भारत की जनता ने बहुमत देकर दोबारा मोदी सरकार को देश का शासन सौंप दिया है, तो कुछ सवाल पूछे जाने लायक बनते हैं। भारत सरीखे विविधतामय देश में किसी भी पार्टी को दो-दो बार स्पष्ट बहुमत मिलना कोई सामान्य घटना नहीं।
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शायद हम कभी ठीक-ठीक नहीं जान सकेंगे कि मोदी सरकार की इस भारी जीत (जो दरअसल मोदी की वैयक्तिक जीत अधिक दिखती है), के पीछे कितना विवेक था और कितना आवेश। या कि बतौर एकछत्र लीडर नरेंद्र मोदी परिस्थितियों का अनिवार्य परिणाम हैं कि चतुराई से निर्मित मिथक। एक ही बात साफ है कि मोदी अगर भारत के अवचेतन को गहराई से आंदोलित नहीं करते, तो उनके पार्टी कार्यकर्ताओं में वह गहरी ऊर्जा पैदा नहीं हो सकती थी, जिसने 2014 और फिर 2019 की जीत को संभव बनाया।
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कांग्रेस ने इस बार का चुनाव नये और कम उम्र अध्यक्ष के नेतृत्व में खासी विपरीत परिस्थितियों और संसाधनों की कमी के बीच (जिनको उपजाने में बीजेपी के नेतृत्व का काफी योगदान भी था) खम ठोंक कर लड़ा और अपनी स्थिति पिछले चुनाव की तुलना में बेहतर बना ली है। इसके लिये उनको भी कुछ शाबाशी तो मिलनी ही चाहिये।
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टीवी स्टूडियो के महापंडितों के बीच इस किस्म का अफसोस ज़रूर ज़ाहिर किया जाता रहा कि कांग्रेस ने समय पर गठबंधन करने में कतर ब्योंत की। यह बात गलत है। कांग्रेस के साथ अधिक दलीय सहयोगी हैं और उनका प्रदर्शन बीजेपी के सहयोगी दलों से बेहतर ही कहा जायेगा। कुछ गमछाधारी समाजवादी चिंतकों की राय थी कि गरीब लोगों के बीच धर्मद्रोही वर्ग चेतना उभार कर वर्ग संघर्ष के वैज्ञानिक नियम कांग्रेस ने अपनाये होते, तो उसे खेतिहर तबके के वोट मिल जाते। ऐसा करने वाले कई दलों के युवतर नेता भी मैदान में थे। पर लगभग सभी खेत रहे क्योंकि जिस तरह गोरू बाछी जानते हैं कि नमक की चट्टान जंगल में किस जगह है या कि कौन सी वनस्पति नहीं खानी चाहिये, उसी तरह गरीब अनपढ़ जनता भी जानती है कि देश की राजनीति में लंबी रेस का घोड़ा कौन सा है।
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कांग्रेस को अब अगली विपक्षी पाली के दौरान एक नई रणनीति चाहिये। उसे पहले यह मानना होगा कि बीजेपी शैली के हिंदुत्व के बिना तो देश का काम चल सकता है, पर उस धर्म के बिना नहीं, जो दरअसल मिथक संचय का भारतीय कटोरा और सदियों से यहां की सरज़मीं से उपजे रहे साझा अनुभवों का निचोड़ है। जब कांग्रेस देश के बीच जा जाकर उस सहज और पंथ निरपेक्ष तत्व को, जिसका प्रतीक जायसी की वैकुंठी और ‘रेणु’ के मैला आंचल के पात्र हैं, जमा कर उसे लोकभाषा में राजनीति के मुहावरे में ढालेगी, तभी वह भारत के जातीय अवचेतन से खुद को उस तरह जोड़ सकेगी जैसा गांधी के बाद अब तक कोई नहीं कर पाया।
इस बहुमत की जीत से इस बात की भारी आशंका बनती है कि तख्तोताज के झगड़ों के बीच बुरी तरह बांटे जा रहे देश से कहीं उस संचय की संभावना ही खत्म कर सरकारी हिंदुत्व सचमुच एक धर्म न बन बैठे।
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