बीजेपी जिस दिशा में देश को ले जा रही है, उससे चिंतित ज्यादातर लोग पश्चिम बंगाल में टीएमसी सरकार का इसलिए पक्ष लेते रहे कि इस पार्टी ने बीजेपी को दूर रखने की क्षमता दिखाई। ममता बनर्जी पिछले दस सालों से ऐसा कर रही हैं और देश का कोई भी और मुख्यमंत्री उनकी तरह की दृढ़ता और साहस नहीं दिखा सका है। इसके अलावा ममता ने भगवा पार्टी (और व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री) को बार-बार नीचा दिखाया है। हालांकि ऐसा करते हुए वह वस्तुत: आग से खेल रही हैं, संवैधानिक दायरे की लाल रेखा के करीब पहुंच रही हैं, एक उदार लोकतंत्र में स्वीकार्यता की सीमाओं को लांघ भी रही हैं।
यह सच है कि केन्द्र की बीजेपी सरकार देश के संघीय ढांचे पर, खास तौर पर, बंगाल पर लगातार हमला कर रही है। यह भी सच है कि जहर के असर को काटने के लिए जहर की ही जरूरत होती है और जंगल की आग से निपटने के लिए नियंत्रित आग की। लेकिन इन जवाबी उपायों को सावधानीपूर्वक मापने की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दवा से मर्ज बिगड़ न जाए। दुर्भाग्य से, ममता में इस प्रशासनिक कौशल की कमी है और उन्हें नहीं पता कि कब रुकना है या कब अपना रास्ता बदलना है।
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उनकी विफलता धीरे-धीरे उनके और बीजेपी के बीच के अंतर को मिटा रही है और वह इसे ही सच साबित कर रही हैं कि ‘ममता साड़ी में मोदी हैं’। उनका टकराववादी रवैया, अक्खड़पन और केन्द्र सरकार के साथ कामकाजी संबंध विकसित करने में उनकी असमर्थता राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। पुलिस के राजनीतिकरण पर उनका आक्रामक रवैया उनकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता को कम कर रहा है, न्यायपालिका के साथ टकराववादी रवैया कानून के शासन को खत्म कर रहा है। वह धीरे-धीरे बंगाल को अराजकता की ओर बढ़ा रही हैं।
इसका एक आयाम उनके कार्यकाल के दौरान लगातार सामने आने वाले घोटाले हैं- सारदा और नारद चिट-फंड मामले, रोज वैली, राशन कार्ड घोटाला, शिक्षकों की भर्ती, संदेशखली के आरोपी लुटेरे द्वारा भूमि हड़पना, मेदिनीपुर जिले के चंद्रकोना में फिल्म सिटी मामला… वगैरह। इनमें से ज्यादातर में उनकी पार्टी के नेता जेल में हैं और कई अन्य के खिलाफ जांच चल रही है। बीजेपी जिस क्रोनिज्म के लिए जानी जाती है, यह उससे कोई बहुत अलग नहीं।
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फिर कथित तौर पर टीएमसी द्वारा नियंत्रित ‘सिंडिकेट’ हैं जिनके बारे में कहते हैं कि वे घर निर्माण सहित विभिन्न वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए ‘हफ्ता’ वसूलते हैं। कोलकाता में मेरे मित्र और संपर्क मुझे बताते हैं कि यह सरकारी ‘आशीर्वाद’ के बूते चल रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि ममता के कैडर भला सीपीआई और सीपीआई (एम) या संघी कैडर से कैसे अलग हैं, जिन पर वह लगातार हमले करती हैं? पश्चिम बंगाल पुलिस उसी ‘नियंत्रित’ मोड में काम करती है, जैसा कि सीबीआई, ईडी और बीजेपी राज्यों में पुलिस करती है। फिर वह मोदी से किस तरह अलग हैं?
एक और समानता है। मोदी-शाह की जोड़ी की तरह ही उनमें हिंसा के पीड़ितों के लिए कोई सहानुभूति या करुणा नहीं है। हर घटना को राजनीतिक सुविधा और लाभ के तराजू पर तौला जाता है- हमने इसे संदेशखली से लेकर आर.जी. कर अस्पताल में एक युवा मेडिकल इंटर्न के बलात्कार और हत्या के मामले में देखा। ऐसे सभी मामलों में जनता की धारणा यही रही है कि ममता के लिए दोषियों को दंडित करने या व्यवस्था में सुधार करने की तुलना में राजनीतिक नफा-नुकसान ज्यादा अहम रहा। इस मामले में भी उनके और बीजेपी के बीच की रेखाएं धुंधली दिखती हैं।
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वैसे, जो हो रहा है, वह देर-सबेर होना ही था। पटरी से उतर चुके राज्य की सभी कमजोरियां आर.जी. कर मामले में सामने आ गईं। एक मुख्यमंत्री को ऐसे अपराध के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इस जघन्य अपराध से जुड़ी परिस्थितियों और उसके बाद की कार्रवाई के बारे में उनसे जवाब जरूर मांगा जा सकता है। दोनों पहलू बेहद परेशान करने वाले हैं, क्योंकि जिस संदिग्ध तरीके से जांच की जा रही है और जवाबदेही तय करने के प्रयास किए जा रहे हैं, वे वैसे ही हैं जिनकी वजह से ऐसा अपराध संभव हुआ। हमें आर.जी. कर अस्पताल के पूर्व प्रिंसिपल के राजनीतिक दबदबे पर सवाल उठाना होगा जिन्होंने पहले कम-से-कम दो बार अपना तबादला रद्द करवा लिया था। सवाल करना होगा कि उन्हें जागीर की तरह संस्थान को चलाने कैसे दिया गया और अस्पताल में व्याप्त भ्रष्टाचार पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? (लोगों के आक्रोश के बाद अब जाकर उनके खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं।)
इस घटना ने टीएमसी सरकार की सबसे घातक और अवैध नीतियों में से एक को उजागर किया है: नियम-कायदों को ताक पर रखकर पुलिस की ‘मदद’ के लिए हजारों लोगों को मासिक वेतन पर ‘नागरिक स्वयंसेवक’ के रूप में भर्ती करना। विपक्षी दलों का आरोप है कि यह सरकारी खर्चे पर टीएमसी कार्यकर्ताओं को नियुक्त करने का तरीका है। गिरफ्तार मुख्य आरोपी ऐसा ही स्वयंसेवक था और कथित तौर पर अस्पताल में हफ्ता और भर्ती रैकेट चलाता था। संभव है कि इस अर्ध-पुलिसकर्मी के दर्जे ने उसमें यह भाव भरा हो कि वह कुछ भी करके बेदाग निकल जाएगा। टीएमसी का यह दस्ता अन्य दलों के मिलिशिया और गुंडों से कैसे अलग हुआ?
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इसमें संदेह नहीं है कि सीबीआई इन स्थितियों और इस अपराध में उनकी संलिप्तता की सीमा की जांच करेगी। शव मिलने के बाद राज्य सरकार की कार्रवाई मुख्यमंत्री की छवि को खराब करती है और मामले में न्याय दिलाने की उनकी मंशा और क्षमता को लेकर संदेह पैदा करती है। ऐसा लगता है कि वह कानून को ईमानदारी से लागू करने और गलतियों को सुधारने की कोशिश की बजाय राजनीतिक अवसरवाद में अधिक रुचि रखती हैं।
लोगों के एक बड़े वर्ग ने यह भी संदेह जताया है कि वह किसी को बचाने की कोशिश भी कर सकती हैं। अभी तक इसका कोई सबूत नहीं है लेकिन सरकार की अब तक की कार्रवाई निश्चित रूप से यह भरोसा नहीं जगाती है कि सच सामने आ सकेगा। एक आम नागरिक इसे भला कैसे देखेगा- पहले आत्महत्या कहना, फिर अप्राकृतिक मौत और अंत में हत्या की बात स्वीकार करना; प्रिंसिपल को हटाने में ढिलाई और फिर कुछ ही घंटों बाद उन्हें और भी वरिष्ठ पद पर बहाल करना; एफआईआर दर्ज करने में देरी; लड़की के माता-पिता के साथ अस्वीकार्य और अमानवीय व्यवहार; भीड़ द्वारा की गई हिंसा की रोकथाम में पुलिस की अक्षमता जबकि भीड़ का इस्तेमाल अस्पताल में तोड़फोड़ करके लोगों के विरोध को दबाने के लिए किया गया।
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इससे भी बुरा यह हुआ कि जनता के गुस्से को समझने, उसे शांत करने और अपने रवैये में सुधार करने की जगह राज्य सरकार ने अपने आलोचकों, प्रदर्शनकारियों, डॉक्टरों और सोशल मीडिया पर आवाज बुलंद करने वालों को डराने और उन पर दबाव बनाने की कोशिश करके स्थिति को और खराब कर दिया। दिखाने के लिए जरूर पुलिस ने 280 लोगों को नोटिस जारी किए और कुछ को गिरफ्तार भी किया। झूठी खबरों को फैलने से जरूर रोकें लेकिन आलोचना को भी स्वीकार करें!
सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रदर्शनकारियों को दबाने के सरकार के प्रयासों की आलोचना की है। बंगाल पुलिस में दिल्ली, उत्तराखंड और यूपी पुलिस के सभी लक्षण हैं। क्या वे अगली बार बुलडोजर भेजेंगे? आरजी कर की घटना ने एक ही झटके में ममता बनर्जी की सरकार में जो कुछ भी गलत है, उसे सामने ला दिया है और यह उसे बीजेपी से अलग नहीं करता। ममता के लिए यह प्रकरण ‘कलिंग’ या ‘वाटरलू’ साबित हो सकता है - वह या तो रास्ता बदलकर बच सकती हैं या अड़े रहकर अपने अंत को बुला सकती हैं।
2026 आते-आते बंगाल के मतदाता फैसला कर सकते हैं कि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, हिंसा और अराजकता के इस दलदल में और नहीं फंसेंगे। तब शायद उनके पास कोई और विकल्प ही न बचे और वे मजबूर होकर डबल इंजन ‘सरकार’ का ‘लाभ’ उठाना बेहतर समझ लें! यह सब ममता बनर्जी पर निर्भर करता है। क्या वह खुद को और अपनी राजनीति को फिर से गढ़ सकती हैं? उनके पास अब भी समय है लेकिन इतना जरूर है कि यह तेजी से खत्म हो रहा है।
(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है)
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