विचार

खरी-खरी: शिवसेना को भी क्या जनता पार्टी और जनता दल जैसी राजनीतिक विखंडन की तरफ धकेलने में कामयाब हो जाएगा संघ!

महाराष्ट्र में शिवसेना एवं ठाकरे परिवार- दोनों के पतन की पटकथा लिख दी गई है, इस मिशन में समय लग सकता है लेकिन इस राजनीतिक उद्देश्य की नींव पड़ चुकी है। अब देखना होगा कि अगले कुछ वर्षों में शिवसेना जनता पार्टी एवं जनता दल के समान कितनी बार टूटती है।

Getty Images
Getty Images Pratham Gokhale

याद है आपको जनता पार्टी! जी हां, वही संगठन जिसने सन् 1977 के ऐतिहासिक चुनाव में इंदिरा गांधी जैसी नेता को सत्ता से उखाड़ फेंका था। हैरत की बात यह है कि जनता पार्टी का जन्म चुनाव से केवल तीन-चार महीने पहले ही हुआ था। लेकिन स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व की बदौलत जनता पार्टी ने पहली बार कांग्रेस जैसी पार्टी को केंद्र की सत्ता से उखाड़ फेंका और इतिहास रच दिया। लेकिन वही जनता पार्टी तीन वर्ष से कम समय में सत्ता से बाहर हो गई। आज उस जनता पार्टी का कहीं नामोनिशान भी नहीं दिखाई या सुनाई पड़ता है।

ऐसे ही 1980 के दशक में भारतीय राजनीतिक पटल पर जनता दल की गूंज थी। सन् 1987 में वीपी सिहं के नेतृत्व में जनता दल का जन्म हुआ और 1989 में यह दल राजीव गांधी को हराकर सत्ता में था। फिर केवल ग्यारह महीनों में जनता दल सरकार सत्ता से बाहर हो गई। अब जनता दल के कुछ अवशेष बिहार में तो बचे हैं और कहीं भी न तो वीपी सिहं की ‘मंडल क्राांति’ किसी को याद है और न ही जनता दल का कोई नामलेवा है। आखिर इतने बड़े-बड़े दल बनते हैं, इतिहास बनाते हैं और फिर विलुप्त क्यों हो जाते हैं।

Published: undefined

इस बात का कोई राजनीतिक कारण तो होगा ही? जी हां, बिल्कुल है। इन दिनों राजनीति में नरेंद्र मोदी के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ जुमले की बहुत चर्चा है। दरअसल, यह संघ का बहुत पुराना लक्ष्य है और संघ इस मिशन पर सदैव कार्यरत रहता है। हिन्दुत्व एवं कांग्रेसमुक्त भारत- संघ के दो ही मुख्य लक्ष्य हैं। 1970 एवं 1980 के दशक तक संघ के राजनीतिक मुखौटे जनसंघ एवं भारतीय जनता पार्टी इतने सशक्त नहीं थे कि वह कांग्रेस को कमजोर कर देश को ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ की दिशा में ले जा सकें। इसलिए अवसर पड़ने पर संघ जनता पार्टी एवं जनता दल जैसे संगठन खड़े कर देता था। पीछे से संघ इस प्रकार हिन्दुत्व एवं कांग्रेसमुक्त भारत के लिए जमीन तैयार हो जाती थी। उस समय तक कांग्रेस इतनी सशक्त थी कि वह पुनः वापस आ जाती थी। लेकिन जनता पार्टी एवं जनता दल जैसी पार्टियां मुख्यतया संघ के कुछ-न-कुछ आगे कर देने से राजनीतिक पटल से गायब हो जाती हैं।

यह लंबा इतिहास इसलिए याद दिलाया कि इस समय महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के साथ जो खेल चल रहा है, वह भी कुछ जनता पार्टी एवं जनता दल जैसा ही है। महाराष्ट्र में भी संघ का उद्देश्य सदा से हिन्दुत्व एवं कांग्रेसमुक्त महाराष्ट्र ही रहा है। 1980 के दशक तक स्वयं बीजेपी के बस में यह बात नहीं थी। इसलिए संघ यह कार्य बाल ठाकरे एवं शिवसेना के माध्यम से करता रहा। प्रदेश में हिन्दुत्व भी बढ़़ा और कांग्रेस भी कमजोर पड़ी। लेकिन उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और शरद पवार से हाथ मिलाकर संघ का साथ छोड़ दिया। अब उद्धव ठाकरे संघ के हिन्दुत्व का झंडा नहीं उठाए हैं। इस समय वह कांग्रेस के समान ही उदारवादी राजनीति के प्रतीक हैं। इसलिए अब वह और उनकी शिवसेना संघ के लिए किसी काम के नहीं रहे। इस कारण कुछ वर्षों में उद्धव एवं शिवसेना का हश्र जनता पार्टी एवं जनता दल जैसा ही हो, तो आश्चर्य मत कीजिएगा।

Published: undefined

जनता पार्टी एवं जनता दल के समान शिवसेना और ठाकरे परिवार मिशन पर काम शुरू हो चुका है। इसकी शुरुआत पार्टी विभाजन से होती है। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना टूट चुकी है। अभी शिंदे को वैसे ही आदर-सम्मान मिल रहा है जैसा चंद्रशेखर को वी पी सिंह का जनता दल तोड़ने के समय मिला था। मुंबई म्यूनिसिपल चुनाव तक शिंदे वैसे ही सम्मानित रहेंगे। फिर उनकी शिवसेना में कौन दूसरा शिंदे उनकी पीठ में वैसे ही छुरा घोंप दे, अभी कहना मुश्किल है। लेकिन अब यह निश्चित है कि महाराष्ट्र में शिवसेना एवं ठाकरे परिवार उसी राह पर चल पड़े हैं जिस पर जनता पार्टी एवं जनता दल सत्ता में आने के थोड़े समय बाद चल पड़ थे।

संघ को हिन्दुत्व एवं कांग्रेसमुक्त महाराष्ट्र चाहिए। यह कार्य अब मोदी के नेतृत्व में स्वयं बीजेपी सारे देश में कर रही है। शिंदे जैसे मोहरे संघ की बिसात पर पहले की तरह कुछ समय तक आते-जाते रहेंगे। महाराष्ट्र में शिवसेना एवं ठाकरे परिवार- दोनों के पतन की पटकथा लिख दी गई है, इस मिशन में समय लग सकता है लेकिन इस राजनीतिक उद्देश्य की नींव पड़ चुकी है। अब देखना होगा कि अगले कुछ वर्षों में शिवसेना जनता पार्टी एवं जनता दल के समान कितनी बार टूटती है।

Published: undefined

तीस्ता के लिए इंसाफ की लड़ाई

Published: undefined

Getty Images

यही कोई डेढ़-दो बजे दोपहर का समय रहा होगा। रविवार का दिन था। जाकिया जाफरी वाले केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका था। मेरे सहयोगी उस फैसले पर आधारित गुजरात दंगों पर एक स्टोरी करना चाहते थे। वह इस संबंध में तीस्ता सीतलवाड़ से बात करना चाहते थे। मैंने तीस्ता को फोन लगाया। उसने तुरंत फोन उठाया। मैंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ अजीब है। मैंने उनसे कहा, क्या अब सरकार जाकिया जाफरी को पकड़ लेगी। वह बोली, उनको नहीं, मुझको पकड़ सकते हैं। उसकी आवाज हमेशा की तरह वैसी ही निडर थी। हां, उसकी आवाज से यह जरूर लगा कि वह चितिंत है। क्योंकि मेरी कॉल के कोई घंटे भर बाद यह खबर आई कि गुजरात पुलिस ने तीस्ता को अपनी हिरासत में ले लिया है।

मैं यह सुनकर सन्न हो गया। आखिर तीस्ता भी गई सलाखों के पीछे। अचानक मेरे मस्तिष्क में तीस्ता से मेरी मुलाकातों की एक फिल्म-सी चल उठी। मेरी पहली मुलाकात तीस्ता से सन 1993 में दिल्ली में हुई थी। बाबरी मस्जिद कुछ महीनों पहले ढहाई जा चुकी थी। मुंबई के भयानक दंगे भी हो चुके थे। हुआ यह कि दिल्ली में कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बाबरी मस्जिद के बाद के हालात पर चर्चा के लिए देश भर से मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक बैठक बुलाई थी। मैं उस समय इंडिया टुडे में था। मुझको भी उस बैठक में आमंत्रित किया गया था। मैं बैठक में गया। लोगों में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर बहुत गुस्सा था। खैर, विभिन्न वक्ता बोल रहे थे और नरसिहं राव के मस्जिद को ढहने से न बचाने के लिए अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। ऐसे माहौल में शहाबुद्दीन को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। शहाबुद्दीन बाबरी मस्जिद बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए थे। वह जैसे ही माइक पर आए, लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। ‘जब मस्जिद गिर रही थी, तो आप कहां थे’। शहाबुद्दीन के खिलाफ एक हंगामा खड़ा हो गया। मैंने मंच पर चढ़कर किसी प्रकार लोगों को शांत किया।

Published: undefined

मैं जब मंच से नीचे आया, तो किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे बुलाया। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो जावेद आनन्द (तीस्ता के पति) थे। हम दोनों कुछ समय पहले ऑब्जर्वर ग्रुप में सहयोगी थे। आनन्द बोले कि कहीं आसपास बैठकर चाय पीते हैं। मैं आनन्द के साथ बाहर आया।

वहां तीस्ता, जावेद अख्तर और शबाना आजमी भी खड़े थे। आनन्द ने सबसे मेरा परिचय कराया और सब वहां से पास बंगाली मार्केट के नाथू स्वीट्स में आकर बैठ गए। तीस्ता भी उस समय तक पत्रकारिता कर रही थी। मुंबई दंगों में पुलिस कैसे शिवसेना से मिली थी, तीस्ता ने यह एक्सपोज किया था। मैंने उसकी स्टोरीज की प्रशंसा की। उससे पूछा, तुमको बाला साहब ठाकरे से डर नहीं लगा। ‘अगर मैं डरती, तो पत्रकारिता कैसे करती’, उसने शांत स्वभाव में मुझे जवाब दिया। जी हां, तीस्ता कभी डरी नहीं और न ही उसने कभी इंसाफ के लिए चुप बैठना सीखा। उसके चरित्र के इन्हीं गुणों के कारण वह आज जेल में है।

मुंबई दंगों के तुरंत बाद जावेद एवं तीस्ता ने पत्रकारिता छोड़ एनजीओ का रास्ता चुना। तीस्ता के एनजीओ का नाम ‘सेंटर फॉर जस्टिस एंड पीस’ है। तीस्ता और जावेद ने जल्द ही ‘कम्युनलिज्म कॉम्बैट’ नाम से एक मैगजीन भी शुरू की। जब सन् 2002 में गुजरात दंगे भड़क उठे, तो तीस्ता तुरंत गुजरात पहुंच गई और उसने अपनी जान खतरे में डालकर पूरे गुजरात में दंगों का ब्योरा छापा। उसकी रिपोर्ट अब गुजरात दंगों पर एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुकी हैं। जब-जब कोई गुजरात दंगों की खोजबीन करेगा, तो तीस्ता की रिपोर्ट उसको पढ़नी ही पड़ेगी।

Published: undefined

तीस्ता गुजरात दंगों के समय तक केवल पत्रकार ही नहीं, एक समाजसेविका भी हो चुकी थी। तीस्ता ने गुजरात में मारे जाने वालों को इंसाफ भी दिलवाया। लेकिन जाकिया जाफरी को इंसाफ नहीं मिला। वह उनका केस लेकर दो बार सुप्रीम कोर्ट गई। दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट ने उसका नाम लिए बिना ही उसको जेल भेजने की बात उठा दी। आज तीस्ता जेल में है। वह कब तक जेल में रहती है, कहना कठिन है। उसने मोदी जी के खिलाफ गुहार लगाई थी। इसलिए कौन जाने मोदी जी के रहते उसको जेल में रहना पड़े। तीस्ता ने अपनी जान की बाजी लगाकर लोगों को इंसाफ दिलाने का संघर्ष किया। आज जब वह स्वयं जेल में है, तो उसके इंसाफ की लड़ाई के लिए मुट्ठी भर लोगों के अतिरिक्त कहीं कोई नहीं दिखाई पड़ रहा है। अब तीस्ता का भगवान ही भला करे।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined