यदि कहीं पहले से चिंगारियां सुलग रही हों और उसके बीच में कोई बड़ा विस्फोटक फैंक दिया जाए तो क्या असर होगा? कुछ ऐसी ही स्थिति मध्य-पूर्व में विख्यात ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में हुई मौत से उत्पन्न हो गई है।
दो कारणों से इस सैन्य कार्यवाही का असर और बढ़ गया है। एक वजह तो यह है कि हमला इराक की राजधानी बगदाद में हुआ और इस तरह पहले से संकटग्रस्त इराक में भी इसका भरपूर असर हो रहा है। दूसरी वजह यह है कि मारे गए जनरल सुलेमानी कोई सामान्य फौजी जनरल नहीं थे। वे ईरान के शक्ति संतुलन में सर्वोच्च नेता खामेनेई के बाद नंबर दो की हैसियत रखते थे। उनकी दूसरी विशेषता यह थी कि मध्य-पूर्व और आसपास के अनेक देशों के शिया लड़ाकू संगठन उन्हें अपने नायक के रूप में मानते थे। कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन आईएसआईएस को रोकने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और हैरानी की बात तो यह है कि यह एक ऐसा अभियान था जिसमें सुलेमानी और अमेरिकी वायु सेना ने आपसी सहयोग से अंजाम दिया था।
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इस बहुत विशिष्ट और व्यापक फौजी जनरल को चुन कर मारे जाने के बाद निरंतर तनाव का दौर चल रहा है और साथ में भविष्य के असर के बारे में चिंता बढ़ रही है। एक असर तो यह होगा कि ईरान परमाणु समझौते को बचाने की संभावना बहुत कम हो जाएगी। हालांकि, एकतरफा कार्रवाई में अमेरिका यह समझौता पहले ही छोड़ चुका है, पर यूरोप के कुछ देशों को यह उम्मीद थी कि वे इस समझौते को इस समय भी बचा सकते हैं। वह उम्मीद अब लगभग समाप्त हो गई है।
इसका अर्थ यह है कि ईरान द्वारा परमाणु हथियार विकसित करने की संभावना अब और बढ़ गई है। यदि ईरान परमाणु हथियार प्राप्त करता है तो मध्य-पूर्व के तीन अन्य देश- सऊदी अरब, तुर्की और मिस्र भी परमाणु हथियारों की दौड़ में शामिल हो सकते हैं। इस तरह अति संवेदनशील मध्य-पूर्व क्षेत्र में पांच देश परमाणु हथियारों की होड़ में आ सकते हैं। (इजराईल के पास पहले से परमाणु हथियार हैं)।
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ईरान में कट्टरपंथी और आक्रमक तत्त्व अधिक शक्तिशाली हो सकते हैं और इसका असर आगामी चुनावों पर भी पड़ेगा। अमेरिका की विदेशों में कम सैनिक भेजने की नीति पलट सकती है और मध्य-पूर्व में उसकी सैनिक गतिविधियां फिर से बढ़ सकती हैं। वहीं, इराक में अमेरिका और ईरान दोनों के बाहरी असर और उपस्थिति को कम करने के लिए आंदोलन चलते रहे हैं। अमेरिका की सैन्य कार्यवाही के बाद यह मांग और जोर पकड़ सकती है। इराक के पहले से कमजोर हुए मौजूदा सत्ताधारियों की स्थिति और कमजोर हो सकती है और जन-आंदोलन, युवा-छात्र आंदोलन अधिक मजबूत हो सकते हैं। लेबनान, यमन और सीरिया पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा।
ऐसी परिस्थितियों में कमजोर पड़ रहे आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के फिर से मजबूत होने की संभावना बढ़ सकती है। उसे पराजित करने के लिए ईरान और अमेरिका ने बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सहयोग किया था। अब यह संभावना बहुत कम हो गई है। इराक की सरकार कमजोर होने से भी आईएसआईएस के मजबूत होने की संभावना बढ़ेगी। इराक और सीरिया दोनों में आतंकवादी नए सिरे से मजबूत हो सकते हैं।
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विश्व के तेल निर्यातक देशों के लिए कीमत बढ़ने और निर्यात में कठिनाई आने की संभावना बढ़ सकती है। इस संदर्भ में भारत पर अधिक असर पड़ सकता है। भारत जैसे जिन देशों से मध्य-पूर्व में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर और कर्मचारी गए हैं, उन सबकी आजीविका और उनके द्वारा परिवारों को भेजी जाने वाली धनराशि पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है, जिसका उनके मूल देशों के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
मध्य-पूर्व के मौजूदा समीकरणों में सऊदी अरब, यूएई और मिस्र एक दूसरे के नजदीक हैं और अमेरिका तथा इजराईल के भी यह देश नजदीक हैं। ईरान के असर की लेबनान, सीरिया और यमन में महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है। जबकि तुर्की, अमेरिकी असर से बाहर निकलने की प्रक्रिया में है। हाल ही में लीबिया में उसने सऊदी अरब के विरोध में हस्तक्षेप किया है।
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ईरान-अमेरिका में तेजी से तनाव बढ़ा तो इन मौजूदा समीकरणों के आधार पर पूरा मध्य-पूर्व क्षेत्र अधिक अस्थिर और विभाजित हो जाएगा। यह स्थिति खतरनाक होगी और इस खतरे को कम करने के लिए यूरोपीयन यूनियन और रूस अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से भी इस दिशा में प्रयास होंगे। भारत की भी यही चाह होगी कि यह बिगड़ती स्थिति संभल जाए और इसके लिए हमें अमन-शांति के प्रयासों में भरपूर सहयोग देना चाहिए।
पर यदि ऐसे प्रयासों के बावजूद युद्ध भड़क गया तो इससे भयंकर तबाही होगी। ऐसे किसी भी युद्ध में बहुत विध्वंसक हथियारों का उपयोग होगा जो भयंकर जनसंहार तो करेंगे ही साथ में पर्यावरण की भी भयंकर तबाही होगी। तेल और गैस के भंडारों में आग लगने से पर्यावरण की तबाही दूर-दूर तक फैल जाएगी और डीप्लीटिड यूरेनियम के हथियारों का जहरीला असर बहुत देर तक रहेगा। ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन असहनीय हद तक बढ़ जाएगा।
अतः ईरान-अमेरिका तनाव से पैदा हुए इस संकट को आरंभिक स्थिति में ही कम करना विश्व के लिए बहुत जरूरी है और इसके लिए सभी देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को भरपूर प्रयास करने चाहिए।
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