इस साल जब हममें से बहुत भारतीय ‘भारत के विचार’ से बढ़ते अलगाव को देखकर असहज महसूस कर रहे हैं, तो आखिर स्वतंत्रता दिवस कौन मनाएगा? आखिर कैसे एकजुट और समृद्ध भारत का सपना हिंसा, घृणा, विनाश और मृत्यु के कभी न खत्म होने वाले चक्रों के दुःस्वप्न में बदल गया?
एक नजर डालते हैं वादे और धोखे पर। ब्रिटिश भारत के विभाजन के दर्द और इसकी भयावहता के बावजूद 15 अगस्त, 1947 को औपनिवेशिक शासन का अंत और आजादी की दिशा में हम सब की सामूहिक यात्रा शुरू हुई। हममें से जो लोग आजादी के बाद के उन शुरुआती दिनों में बड़े हो रहे थे, उनके लिए यह यात्रा उम्मीदों से भरी थी जिसमें एक महान भविष्य का वादा था। हममें से कई लोगों के माता-पिता ने आंदोलन में भाग लिया था, कुछ को जेल जाना पड़ा था और बड़ी तादाद में लोगों को तरह-तरह की तकलीफ झेलनी पड़ी थी। हमने जो भी किया, उसके पीछे हमारा यह उत्साह था कि भारत दुनिया के लिए एक प्रेरणा बनकर उभरे, खासकर तीसरी दुनिया के लोगों के लिए, जो तब भी औपनिवेशिक प्रभुत्व के अपमान के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। ऐसा महसूस हो रहा था कि हम लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे बड़े प्रयोग में भाग ले रहे हैं।
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पहला प्रयोग सार्वभौम मताधिकार का था। यह जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने 1928 से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का समर्थन किया था। वह उनके खिलाफ गए जिन्होंने कहा था कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार अव्यावहारिक होगा।
स्वतंत्र भारत में 1951 में हुए पहले चुनाव में 17.3 करोड़ लोग वोट देने के पात्र थे; उनमें से ज्यादातर बहुत गरीब और अशिक्षित थे और उनमें भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जिनके लिए यह एक नई बात थी कि उनके पास गुप्त मतदान के जरिये अपने प्रतिनिधियों को चुनने की ताकत है। नवगठित चुनाव आयोग ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई और इसे देश भर के 3,000 से अधिक सिनेमाघरों में दिखाया। 2,24,000 से अधिक मतदान केन्द्र बने, लगभग 1,000 मतदाताओं पर एक। लगभग 6,20,000,000 बैलट पेपर छापे गए। लगभग दस लाख अधिकारियों ने पहले आम चुनाव की निगरानी की, जो 25 अक्टूबर, 1951 से 27 मार्च, 1952 तक चार महीने की अवधि में आयोजित किए गए थे। 53 राजनीतिक दलों के 1,874 उम्मीदवार मैदान में थे। पूरे भारत में इन 2,24,000 मतदान केन्द्रों की निगरानी 56,000 पीठासीन अधिकारियों ने की। निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता सूची को संकलित और टाइप करने के लिए अनुबंध पर 16,500 क्लर्कों को नियुक्त किया गया था।
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लेकिन उस क्षण भी जब हम पहले आम चुनावों की सफलता का जश्न मना रहे थे और दुनिया हमें एक चमकदार उदाहरण के रूप में देख रही थी, आने वाली अशुभ घटनाओं के बीज बोए जा चुके थे।
देश में लगभग आठ करोड़ महिला मतदाता थीं लेकिन लगभग 28 लाख वोट नहीं डाल सकीं क्योंकि स्थानीय प्रथा उन्हें बाहरी लोगों के सामने अपना नाम बताने से रोकती थी। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की महिलाएं सबसे ज्यादा नुकसान में रहीं।
स्थिति अब भी चिंताजनक है। इस तथ्य के बावजूद कि महिलाओं ने प्रगति की है, उन्हें समानता के अधिकार और यहां तक कि सम्मान के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। बड़ी तादाद ऐसी महिलाओं की है जो हिंसक अपराधों, यौन उत्पीड़न की शिकार होती हैं और अगर वे शिकायत करती भी हैं तो उन्हें इंसाफ मिलने की उम्मीद बहुत कम होती है।
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जब भारत अपने पहले सफल आम चुनाव का जश्न मना रहा था, तब ज्यादातर नागरिकों को पता नहीं था कि नगाओं ने एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता प्राप्त करने की अपनी मांग के समर्थन में चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया था। पहचान की राजनीति के कारण आत्मनिर्णय की मांगों का प्रसार हुआ और जातीय संघर्षों के कारण पूरे पूर्वोत्तर में सशस्त्र समूहों का विस्तार हुआ। लेकिन उनसे निपटने की कोई नीति नहीं थी, केवल सैन्य बल से इन विद्रोहियों को दबाने का प्रयास किया गया।
बताया जाता है कि सबसे ज्यादा बंदूक लाइसेंस मणिपुर और नगालैंड में जारी किए गए हैं। इस बंदूक संस्कृति का परिणाम आज मणिपुर में देखा जा सकता है। मणिपुर नफरत की आग में झुलस रहा है और दो समुदाय एक-दूसरे को खत्म करने पर तुले हैं। जिन्होंने हिंसा में अपने परिवार के सदस्यों को खोया है, जिन्हें मणिपुर छोड़ना पड़ा है, जो बंदूकों के साथ अपने गांवों की रक्षा कर रहे हैं और जो बिना बुनियादी सुविधाओं वाले 300 राहत शिविरों में रह रहे हैं, वे क्या स्वतंत्रता दिवस मना सकेंगे?
आम चुनावों के बमुश्किल दो साल बाद जब कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला गुलमर्ग में थे तो उन्हें बेरहमी से नींद से जगाते हुए बताया गया कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। 1975 में उनके और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच एक समझौते के बाद रिहा होने से पहले उन्हें ढाई दशक हिरासत में बिताने पड़े।
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हालांकि अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया गया और कश्मीरी यह जानते हुए सड़कों पर नहीं उतरे कि सुरक्षा बलों की प्रतिक्रिया क्रूर होगी। लेकिन उन्होंने हजारों सेबों को पैक करके जम्मू भेजने से पहले उन पर ‘आजादी’ जरूर लिख दी। वे भी भारतीय स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे क्या?
भारतीय स्वतंत्रता के ठीक दो साल बाद एक आपराधिक कृत्य हुआ जिसने पूरे भारत में रहने वाले मुस्लिम नागरिकों को अलग-थलग कर दिया। दिसंबर, 1949 में उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर अयोध्या में कुछ लोगों ने एक मस्जिद में घुसकर भगवान राम की मूर्तियां स्थापित कर दीं। तुरंत आईआर की गई और फरवरी, 1950 में आरोपपत्र दायर किया गया।
जाहरलाल नेहरू ने राज्य के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत से मूर्तियों को तुरंत हटाने के लिए कहा; लेकिन पंत की नजर आने वाले चुनावों पर थी और मस्जिद को सील करने के बावजूद मूर्तियां नहीं हटाई गईं। फिर, दिसंबर, 1992 में मस्जिद को ही ढहा दिया गया। 2019 में सुप्रीम कोर्ट के विवादास्पद फैसले ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती दरार को खाई में बदल दिया जिसपर कोई पुल नहीं बनाया जा सका।
मुस्लिमों के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं और जो लोग भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक के खिलाफ हिंसा करते हैं, उन्हें मानो अभियोजन से छूट मिली हुई है। जैसे-जैसे मुसलमान भारत के विचार से दूर होते जा रहे हैं, उनके पास भी स्वतंत्रता दिवस मनाने का कोई कारण नहीं रह गया है।
लेकिन क्या हिन्दू भारतीय स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे? जिनके पास रोजगार नहीं हैं और जो संविधान के तहत गारंटीकृत बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं, उनमें भी ज्यादातर के पास स्वतंत्रता दिवस मनाने की कोई वजह नहीं है।
नरेन्द्र मोदी ने 10 करोड़ विनिर्माण नौकरियां जोड़ने का वादा किया था लेकिन हकीकत यह है कि जो नौकरियां थीं, उनमें से भी 2017 और 2021 के बीच 24 लाख कम हो गईं। 2019 में रेलवे की 35,000 नौकरियों के लिए 1.25 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था।
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फिर, मुझे दिल्ली में काम करने वाले बिहारी प्रवासी मजदूर रामपुकार पंडित का चेहरा दिखाई देता है। वह आज के भारत का चेहरा हैं। लॉकडाउन के समय वह दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर बैठ गए थे क्योंकि पुलिस ने उन्हें गांव जाने से रोक दिया था। उनके पास न पैसा था, न खाना। बस एक मोबाइल था जिससे अपने परिवार से जुड़ा हुए थे। परिवार ने उन्हें बताया कि उनका बेटा मर रहा है। रामपुकार बेटे को अंतिम बार देखने के लिए समय पर नहीं पहुंच सके। वह प्रवासी श्रमिक हैं जिनका नाम हम इसलिए जानते हैं क्योंकि एक फोटोग्राफर को वह मोबाइल पकड़े और रोते हुए दिख गए थे। लेकिन ऐसे लाखों प्रवासी कामगार हैं जो वास्तव में भारत के नागरिक हैं लेकिन नागरिकता उन्हें कोई सुरक्षा नहीं देती या उनमें राष्ट्र के प्रति बहुत गर्व पैदा नहीं करती है। वे भी स्वतंत्रता दिवस नहीं मना सकेंगे क्योंकि उन्हें अभी तक आजादी का मतलब ही पता नहीं।
क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि अगला चुनाव बदलाव लाएगा? चुनाव होते रहते हैं और हर चुनाव के साथ संसद में आपराधिक रिकॉर्ड वाले सदस्यों की तादाद बढ़ती जा रही है। 17वीं लोकसभा के लगभग आधे नए सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। 2019 में 539 जीते सदस्यों में से 233 सांसदों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे। भाजपा के 116 सांसद या 39 फीसद जीतने वाले उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले हैं। इसके बाद कांग्रेस के 29 सांसद का नंबर आता है।
पिछले कुछ सालों में लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित किया गया है। संविधान में दिए गए अधिकारों का श्रमिकों, किसानों या भूमिहीनों के लिए कोई मतलब नहीं है। लेकिन भारत कोई गरीब देश नहीं है। यह समृद्ध है और इसके खजाने का कंपनियों द्वारा शोषण किया जा रहा है। कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं; श्रमिकों का बेरहमी से शोषण हो रहा है।
कल्याणकारी राज्य हार गया है और कॉर्पोरेट भारत विजयी हुआ है। कॉर्पोरेट भारत पांच सितारा होटलों और रिसॉर्ट्स में स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। इन हालात में हम स्वतंत्रता दिवस कैसे मना सकते हैं? हमें ऐसा रास्ता खोजना होगा कि उस दिन का महत्व हमारी यादों से खत्म न हो, हम आजादी का मतलब भूल न जाएं; अपने इतिहास को याद रखने की अहमियत समझें।
(नंदिता हक्सर मानवाधिकार वकील और लेखिका हैं)
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