यह मानकर चलना चाहिए कि नई सरकार की विदेश नीति में अनेक बातों की निरंतरता होगी, पर शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान की अनुपस्थिति एक महत्वपूर्ण बदलाव है। इस समारोह में शामिल होने के लिए सरकार ने पड़ोसी देशों के नाम पर बिमस्टेक समूह के नेताओं को आमंत्रित किया। साल 2014 के शपथ समारोह में जहां सार्क देशों को प्रमुखता दी गई थी, वहीं इस बार बिमस्टेक को महत्व दिया गया।
इससे केवल संगठन का महत्व ही साबित नहीं हुआ है। बुनियादी तौर पर इसमें पाकिस्तान के लिए एक संदेश है। क्षेत्रीय-सहयोग के मामलों में वर्तमान सरकार की प्राथमिकता में अब पाकिस्तान नहीं है। यह डिप्लोमैटिक संकेत मात्र है। यह संकेत केवल मोदी सरकार ने ही नहीं दिया है। यह बात 2004 के बाद से नजर आने लगी थी कि भारत सार्क को लेकर निराश है और उसका झुकाव बिमस्टेक की तरफ बढ़ता जाएगा। क्या यह सार्क के अंत का प्रारंभ है?
सार्क के बहुत कारगर न हो पाने की सबसे बड़ी वजह है भारत-पाकिस्तान रिश्तों की तल्खी। दक्षिण एशिया के विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा भारत-पाकिस्तान के रिश्तों की कड़वाहट के रूप में आड़े आती है। दशकों से चल रही राजनीतिक अस्थिरता का असर हमारे विकास और अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर पड़ा है। हमने अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन और जापान तक से रिश्ते सुधारे हैं। अब हमें अपने इलाके में रिश्तों को सुधारना चाहिए।
दक्षिण एशिया की जड़ता को तोड़ने की कोशिश नब्बे के दशक में इंद्र कुमार गुजराल ने की थी, जिसे हम ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ कहते हैं। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे बढ़ाने की कोशिश की थी, पर दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा है कि दक्षिण एशिया की गाड़ी अपनी जगहअटकी रह गई। बेशक कड़वाहट के अनेक कारण हैं, पर इन देशों के राजनेताओं की जिम्मेदारी है कि वे सर्वानुमतियां तैयार करें ताकि इस इलाके में आर्थिक प्रगति का पहिया आगे बढ़े। साथ ही हम अपने सामने खड़ी चुनौतियां का एक साथ मिलकर सामना करें।
‘पड़ोसी प्रथम’ नीति
हालांकि सरकार की ओर से कहा गया है कि ये निमंत्रण ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति के अंतर्गत दिए गए हैं, लेकिन इन पड़ोसियों में पाकिस्तान की गिनती नहीं है। बिमस्टेक समूह में बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड शामिल हैं। इस प्रकार यह दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के ऐसे देशों का संगठन है, जो भौगोलिक रूप से भारत के करीब हैं।
इन देशों के अलावा समारोह में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के वर्तमान अध्यक्ष और किर्गिस्तान के राष्ट्रपति और मॉरिशस के प्रधानमंत्री को भी आमंत्रित किया गया। मॉरिशस हमारा परंपरागत दोस्त है। वहीं किर्गिस्तान मध्य एशिया के महत्व को रेखांकित करता है। भारत मध्य एशिया के साथ रिश्ते बेहतर बना रहा है और ईरान से मध्य एशिया के देशों से होकर यूरोप तक जाने वाले अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर का महत्वपूर्ण भागीदार है। यह हमारे महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों में से एक होगा।
पाकिस्तान को आमंत्रितन करने के पीछे कारण यह भी हो सकता है कि हमारे विदेश नीति निर्धारक इस मामले में जल्दबाजी नहीं करना चाहते हों। या फिर सरकार अपने समर्थकों को राजनीतिक संदेश देना चाहती हो कि हम पाकिस्तान के प्रति सख्त रवैया अपनाएंगे। पिछली बार इस कार्यक्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ आए जरूर थे, पर पाकिस्तान में उस बात को लेकर लंबी बहस चली।
पठानकोट प्रभाव
नवाज शरीफ के पराभव के पीछे एक बड़ा कारण भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाने की कोशिश भी थी। जनवरी, 2016 में पठानकोट की घटना नरेंद्र मोदी की अचानक हुई लाहौर यात्रा के फौरन बाद हुई थी। पठानकोट और फिर उड़ी की घटनाओं के बाद से भारत ने सार्क या दक्षेस से हाथ पूरी तरह खींच लिया। पर सार्क से भारत की बेरुखी केवल इस कारण से ही नहीं है। दोनों देशों के रिश्तों में इतनी कड़वाहट है कि सहयोग का आधार ही तैयार नहीं हो पा रहा है।
सार्क के काठमांडू शिखर सम्मेलन में दक्षिण एशिया की कनेक्टिविटी पर पाकिस्तान ने एक तरीके से रोक लगा दी थी। दक्षिण एशिया में काबुल से ढाका तक आसान परिवहन संभव नहीं हो तो हमें इस क्षेत्र के आर्थिक विकास के बारे में बातें नहीं करनी चाहिए। मोदी सरकार ने 2014 में शुरुआत पड़ोस के आठ शासनाध्यक्षों के स्वागत के साथ किया था। पर दक्षिण एशिया में सहयोग का उत्साहवर्धक माहौल नहीं बना।
नवंबर, 2014 में काठमांडू के दक्षेस शिखर सम्मेलन में पहली ठोकर लगी। उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल संपर्क समझौते पर सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके लिए तैयार थे। दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था, पर उस दिशा में भी कुछ हो नहीं पाया।
सार्क का चक्का जाम
काठमांडू के बाद दक्षेस का अगला शिखर सम्मेलन नवंबर, 2016 में पाकिस्तान में होना था। भारत, बांग्लादेश और कुछ अन्य देशों के बहिष्कार के कारण वह शिखर सम्मेलन नहीं हो पाया और उसके बाद से सार्क की गाड़ी जहां की तहां रुकी पड़ी है। काठमांडू में मोदी ने कहा था, दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण होकर रहेगा, दक्षेस के मंच पर नहीं तो किसी दूसरे मंच से सही। यानी ज्यादातर परियोजनाओं में दक्षेस के बजाय किसी दूसरे फोरम के मार्फत काम करना होगा।
इसके बाद भारतीय राजनय में बदलाव आया। ‘माइनस पाकिस्तान’ अवधारणा बनी। दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने शुरू हुए। शुरुआत 15 जून 2015 को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) से हुई। इसी आशय का एक त्रिपक्षीय समझौता अफगानिस्तान और ईरान से हुआ। इसके तहत ईरान के चाबहार बंदरगाह का विकास भारत कर रहा है, जहां से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन सड़क मार्ग से होने लगा है। ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों के बाद अफगानिस्तान जाने वाले इस रास्ते पर फिर रुकावटें खड़ी हुई हैं। विदेश-नीति निर्धारकों के सामने अब यह भी एक सवाल है।
ईरान से रूस और अंततः यूरोप तक के लिए ‘नॉर्थ- साउथ कॉरिडोर’ की एक अवधारणा भी है। मध्य एशिया से जुड़ने के लिए हमें रास्ते की जरूरत इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान तक जमीनी रास्ता देने से मना कर दिया है। इसके पहले भारत साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन में शामिल हुआ। इसमें भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका सदस्य हैं। इसी तरह बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के अलावा म्यांमार और थाईलैंड भी हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया से जुड़ाव
भारत आसियान का डायलॉग पार्टनर है। मीकांग-गंगा सहयोग समूह में भी भारत शामिल हैं, जिसमें भारत के अलावा म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया और लाओस सदस्य हैं। मीकांग-गंगा सहयोग समूह इंफ्रास्ट्रक्चर, खासतौर पर हाईवे निर्माण और व्यापार के लिहाज से महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। परिवहन लागत कम होने से भारत की संपूर्ण दक्षिण एशिया के साथ कनेक्टिविटी बढ़ सकती है। आकर्षक विचार होने के बावजूद इस समूह की गतिविधियां बहुत धीमी हैं। म्यांमार से होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को जोड़ने वाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिनमें जापान और चीन की भागीदारी भी है। भारत के साथ म्यांमार के परंपरागत रिश्ते हैं।
भौगोलिक दृष्टि से देखें, तो थाईलैंड भी हमारे काफी करीब है। थाईलैंड का फुकेत दक्षिण भारत के इंदिरा पॉइंट से केवल 273 नॉटिकल मील दूर है। यानी जितनी दूरी चेन्नई से मदुरै की है, उससे भी कम। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुई दो-तीन बड़ी परिघटनाओं का असर दक्षिण एशिया पर भी पड़ेगा। इनमें एक है ईरान के साथ सऊदी अरब और अमेरिका के युद्ध की आशंकाएं, दूसरे अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध और तीसरे अफगानिस्तान में शांति-स्थापना के प्रयास। भारत की दक्षिण एशिया-नीति को इन परिघटनाओं के मद्देनजर देखना चाहिए।
बिमस्टेक का प्रवेश
उड़ी की घटना के बाद अक्टूबर, 2016 में गोवा में हुए ब्रिक्स सम्मेलन के साथ-साथ बिमस्टेक नेताओं का एक शिखर सम्मेलन भी आयोजित किया गया। उसके पहले भारत ने नवंबर, 2016 में पाकिस्तान में प्रस्तावित सार्क शिखर सम्मेलन के बहिष्कार की घोषणा कर दी थी। बहिष्कार की इस घोषणा में बिमस्टेक के कुछ सदस्य देश भी शामिल थे, जो सार्क के सदस्य भी थे। उसके बाद यह समझ में आने लगा कि भारत अब बिमस्टेक को बढ़ावा देगा।
गोवा के इस शिखर सम्मेलन के बाद अगस्त, 2018 में काठमांडू में बिमस्टेक का चौथा शिखर सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन के बाद इस संगठन की रूपरेखा ज्यादा स्पष्ट होकर सामने आई है। हालांकि इस संगठन से जुड़ा भौगोलिक क्षेत्र कुछ अलग है, पर लगता यही है कि भारत का झुकाव अब सार्क के मुकाबले इस तरफ ज्यादा होगा। फिर भी इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सार्क खत्म होने वाला है। सार्क का शिखर सम्मेलन स्थगित हुआ था, उसे फिर से सक्रिय करने के प्रयास किए जा सकते हैं। अब इसमें पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यूं सार्क के सक्रिय होने पर भी बिमस्टेक की भूमिका होगी। उस स्थिति में यह दक्षिण एशिया आसियान देशों के बीच सेतु का काम करेगा।
क्या है बिमस्टेक?
जून 1997 में बैंकॉक में बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन नाम से एक क्षेत्रीय समूह की स्थापना हुई थी। तब इन देशों के पहले नाम के अक्षरों के आधार पर इसका नाम बिस्ट-ईसी या बिस्टेक रखा गया था। इसके बाद दिसंबर 1997 में म्यांमार भी इसका पूर्णकालिक सदस्य बन गया। उसके बाद इसका नाम बिमस्टेक कर दिया गया। 2004 में नेपाल और भूटान भी इसके सदस्य बन गए। अंततः 31 जुलाई 2004 को इसके नाम का रूप बदलते हुए इसे ‘बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन’ कर दिया गया।
इन दिनों भारत ‘लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट’ की नीति पर चल रहा है। यह नीति भी निरंतरता पर आधारित है। इसकी शुरुआत पीवी नरसिंह राव के समय से शुरू हुई थी। इस नीति के तहत भारत ने बंगाल की खाड़ी से सटे देशों के साथ बिमस्टेक शुरू किया। बिमस्टेक के सदस्य देशों में मुक्त-व्यापार समझौते का प्रस्ताव है ताकि आपस में व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके। भारत, म्यांमार और थाईलैंड के बीच हाइवे बनाने का प्रस्ताव है ताकि कनेक्टिविटी बढ़े। इसके अलावा समुद्री यातायात भी बढ़ाने पर जोर है।
तटीय इलाकों में रहने वालों का आर्थिक विकास समुद्र और यहां होने वाली गतिविधियों से जुड़ा रहता है। इसलिए ब्लू इकोनॉमी को बढ़ावा देना भी इसके एजेंडे में है। अभी यह संगठन सार्क के स्तर का भी नहीं है, पर लगता है कि जल्द ही इसका विस्तार होगा। इस संगठन में जापान ने भी दिलचस्पी ली है। जापान के पास पूंजी और टेक्नोलॉजी दोनों हैं। चूंकि चीन ने हिंद महासागर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया है, इसलिए जापान भी इस इलाके में सक्रिय होना चाहता है ।
समुद्री सुरक्षा
भारतीय विदेश नीति का समुद्री सुरक्षा के साथ गहरा रिश्ता है। देश की 15,106.7 किलोमीटर लंबी थल सीमा और 7,516.6 किलोमीटर लंबे समुद्र तट की रक्षा और प्रबंधन का काम आसान नहीं है। पिछले तीन सौ साल का अनुभव है कि हिंद महासागर पर प्रभुत्व रखने वाली शक्ति ही भारत पर नियंत्रण रखती है। हिंद महासागर अब व्यापार और खासतौर से पेट्रोलियम के आवागमन का मुख्य मार्ग है। भारत के विदेश व्यापार का 50 फीसदी इसी रास्ते से आता है।
Published: 31 May 2019, 10:43 PM IST
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Published: 31 May 2019, 10:43 PM IST