नीति आयोग काउंसिल की हालिया बैठक योजना (आयोग) को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम है, लेकिन इसे नियम आधारित संघीय प्रणाली में योजना की प्रक्रिया और फंड के आवंटन के जरिए समर्थन दिया जाना चाहिए। भारतीय योजना कभी भी वैसी नहीं थी जैसा चित्रण कॉरपोरेट के लोग, उनके पत्रकार और राजनीतिक समर्थक करते रहे हैं- एक केंद्रीयकृत सोवियत गॉस्प्लान। इसके साथ हमेशा विकेंद्रीकृत गांधीवादी विकास का पाया जुड़ा रहा था, साथ ही तकनीकी आधुनिकीकरण का एक नेहरूवादी मॉडल भी इसमें शामिल था।
संघीय ढांचे में विभिन्न स्तरों पर सरकारों के निर्णय लेने में व्यवस्थित ढंग से बाजारों की शुरुआत की कड़ी राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए सुधारों से जुड़ती है। भारत ने तब दीर्घकालीन उद्देश्यों के साथ रणनीतिक रूप से चालित व्यवस्था की एक आर्थिक नीति प्रणाली का ढांचा विकसित किया था। योजना आयोग को 2014 में खत्म कर दिया गया। हालांकि, व्यवस्था के दबावों और पहले से जारी राजनीतिक विकास को देखते हुए बाजार अर्थव्यवस्था में रणनीतिक नियोजन कई तरीकों से ध्यान खींचता है।
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अपने वर्तमान अवतार में, नीति आयोग पॉलिसी के मसलों पर विचार-विमर्श आयोजित करने और अध्ययन करने के लिए है। जैसा कि बहुत से टिप्पणीकारों ने बताया कि इस उद्देश्य के लिए एक सरकारी संगठन की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत के पास ऐसे बेहतरीन संस्थान हैं, जो विकास के मुद्दों पर कार्य कर रहे हैं। जैसा कि बताया जाता है, चीन का राष्ट्रीय विकास और सुधार आयोग भी अध्ययन करता है। लेकिन चीन की इस संस्था की भूमिका संसाधनों के आवंटन की भी है।
वर्तमान में, नियम आधारित आवंटन व्यवस्थाओं की समाप्ति के साथ भारतीय संघीय राज्य-व्यवस्था तनाव में है। भारतीय योजना को केवल निर्धारित परिणामात्मक लक्ष्य को तय करने के बजाय निःसंदेह रूप से समय की वैश्विक बहसों में स्थापित करना होगा। दिलचस्प है कि स्टिग्लिट्ज नब्बे के दशक के शुरू में काउंटर फैक्चुअल्स की बात करते हैं, जो कि सफल रहे और उन पर बहस करते हुए पौलेंडऔर चीन का जिक्र करते हैं। इसमें भारत का संदर्भ भी था। यदि नीति आयोग को गंभीरतापूर्वक लिया जाना है तो मेरी राय में इसका एजेंडा अन्य चीजों के अलावा जनसांख्यिकी, ऊर्जा और पानी और चीन की तरह दीर्घावधि योजना के लिए संसाधनों का आवंटन होना चाहिए।
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जलवायु परिवर्तन का मुद्दा कई तरह से नीति आयोग के पाले में आएगा और भारत जो अब वैश्विक बहसों में हाशिये पर है, उसे पहले की तरह केंद्र में आना होगा। परिमाण में तथ्य अस्पष्ट हैं। गेम थ्योरी अन्य ‘खिलाड़ियों’ द्वारा कल्पित कार्रवाइयों से अलग-अलग खिलाड़ियों (स्टेकहोल्डर्स) की प्रतिक्रियाओं के बारे में है। ‘गेम’ की अनुरूपता बनाना एक अनिश्चित क्षेत्र में ‘भविष्य’ या संभावनाओं के आकलन का मजेदार तरीका है। परंपरागत ढंग से यह विशालकाय अकादमिक किताबों में किया जाएगा, जिसके अंत में अनिश्चितता बनी रहती है।
दूसरी तरफ देखा जाए तो गेम एक विश्लेषणकर्ता को एक अनिश्चित दुनिया में जहां तक हो सके विशिष्ट रहने को मजबूर करता है। बड़े देशों- भारत, चीन, ब्राजील, बिग ब्लॉक, यूएसए और यूरोपीय संघ, अफ्रीकी महाद्वीप, बहुपक्षीय और अन्य समूह, जिसमें औद्योगिक निवेशकर्ता और मीडिया शामिल हैं, द्वारा संदर्भ तैयार किया गया है। उन्हें अब प्रकट हो रही खाद्य सुरक्षा नीतियों में वैश्विक व्यापार व्यवस्था के संदर्भ में अपने किरदार निभाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
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पहली स्वीकृति यह होनी चाहिए कि खाद्य सुरक्षा की समस्या केवल अनाज में ही नहीं थी बल्कि चीनी, तेल, पशुपालन उत्पादों, सब्जियों और फलों में भी थी और एक अर्थ में बीती सदी के आखिरी तीन दशकों में जो देखा गया उसके मुकाबले समस्या ज्यादा जटिल थी। वास्तविक सवाल योजना नीति (प्लानिंग पॉलिसी) की व्युत्पत्ति (डेरिवेशन) का था, जैसा कि कृषि व्यापार व्यवस्था में विकृति को हटाया जा सकता है और उत्पादकों के लिए प्रोत्साहनों को लागू किया जा सकता है। किसान तब जमीन, पानी और मिट्टी की निधि के अपने संसाधन, तकनीक तक पहुंच और खाद्य सुरक्षा में आने वाले कृषि वस्तुओं का उत्पादन कर अधिकतम लाभ उठाएगा।
योजना कार्य को समाप्त नहीं किया जा सकता और तेजी से बदलती विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का विकास जिस चरण में है उसको देखते हुए प्लानिंग का काम महत्वपूर्ण तरीके से बढ़ेगा। क्वांटम जंप का सामना करना होगा। पानी की गंभीर कमी से बचना होगा। सिंचाई की दक्षता और फसल की तीव्रता में तेजी से सुधार करने होंगे। अगर वैकल्पिक ऊर्जा जीवन और प्रबंधकीय तरीके से लागू होते हैं तथा हाइडल और न्यूक्लियर संयंत्रों का काम पूरा होता है, साथ ही अक्षय ऊर्जा पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया जाता है, तो एक अरब टन से अधिक का खराब कोयला जलाना नहीं पड़ेगा।
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स्लम ग्रोथ को एक मुनासिब सीमा तक रखने के लिए विकेंद्रीकृत शहरीकरण की नीति की आवश्यकता होगी। आधुनिक टेक्नोलॉजी को कारीगरों और ग्रामीण आबादी के साथ एकीकृत करना होगा ताकि राष्ट्रीय और वैश्विक बाजारों के लाभ कार्यबल तक पहुंच सकें। व्यापार और वैश्वीकरण को इन सवालों के साथ मुठभेड़ करना होगा। अगर ठोस अर्थों में इस तरह की कड़ियों को स्थापित नहीं किया जा सकता है तो एक चिरस्थाई भविष्य की अवधारणा खाली बक्सा बनी रहेगी।
अगर समुदाय अपने संसाधन निधियों के साथ संतुलन से बाहर रहते हैं तो जलवायु परिवर्तन, कार्बन सीक्वेस्ट्रैशन या जैव विविधता जैसे वैश्विक चिंता के मसलों पर महत्वपूर्णअग्रगति का सवाल ही नहीं उठता है। एक समूह जिसकी मैंने अध्यक्षता की थी उसने लोगों को पेयजल का कानूनी अधिकार देने, पानी के हिसाब के लिए कानूनी ढांचा तैयार करने और नदी घाटों में जाने वाले स्थानीय जलदायी स्तरों को लेकर योजना बनाने और कृषि जलवायु संबंधी योजनाओं के साथ एकीकृत करने की जरूरत को रेखांकित किया था।
हमें यह उम्मीद करना चाहिए कि नीति आयोग काउंसिल की बैठक इस उम्मीद के साथ होगी कि इन व्यावहारिक पहलुओं पर गंभीरता से ध्यान दिया जाएगा।
(नवजीवन के लिए योगिन्दर अलघ का लेख)
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