आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर हर साल कुछ औपचारिकताएं पूरी कर ली जाती हैं। कुछ रस्म अदायगी होती है। महिलाओं के हक और लैंगिक न्याय की बात करते समय कई सवाल उठते हैं। संयोगवश मध्यप्रदेश के कुछ जिलों से इसी सप्ताह भारत जोड़ो न्याय यात्रा गुजरी। महिलाओं की परिस्थिति जानने का मौका मिला। एक ऐसा प्रदेश जो बहिनों को लाड़ली कहते नही थकता, वहां के हुक्मरानों की कथनी-करनी का अंतर साफ पता चलता है।
बीते पंद्रह साल में करीब 36,104 महिलाएं लापता हुई हैं। प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु दर में मध्य प्रदेश शर्मनाक रुप से अग्रणी है। हर तीन घंटे मे एक बच्ची र्दुव्यवहार का शिकार होती है। यह तो सब कई बार सुना गया है। मगर चंद महिला संघर्ष का साक्षात्कार इस दौरान हुआ।
बुंदेलखंड के असंख्य गांवों में आज भी दलित वर्ग की महिलाएं पैर मे चप्पल पहनकर प्रभुत्व संपन्न समाज के मोहल्ले से नहीं गुजर सकतीं। चाहे तपती धूप हो, कीचड़ या कड़कडाती ठंड। वे चप्पल अपने हाथ में लेकर चलने को विवश की जाती हैं।
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यात्रा के दौरान बुंदेलखंड की बहनों ने जब यह दारुण व्यथा सुनाई की, तब यात्रा की अगुवाई करते युवा नेता के नेत्र छलछला गये। उन्होंने अपने हाथ से चप्पल पहनाई। मगर यह किसी एक बहन का दुःख नहीं। दलित वर्ग की लाखों बहने इस क्रूर अमानवीयता का शिकार हैं। क्या वे लाड़ली नहीं? क्या उनका सम्मान नहीं होना चाहिए? उन बहनों का हौसला टूटा नहीं है। वे डटकर मुकाबला कर रही हैं। वे जानती हैं कि संविधान ने उन्हें समता का हक दिया है।
इसी यात्रा ने यह भी सिखाया कि कैसे पितृ सत्तात्मक समाज ने चंद काम और कौशल को लैंगिकता से जोड़ दिया है। यह भावना इतना जड़ पकड़ चुकी है कि उसने संस्थागत रुप ले लिया है। जब किसानों की बात होती है, तब पगड़ी वाले पुरुष की ही छवि सामने आती है। जबकि सर्वाधिक योगदान स्त्रियों का होता है। निंदाई, गुड़ाई, कटाई आदि में महिला ही जुटती है। ज्यादातर खेत में मजदूरी महिलायें ही करती हैं।
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जब एक किसान सभा में कुछ सीधे पल्ले की साड़ी पहने महिलाएं आने लगीं तब उन्हें रोका गया कि यह तो किसानों से संवाद का कार्यक्रम है। एक महिला ने आत्मविश्वास से लबरेज होकर मालवी भाषा मे जवाब दिया कि वे भी किसान हैं। सरसों, सोयाबीन की फसल उगाती हैं। उन्होंने खेती के मूल प्रश्न खड़े किए, बढ़ती लागत और गिरते दाम की बात रखी। न्यूनतम समर्थन मूल्य को अधिकार बनाने भर से बात नहीं बनेगी। बल्कि हर किसान की कम से कम एक तिहाई उपज की खरीद समर्थन मूल्य पर सुनिश्चित हो। यह मुद्दा उठाया। ऐसे में कौन कह सकता है कि महिलाएं खेती नहीं समझती।
किसान आंदोलन की बहनों का स्मरण हो आया। कामकाजी स्त्री और गृहिणी का वर्गीकरण भी संभ्रांत समाज की उपज है। जबकि कामगारी कौम की हर स्त्री अपने पंरपरागत पेशे से जुड़ी रहती है। उसे गृह काम का ही हिस्सा मानती है। उसके काम का कभी मूल्यांकन नही होता। पर वो निरंतर देश के विकास दर में अपना योगदान देती है। खेती, पशुपालन, दुग्ध दोहन उत्पादन, फल सब्जी, फूल का उत्पादन और व्यवसाय, लुहारी, बढ़ई, बेलदारी, कुम्हारी, मछली पालन कौन सा ऐसा काम है जो महिला नहीं करती। हथकरघा चलाकर साड़ी, धोती बुनती महिलाएं नेपथ्य मे चली जाती हैं। बुनकरों की बात होती है, तब केवल पुरुषों की छवि सामने आती है।
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कोमल सी दिखाई पड़ने वाली कृशकाय बहनें मध्यप्रदेश के हरदा जिले मे पटाखों की फैक्ट्री में हुई दुर्घटना का प्रतिरोध कर रही हैं। वे बेहद सामान्य परिवार की मेहनतकश मजदूर हैं। कई बहनें दिहाड़ी मजूदरी करती हैं। पर तेरह दिन से अनशन कर सभी मृतक घायल परिवारों के लिए न्याय की गुहार लगा रही हैं। उन्हे देखकर सीएए, एनआरसी का विरोध याद आया। जैसे वे बहनें संविधान को थामे चलीं। वैसे ही इन सामान्य सी बहनों ने बुलंद हौसले के साथ प्रतिकार करने की ठानी।
महिला दिवस पर कभी ऐसी सामान्य महिलाओं के विद्रोही चेतना का समारोह नहीं होता। जब इसी यात्रा में प्रदेश की राजधानी में बने पंच सितारा होटल से झुग्गियों को झरोखों से झांकने पर नजर से ओझल करने के लिए तोड़ा गया। तब फिर एक बार महिलाएं विरोध के लिए सामने आईं। प्रशासन के इस उलाहने के बावजूद की पढ़-लिखकर क्या करोगी, दसवीं की परीक्षा देने से वंचित हुई मुस्कान ने संघर्ष से मुंह नही मोड़ा।
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भारतीय समाज में नारियों को देवी कहा जाता है। इस दोहराव के बावजूद हकीकत किसी से छिपी नहीं। ज्ञान, अर्थ, शक्ति का स्रोत देवी को माना जाता है और पितृसत्ता महिलाओं को इन्हीं सब से वंचित करती है। भारत में सावित्रीबाई फूले ने जिस तरह बालिका शिक्षा के लिए संघर्ष किया, वो अद्वितीय है।
न्याय यात्रा ग्वालियर से आंरभ हुई थी। वहीं पर स्थित चतुर्भुज मंदिर की दीवारों पर नौवीं सदी में शून्य को अंकित किये जाने का विश्व का पहला लेख मिलता है। यह भी गौरतलब है कि दसवीं सदी के गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपने अंकगणित की रचना का आरंभ ’’ओ! लीलावती’’ से किया है। यह कयास लगाया जा सकता है कि लीलावती उनकी पुत्री थी। वे उसे सिखाते थे, या उसकी गणित में पारंगतता का परीक्षण करते थे। यदि अवसर मिले तो स्त्रियां हिमालय के शिखर को भी छू जाती है।
इसी यात्रा में छोटे से गांव से निकली मध्य प्रदेश की पहली पर्वतारोही बहन मेघा मिली। एवरेस्ट और अन्य दुनिया के दुर्गम पहाड़ों को चढ़ चुकी है। कठिन परिश्रम और साधना, शारीरिक मानसिक चुनौतियां का सामना करते हुए यह किया जाता है। शिखर पर पहुंचने पर शून्यता का एहसास होता है। शून्यता का दूसरा पहलू असीमितता भी है। स्त्री के अस्तित्व को शून्य करने की चेष्टा हजारों बरस से चली आ रही है। मगर उसकी चेतना असीमित है। यह उसने बारंबार साबित किया है।
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