लगता है चुनाव आयोग छुट्टी पर है। ईसीआई, रेस्ट इन पीस। यह इलेक्शन ओमिशन है, इलेक्शन कमीशन नहीं। इस तरह की टिप्पणियां चुनाव आयोग पर की जा रही हैं। चारों ओर से आरोप लग रहे हैं कि वह सरकार के इशारे पर काम कर रहा है और 2022 में वह एकदम निरीह-बेचारा दिख रहा है। क्या वास्तव में चुनाव आयोग इतना कमजोर हो गया है और वह इस तरह समझौता कर रहा है? या फिर आयोग की यह आलोचना गलत, निराधार और किसी खास मकसद से की जा रही है?
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समीक्षक चुनाव आयोग की तमाम आलोचनाओं को इस आधार पर बकवास बता रहे हैं कि एक के बाद एक कई राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं। क्या बंगाल में ममता बनर्जी और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नहीं जीती? क्या यह चुनाव आयोग की निष्पक्षता को साबित नहीं करता है और क्या यह भरोसा नहीं देता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे? लेकिन चुनाव आयोग की आलोचना करने वालों का कहना है कि इन सवालों को थोड़ा दूसरे तरीके से किया जाना चाहिए। क्या चुनाव आयोग की गलतियां और उसके कामकाज निष्पक्ष और स्वतंत्र दिखते हैं? क्या वे सुसंगत और सबके लिए समान हैं?
पिछले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश में चल रहे मौजूदा चुनाव के दौरान आयोग के व्यवहार पर गौर करें। पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग ने राज्य सरकार के तमाम अधिकारियों का तबादला कर दिया था, एक विशेष पुलिस पर्यवेक्षक को तैनात किया था और राज्य में मुख्य निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय से कई लोगों को हटा दिया था। इसके ठीक विपरीत योगी सरकार ने तमाम मौजूदा सरकारों की तरह चुनाव से ऐन पहले बड़े पैमाने पर तबादले किए और प्रमुख पदों पर अपने ‘खास’ लोगों को तैनात किया। केन्द्र सरकार ने जल्द ही रिटायर होने वाले दुर्गा शंकर मिश्रा को चुनाव की अधिसूचना के कुछ हफ्ते पहले ही राज्य का मुख्य सचिव बनाकर भेजा। लेकिन आयोग चुपचाप बैठा रहा और उसने शिकायतों पर ध्यान ही नहीं दिया।
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पिछले महीने तक प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में संयुक्त निदेशक के तौर पर काम करने वाले राजेश्वर सिंह इस्तीफा देते हैं और लखनऊ से भाजपा उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल क रदेते हैं। राजेश्वर सिंह लखनऊ में जन्मे और वहीं पढ़े-लिखे हैं और उनकी पत्नी अभी लखनऊ में ही रेंज आईजी हैं। यह उम्मीद की जा रही थी कि आयोग उनका तबादला जिले से बाहर कर देगा। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस तरह की कोई कार्रवाई नहीं हुई।
हकीकत तो यह है कि योगी सरकार द्वारा तैनात किए गए ज्यादातर प्रमुख अधिकारियों को उनके पदों पर ही बने रहने दिया गया। समाजवादी पार्टी ने अतिरिक्त गृह सचिव अवनीश अवस्थी, पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल, गौतम बुद्ध नगर के पुलिस आयुक्त सहित अन्य उन अधिकारियों के स्थानांतरण के लिए चुनाव आयोग में आवेदन दिया जिन्हें योगी आदित्यनाथ का करीबी माना जाता था। लेकिन चुनाव आयोग ने इन शिकायों पर ध्यान नहीं दिया।
चुनाव आयोग की इस तरह की बातों का भी कोई मतलब नहीं कि उसके पास अधिकार नहीं कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के इंटरव्यू या राजनीतिक भाषणों के प्रसारण पर रोक लगा सके। लेकिन 2017 में गुजरात चुनाव के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ऐसे ही इंटरव्यू पर चुनाव आयोग ने रोक लगा दी थी। इस बार वही कानून यहां क्यों नहीं लागू किए जा रहे? प्रधानमंत्री का साक्षात्कार मतदान खत्म होने के बाद या अगले दिन भी प्रसारित किया जा सकता था क्योंकि पीएम किसी राष्ट्रीय आपातकाल या संकट की बात तो कर नहीं रहे थे! यह चुनाव के लिए तैयार किया गया एक राजनीतिक साक्षात्कार था और इसका उद्देश्य विपक्ष पर हमला बोलना था। जिस तरह सभी टीवी चैनलों ने एक साथ वोटिंग वाले दिन सुबह इसे प्रसारित करने का फैसला किया, वह अपने आप में संदेह पैदा करने वाला है। क्या इसमें चुनाव आयोग को कदम नहीं उठाना चाहिए था?
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उस दिन जब मतदान चल रहा था, प्रधानमंत्री दोपहर 12.16 बजे सहारनपुर में एक चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे जिसमें मतदाताओं को लुभाया जा रहा था। इतना ही नहीं, लगभग सभी टीवी पर प्रधानमंत्री की कार के अंदर का वह फुटेज प्रसारित किया गया जिसमें वह सड़क के दोनों ओर लाइन लगाए लोगों की भीड़ का हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे थे। यह कोई सामान्य मीडिया कवरेज तो था नहीं क्योंकि पीएम की कार के भीतर से फोटो शूट करने की इजाजत नहीं दी जाती। निश्चित रूप से यह फुटेज सरकार या फिर सरकारी ब्रॉडकास्टर की ओर से उपलब्ध कराए गए होंगे।
पीएम ने ऐसी ही ट्रिक का इस्तेमाल तब किया था जब 2021 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव हो रहा था। तब 27 मार्च को मतदान शुरू होने से एक दिन पहले उन्होंने मटुआ के एक मंदिर के दर्शन के लिए बांग्लादेश की आधिकारिक यात्रा का इस्तेमाल किया जो 30 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव को प्रभावित कर सकता था। तब भी भारतीय टीवी चैनलों ने मंदिर की यात्रा का सीधा प्रसारण किया था। 2019 में आम चुनाव के दौरान सातवें और आखिरी चरण के मतदान से एक दिन पहले पीएम ने उत्तराखंड के केदारनाथ में गुफा में ‘ध्यान’ किया और फोटोग्राफरों की एक टीम ने उन्हें ध्यान करते और ध्यान पूरा कर गुफा से निकलते कैमरे में कैद दिया। एक बार फिर यह सुनिश्चित किया गया कि वोटरों तक यह फोटो लाइव पहुंचे। निजी टीवी चैनलों के दौर से पहले सरकारी प्रसारक दूरदर्शन के लिए जरूरी था कि चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों को आनुपातिक प्रसारण समय दे। लेकिन चुनाव आयोग सभी को एकसमान अवसर देने में विफल रहा है।
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आरपीए अधिनियम की धारा 126 भी चुनाव के पूरा होने तक ‘एग्जिट पोल’ को प्रतिबंधित करती है और एक्जिट पोल को एक ऐसे जनमत सर्वेक्षण के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे पता चलता हो कि मतदाताओं ने राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों के संदर्भ में कैसा प्रदर्शन किया है। इसमें ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ को भी परिभाषित किया गया है जिसमें सरकारी तथा निजी स्वामित्व वाले इंटरनेट, रेडियो और टेलीविजन, इंटरनेट प्रोटोकॉल टेलीविजन; उपग्रह, जमीनी या केबल चैनल; मोबाइल और ऐसे अन्य मीडिया आते हैं। इस माममें में किसी भी उल्लंघन की स्थिति में दो साल की कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। लेकिन कितने को जेल भेजा गया?
चुनाव आयोग ने सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण के प्रयासों की भी अनदेखी की है। इसने रक्षा सेवाओं के दिवंगत प्रमुख जनरल बिपिन रावत के निधन के राजनीतिकरण के प्रयासों की अनदेखी की जैसे उसने वर्ष 2019 में पुलवामा आतंकी हमले के राजनीतिकरण को नजरअंदाज किया था।
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एक हालिया ट्रेन्ड यह है कि चुनाव से कुछ सप्ताह पहले नौकरी से इस्तीफा देकर सिविल और पुलिस अधिकारी सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते हैं। क्या नौकरीपेशा लोगों के खिलाफ कोई कानून नहीं है! क्या इन लोगों को वाकई चुनाव लड़कर जनता की सेवा करने का अधिकार है जबकि यह स्वाभाविक अनुमान होता है कि ऐसे लोगों ने नौकरी में रहते हुए सत्तापक्ष के हितों को पूरा किया होगा? क्या यह ट्रेन्ड स्वस्थ है? क्या यह सभी राजनीतिक दलों के लिए एकसमान अवसर उपलब्ध कराता है? क्या ऐसे अधिकारियों के लिए यह नियम नहीं होना चाहिए कि नौकरी से हटने के बाद वह कुछ समय तक इस तरह की गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते?
भारत का चुनाव आयोग इतनी अहम संस्था है जिसमें गिरावट की इजाजत नहीं दी जा सकती। इसे स्वतंत्र रखने की जरूरत है औ रइससे भी जरूरी है कि इसे निष्पक्ष देखा जाए।
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