भारत सहित पूरी दुनिया के लगभग 80 प्रतिशत किसान धान की पराली जलाते हैं जिससे गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है। यह हर साल घनी आबादी और ज्यादा औद्योगिक घनत्व वाले भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अक्टूबर-नवंबर महीने में हवा की गति कम होने और हिमालय से ठंडी हवा आने से बहुत ज्यादा गंभीर हो जाता है। इस समस्या के समाधान के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी विफल रही हैं।
देश में सबसे ज्यादा उपजाऊ और सिंचित उत्तर पश्चिम भारतीय मैदानी क्षेत्र में हरित क्रांति के दौर में (1967-1975) राष्ट्रीय नीतिकारों द्वारा प्रायोजित धान-गेहूं फसल चक्र ने पिछले पांच दशकों से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और लगभग एक लाख करोड़ रुपये वार्षिक निर्यात को तो सुनिश्चित किया, लेकिन गंभीर तौर पर भूजल की बरबादी और पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को भी पैदा किया।
सरकार द्वारा फसल विविधिकरण के सभी प्रयासों के बावजूद धान-गेहूं फसल चक्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि में लगभग 70 लाख हेक्टेयर भूमि पर अपनाया जा रहा है क्योंकि इन क्षेत्रो में मौसम अनुकूलता और आर्थिक तौर पर गन्ने की खेती के अलावा धान - गेहूं फसल चक्र ही किसानों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद है।
(स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग-गन्ने की मूल्य नीति-चीनी मौसम- 2023-24 रिपोर्ट, पेज -76)
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उत्तर पश्चिम भारत के प्रदेशों में धान-गेहूं फसल चक्र में लगभग 40 क्विंटल फसल अवशेष प्रति एकड़ पैदा होते हैं। इसमें से आधे फसल अवशेष 20 क्विंटल प्रति एकड़, यानी गेहूं के भूसे का प्रबंधन किसानों के लिए कोई खास समस्या नहीं है, क्योंकि पशु चारे के रूप में गेहूं का भूसा फायदेमंद होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी में काफी समय (50-60 दिन) मिलने के कारण किसान गेहूं भूसे का प्रबंधन आसानी से कर लेते हैं। लेकिन बाकी बचे आधे फसल अवशेष, यानी धान पराली का प्रबंधन किसानों के लिए वर्षों से गंभीर समस्या बनी हुई है क्योंकि धान की पराली आमतौर पर पशु चारे के लिए उपयोगी नहीं होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी में मात्र 20 दिन से कम समय मिलने के कारण धान की कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में बड़ी मात्रा में किसान पराली जलाते हैं।
इससे अक्टूबर-नवंबर महीने में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित जम्मू से कोलकाता तक के बहुत बड़े क्षेत्र में वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा होती है। इसके कारण पर्यावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित होती है। पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश सरकारें/वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग किसानों पर जुर्माना लगाने, बायो-डीकंपोजर से पराली गलाने जैसे अव्यावहारिक प्रयास कर रहे हैं, जिनके अभी तक कोई सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं।
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पूसा डीकंपोजर के प्रायोजक पूसा संस्थान का मानना है कि डीकंपोजर घोल के छिड़काव से 25 दिन बाद पराली कुछ नरम तो होती है, लेकिन इसे पूर्णतया गलने के लिए सात सप्ताह (50 दिन) का समय चाहिए और बायो- डीकंपोजर कभी भी मशीनीकरण द्वारा पराली प्रबंधन का विकल्प नहीं बन सकता है।
वहीं, पंजाब कृषि विश्वविद्याालय द्वारा किए गए अनुसंधान बताते हैं कि बायो-डीकंपोजर छिड़काव से कोई खास लाभ नहीं होता जबकि धान कटाई के बाद गहरी जुताई द्वारा पराली को भूमि में दबाने और खेत में समुचित नमी बनाए रखने से बिना बायो-डीकंपोजर छिड़काव भी पराली 7 सप्ताह में ही गल जाती है।
(अंतरराष्ट्रीय जर्नल ऑफ रिसाईक्लिंग ऑफ ऑर्गेनिक वेस्ट, 13 नवंबर, 2022 संस्करण)
धान पराली और फसल अवशेष प्रबंधन पर सभी अनुसंधान और तकनीकी रिपोर्ट इस बात पर एकमत हैं कि मशीनीकरण द्वारा फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकाल कर उद्योगों आदि में उपयोग करना इसका सर्वोतम समाधान है। जैसा कि अमेरिका आदि देशों में वर्षों से हो रहा है। लेकिन भारत में भूमि की छोटी जोत होने से किसानों के लिए भारी मशीन खरीदना संभव नहीं है। ऐसी हालत में धान कटाई के बाद पराली का भूमि में मिलना ही व्यावहारिक समाधान बनता है। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा जब पराली को भूमि के अंदर दबाने और गलने के लिए 45-50 दिन समय मिलेगा।
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इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों और राष्ट्रीय नीतिकारों को उत्तर पश्चिम भारत में धान की खेती के लिए किसान और पर्यावरण हितैषी नई तकनीक और बुआई कैलेंडर आदि विकसित करने होंगे। पराली प्रदूषण और भूजल बरबादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली किस्में एक सस्ता और कारगर उपाय है।
धान फसल की कटाई और रबी फसलों जैसे गेहूं, सरसों, आलू आदि की बुआई की तैयारी में कम समय मिलने के कारण ही किसान मजबूरन धान पराली जलाते हैं जिसके लिए राष्ट्रीय नीतिकारों को पराली प्रदूषण और भूजल बरबादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों (जैसे पी.आर.-126, पी. बी.-1509 आदि) को प्रोत्साहन एक कारगर उपाय साबित होगा और लंबी अवधि की किस्मों पूसा-44 आदि पर कानूनी प्रतिबंध जरूरी है।
इसमें धान फसल की बुआई 20 मई से शुरू हो कर फसल की कटाई 30 सितंबर तक पूरी हो जाती है। उल्लेखनीय है कि रोपाई पद्धति के मुकाबले सीधी बिजाई में धान की सभी किस्में 10 दिन जल्दी पक कर तैयार हो जाती हैं। इस कारण गेहूं फसल बुआई से पहले किसान को लगभग 45-50 दिन का समय धान पराली और फसल अवशेष प्रबंधन के लिए मिलता है। इसका सदुपयोग करके किसान गेहूं-धान फसल चक्र में हरी खाद के लिए ढ़ेंचा, मूंग आदि फसल भी उगा सकते हैं जिससे पराली जलाने से पैदा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण में कमी आएगी, भूमि की ऊर्वरा शक्ती बनाए रखने में मदद मिलेगी और रसायनिक उर्वरकों पर निर्भरता भी कम होगी।
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सरकार इन प्रदेशों में अगर धान की सरकारी खरीद की समय सारणी 15 सितंबर से 10 अक्तूबर तक का समय निश्चित करे, तो किसान स्वयं धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों को ही अपनाएंगे। इससे लगभग एक तिहाई भूजल, ऊर्जा (बिजली-डीजल-मजदूरी) और खेती लागत में बचत के साथ पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा। इन प्रदेशों में लगभग 90 प्रतिशत धान की कटाई और गहाई कंबाईन हारवेस्टर मशीनों द्वारा किराये पर होती है। सरकार कानून बनाकर पराली को भूमि में दबाने की जिम्मेदारी भी कंबाइन हारवेस्टर मालिक की निश्चित करे।
इस वर्ष खरीफ 2023 सीजन में हरियाणा में किसानों ने तीन लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर धान की सीधी बिजाई विधि को अपनाया। इसके परिणाम स्वरूप 30 सितंबर, 2023 तक प्रदेश की मंडियों में आठ लाख टन धान बिकने के लिए आया जो पर्यावरण हितैषी धान की सीधी बिजाई विधि में किसानों के विश्वास को दर्शाता है।
(वीरेन्द्र सिह लाठर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं। ( साभार: डाउन टू अर्थ) )
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