पाकिस्तान तो पाकिस्तान ही है! वहां राजनीति के दो-तीन मूल सिद्धांत हैं। पहला, यह देश जमींदारों और सामंतियों का है और उनके हितों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। दूसरा, सेना इस मूल सिद्धांत की संरक्षक है और तीसरा, पाकिस्तान में यदि कोई राजनेता या व्यक्ति इन बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन करता है तो उसे भारी कीमत और कई बार जान देकर चुकानी पड़ती है। चौथा, भारत विरोधी राजनीति पाकिस्तान की सियासत का महत्वपूर्ण अंग है।
लेकिन, समस्या यह है कि 21वीं सदी में जमींदारी प्रथा बीते दिनों की बात हो गई है। बाकी दुनिया की तरह पाकिस्तान की जनता भी जमींदारी प्रथा से मुक्ति पाने को आतुर है। अब 'स्टैबलिशमेंट' यानी सेना इस अंतर्विरोध को कैसे सुलझाए! लोगों की इसी इच्छा को पूरा करने के लिए एक खोखली लोकतांत्रिक व्यवस्था का ढोंग किया जाता है। इसके लिए देश में लोकतांत्रिक चुनाव होते हैं और एक राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री का चुनाव किया जाता है और सत्ता उसे सौंप दी जाती है। लेकिन इस लोकतांत्रिक ढोंग में सेना पहले से ही इस बात का ध्यान रखती है कि जो भी किसी सार्वजनिक राजनेता को सत्ता में चुने, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह पाकिस्तानी राजनीति के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन न करे।
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लेकिन लोकतंत्र की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं भी होती हैं। उदाहरण के लिए जनता जिसे भी चुनती है, वे उससे अपने विकास की उम्मीद करती है। पर विकास तो तभी संभव हो सकता है जब अतीत के आधार पर चल रही सामंती व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हो। इसलिए अक्सर जनप्रतिनिधि के सत्ता में आने के बाद वह व्यवस्था के मूल सिद्धांतों से बाहर निकलने की कोशिश करता है।
बस, इसी लम्हे में पाकिस्तान की जमींदारी और सामंती व्यवस्था की पहरेदार पाक सेना इस लोकतांत्रिक ढोंग को तोड़ती है और ऐसा करने की हिम्मत करने वाले जन नेता को उसकी औकात बताती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनमानी करने का ‘दुस्साहस’ करने वाले जननेता को न केवल सत्ता से जल्द से जल्द हटा दिया जाता है, बल्कि यदि वह सत्ता से हटने के बाद भी अपनी जिद पर अड़ा रहता है तो व्यवस्था उसे इतनी कड़ी सजा देती है कि आने वाले एक लंबे समय के लिए लोगों के सामने वह मिसाल बन जाती है।
पाकिस्तानी राजनीति को समझने के लिए यह प्रस्तावना इसलिए जरूरी है ताकि पाठक समझ सकें कि आजकल पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, वह क्यों हो रहा है और उसका अंतिम परिणाम क्या हो सकता है!
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अब पाकिस्तान के ‘जन’ नेता इमरान खान की ओर लौटते हैं। 2018 में जब इमरान खान प्रधानमंत्री चुने गए, तब पाकिस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया जानती थी कि खान साहब 'निजाम' यानी सेना की मर्जी से प्रधानमंत्री बने हैं। हकीकत भी यही थी कि सेना ने उन्हें प्रधान मंत्री बनाया था। उस समय सेना नवाज शरीफ से नाराज थी क्योंकि वह भारत के साथ संबंध सुधारने का सपना देख रहे थे। तब मियां नवाज शरीफ खुद जमींदार नहीं बल्कि एक कारोबारी परिवार से थे। वे ख्वाब देखने लगे कि अगर भारत से रिश्ते बेहतर होते हैं तो आधुनिक कॉरपोरेट यानी बिजनेस लॉबी मजबूत होगी।
जाहिर था कि अगर ऐसा होता तो इस बदलाव से देश की सबसे ताकतवर जमींदार लॉबी कमजोर हो जाती। इस प्रकार मियां नवाज शरीफ ने पाकिस्तानी व्यवस्था के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करने का दुस्साहस किया। इसके तुरंत बाद, नवाज शरीफ को जेल भेज दिया गया और फिर सेना द्वारा उन्हें निर्वासित कर दिया गया। उनके बाद सेना ने उनकी जगह इमरान खान को जनता और लोकतांत्रिक प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया था।
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सेना के कंधों पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे इमरान खान शुरुआत में तो खुशी-खुशी सेना की बातों पर अमल करते रहे। पाकिस्तानी सियासत पर नजर रखने वालों का मानना है कि वह सेना के प्रति वफादार थे कि हर मामले में सबसे पहले सेना की इच्छा का पता लगा लेते थे और उसके बाद ही कोई फैसला लेते थे। लेकिन एक लोकतांत्रिक नेता तो बहरहाल लोकतांत्रिक होता है। शायद खान साहब इसी खुशफहमी के शिकार हो गए कि जनता में वे इतने लोकप्रिय हो चुके हैं कि सेना की उपेक्षा कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने देश की विदेश नीति में कुछ ऐसे कदम उठाए जो पाकिस्तान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ थे।
वह रूस के इतने करीब आ गए कि जिस दिन रूस ने यूक्रेन पर हमला किया उस दिन इमरान खान पुतिन से मिल रहे थे। इसी प्रकार वे सऊदी अरब के खिलाफ तुर्की को महत्व देने लगे। पहले तो सेना ने उन्हें चुपचाप समझाने की कोशिश की होगी। लेकिन उन्होंने न केवल सेना की बात मानने से इंकार कर दिया बल्कि सेना को 'ठीक' करने का साहस भी किया। सबसे पहले, उन्होंने पाकिस्तानी शासन के सबसे शक्तिशाली निकाय आईएसआई प्रमुख जनरल असीम मुनीर को पद से हटाकर उनका तबादला कर दिया।
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फिर तत्कालीन पाक सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने जब दूसरे कार्यकाल की इच्छा जताई तो खान साहब काफी देर तक जनरल बाजवा की फाइल दबाए बैठे रहे। इसके बाद तो बस कयामत ही आ गई। सेना समझ गई कि उनकी बिल्ली उन्हीं पर म्याऊं करने लगी है और पंजे दिखा रही है। लिहाजा, उसके बाद से इमरान खान के साथ भी वही होने लगा जो उनसे पहले पाकिस्तानी राजनीति के लोकतांत्रिक नेताओं के साथ होता रहा है। उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया। फिर जेल भेजा गया जहां से आखिरकार जमानत पर बाहर आए। इस बीच, वह जनरल असीम मुनीर जिन्हें इमरान खान ने आईएसआई के प्रमुख पद से हटा दिया था, वे पाकिस्तान सेना के प्रमुख बन गए।
सामंती व्यवस्था का महत्वपूर्ण तत्व होता है अपने प्रतिद्वंद्वी से बदला लेना। तो अब पाक फौज के मुखिया जनरल असीम मुनीर 'खान साहब' को ठीक से अपनी औकात बता रहे हैं। ताजा खबर यह है कि इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) टूट रही है। कभी इमरान खान के सबसे करीबी दोस्त और राजनीतिक सलाहकार जहांगीर खान ने पीटीआई छोड़कर नई पार्टी बना ली है और उनके मुताबिक अब वह देशहित में काम करेंगे। पाकिस्तान में 'देश हित' का अर्थ है व्यवस्था का हित, यानी सेना का हित।
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इतना ही नहीं इमरान खान के खिलाफ हत्या का मामला भी दर्ज किया गया है। दूसरे शब्दों में, सेना ने इमरान खान को साफ संदेश दे दिया है कि ‘व्यवस्था’ का विरोध छोड़ दें वर्ना न केवल उनकी पार्टी को समाप्त कर दिया जाएगा, बल्कि जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह उन्हें भी हत्या के आरोप में फांसी दी जा सकती है। दुनिया जानती है कि 1979 में, पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को हत्या के एक झूठे आरोप में सेना प्रमुख जनरल जिया-उल-हक ने फांसी दे दी थी।
कुल मिलाकर तस्वीर यह है कि अब इमरान खान को तय करना है कि वह सिस्टम के आगे घुटने टेक कर अपनी जान बचाते हैं या फिर उन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह सूली पर चढ़ना पसंद होगा। आगे-आगे देखिए होता है क्या? लेकिन पाकिस्तानी राजनीति का इमरान खान प्रकरण अभी खत्म नहीं हुआ है। तो इंतजार कीजिए पाकिस्तानी राजनीति के कुछ और अहम नजारों का।
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