तरीका ‘गुजरात मॉडल’ की नकल भी है जिसमें मुख्यमंत्री और पार्टी संगठन सहित पूरे मंत्रालय को एक झटके में बदल दिया गया था। बीजेपी योगी, पाठक, मौर्य और प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी की जगह पूरी तरह से नए और अज्ञात चेहरों पर दांव खेल सकती है जैसा कि वे राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गुजरात और मध्य प्रदेश में पहले ही कर चुके हैं।
यह फिलहाल इंतजार करने का समय है। देखें कि ऐसा कोई निर्णय कब लिया जाता है और उस पर योगी आदित्य नाथ और संघ किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं।
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