क्या सही है अयोध्या में राम प्रतिमा का विचार, धर्म शास्त्र में तो विशाल देव मूर्ति खुले में लगाना वर्जित है !
अयोध्या में राम की विशाल मूर्ति सरयू तट पर लगाने के ऐलान पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डाक्टर कर्ण सिंह ने योगी जी को एक खत लिख कर कहा है, कि बिना सिया के राम की मूर्ति अकल्पनीय है।
By मृणाल पाण्डे
फोटो: सोशल मीडिया
मूर्ति पूजा किसी न किसी रूप में हर कहीं होती है। हमारे यहां भी। लेकिन देवताओं की मूर्तियों की रचना का मूल है अंतर्मन की दैवी सुंदरता को प्रणाम करना। यही मूर्ति पूजा जब राजनैतिक हित साधने की कोशिश बनती है तो विनाशकारी बन जाती है। यूनान में कभी एथेंस के बड़े नेता पेरिक्लेस ने कहा था कि हम कला की उपासना तो करते हैं, पर पुरुषार्थ के नाश के लिये नहीं। उसी तरह कालिदास ने भी शिव से पार्वती को कहलाया है कि यह लोकमत सही है कि मूर्त रूप की उपासना करनी चाहिये, लेकिन पापमय (पापवृत्तये) मन से नहीं ।
अब इस पर दो राय हो सकतीं हैं कि जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी ने अयोध्या में राम की विशाल मूर्ति सरयू तट पर लगाने का ऐलान किया तो उनकी मंशा क्या थी। बहरहाल मूर्ति बनने से पहले कांग्रेस के एक बहुत विद्वान वरिष्ठ नेता डाक्टर कर्ण सिंह ने योगी जी को एक खत लिख कर कहा है, कि बिना सिया के राम की मूर्ति अकल्पनीय है। डा. कर्णसिंह भारतीय परंपराओं के गहरे जानकार हैं और उनकी बात में दम है। तुलसीदास भी कह गये, ‘सियाराम मय सब जुग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी ।’ यानी लगाइये तो दोनो की मूर्ति, वर्ना आप अन्यायपूर्ण फैसले की तहत गर्भावस्था में जंगल भेज दी गई सीता को दोबारा अयोध्या से बहिष्कृत करेंगे।
बड़े लोगों की बड़ी बात।
Published: 15 Dec 2018, 7:00 AM IST
बहरहाल मित्रों, हमारे धर्मग्रंथों में मोटी तरह से मूर्ति पूजा की बाबत तथ्य इस तरह हैं :
मूर्ति पूजा वैदिक काल में होने के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। धर्मशास्त्र का इतिहास (वामन राव काणे) के अनुसार तब श्रद्धा की कमी नहीं थी, लेकिन जनता में अग्नि, सूर्य, वायु या वरुण का पूजन परोक्ष यानी इनडायरेक्ट तरह से होता था। निरुक्त देवताओं को अपुरुषविद् बताते हैं। हां, मंत्रों में उनके रूप की सुंदर कल्पना मिलती है।
मूर्ति पूजा और देवायतन पहली सदी के आसपास शुरू हुई और पहले महायान बौद्ध धर्म ने बुद्ध की प्रतिमायें बनाना शुरू किया। फिर जैन धर्मानुयायी भी जिनदेव की बहुत सुंदर प्रतिमायें बना कर उनको चैत्यों या स्तूपों में स्थापित करने लगे। फिर 14वीं सदी के लगभग पौराणिक हिंदू धर्म के भक्तों के लिये भी देव प्रतिमायें बनने लगीं, जिनको घर या मंदिर में रख कर पूजा जाता था। राधा कृष्ण की प्रतिमायें बनाने का विचार वल्लभाचार्य के एक बंगाली शिष्य की पत्नी जान्हवी देवी का था। जिन्होंने वृंदावन में राधाकृष्ण की पहली युगल मूर्ति निमाई नामक शिल्पकार से बनवा कर लगवाई थी।
8वीं से 11वीं सदी के बीच संभवत: इस्लाम की कठोर चुनौती के सामने आने पर, गैर मुस्लिम धर्म और उसके हिंदू राजाओं की तरफ से मेरु और कैलास शिखर को मन में रख कर विशालकाय राजसी मंदिर बनाने और सार्वजनिक पूजा आराधना की होड़ होने लगी। लेकिन हर गांव में पूजित लोक देवताओं (जिनमें यक्ष भी शामिल थे) के मंदिर जो थान या स्थान कहलाते हैं, आज तक आडंबर रहित बने हैं।
मत्स्यपुराण (258-22) के अनुसार घर में पूजी जाने वाली मूर्ति की ऊंचाई अंगूठे से लेकर 12 अंगुल तक ही होनी चाहिये। किंतु मंदिर में स्थापित होने वाली मूर्तियों का आकार 16 अंगुल तक का हो सकता है। विशालतर देव मूर्तियां, वह भी खुले में लगवाना वर्जित है। वाराहपुराण (130-5) के अनुसार यह उन 32 अपराधों की कोटि में है, जिससे दूर रहना चाहिये।