जब से औरत का वजूद है, तब से उसके सवाल हैं और उन सवालों का जवाब तलाशे जाने की कोशिश और कशमकश भी जारी है। पितृसत्ता का ये अनकहा फरमान कि औरतें उसके मुताबिक ही सोचें-समझें, इसे औरतें लगातार चुनौती दे रही हैं, उन्हें तोड़ रही हैं और दुनिया के सामने बेहतर नजीर पेश कर रही हैं। यकीनन यह सदी औरत की सदी है, लेकिन उसके सामने अभी चुनौतियां और भी हैं।
उदाहरण के लिए इसाई औरतों ने तलाक पाने के हक के लिए लंबा संघर्ष किया उन्हें पति की नपुंसकता के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से तलाक पाने का हक ही नहीं था। वे अदालत पहुंचीं और अपने हक को हासिल किया। इसी तरह पारसी औरतों के किसी गैर-पारसी से शादी कर लेने पर उन्हें उनके मूल धर्म से बेदखल कर दिया जाता था, वक्त के साथ औरतों ने उसे भी नकारना शुरू किया। अंदरखाने विरोध सहा लेकिन उसका खात्मा ही कर डाला। मुसलमान औरतों ने तीन तलाक के खि़लाफ लंबी जंग जीती।
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हाजी अली दरगाह में माहवारी के दौरान प्रवेश पर लगाए गए निषेध पर सवाल उठा, बातचीत चली पर बातचीत से बात न बनी। मौलवी का गुरूर बात से कहां टूट सकता था, उसे अदालत ने ही तोड़ा। मुस्लिम बोहरा उप-समुदाय की औरतों ने धर्म के नाम पर महिला का खतना कराए जाने के खिलाफ आवाज उठाई, वह भी अदालत के दरवाजे पहुंच गईं। औरत की यौनिकता को नियंत्रित करने के लिए बोहरा समुदाय के धर्म गुरू सय्यदना का फरमान समुदाय के लिए आखिरी फरमान होता था, उनके मुताबिक औरत की योनि में हराम की बोटी होती है जो जवान होने पर उसे भटका सकती है, उसे बचपन में ही काट दिया जाना जरूरी है, जिससे बड़े होने पर लड़की में सेक्स की इच्छा ही जागृत न हो।
जिन लड़कियों का खतना नहीं हुआ होता सय्यदना उनके मां-बाप को सख्त सजा देते हैं। उन्हें किसी धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत की इजाजत नहीं होती। 20 लाख की आबादी वाले बोहरा समुदाय की 90% महिलाओं को खतने का दंश सहना होता है। जमाने से चली आ रही इस प्रथा को इस सदी में चुनौती मिली। औरतें इस फरमान के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। हिंदू औरतों की माहवारी में शनीशिगनापुर और शबरी माला मन्दिर में प्रवेश करने हेतु उठाए गए सवाल की गूंज पूरी दुनिया ने सुनी।
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खेल के मैदान में लड़कियां लगातार बाजी मार रही हैं, देश का नाम दुनिया में रौशन कर रही हैं। कह सकते हैं कि यह सदी औरत की सदी है। वह जिस मकाम की हकदार है उसे वह मिलना ही चाहिए। यूं कहें कि औरत के संघर्षो से उसे वो मोकाम मिल भी रहा है। लेकिन इतना भर उसकी जिंदगी की तस्वीर को मुकम्मल नहीं बनाता। उसके बढ़ते कदम के साथ-साथ पितृसत्ता उसे बराबर चुनौती देती रहती है, जिसका सामना भी उसे करना पड़ता है।
एक तरफ औरत कुछ पा रही है, दूसरी तरफ अभी भी वह जूझ रही है, पिछले 24 सालों से महिलाएं संसद में 33% आरक्षण की मांग करती रही थीं, बदले में व्यवस्था ने उन्हें बड़ी चालाकी से किनारे लगा दिया, नारी शक्ति वंदन अधिनियम बनाकर उसे अनंत काल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया। यह उसके साथ छलावा नहीं तो और क्या है? सवाल ये भी है कि उसे हासिल कुछ न हुआ और नाम रखा गया नारी शक्ति वंदन।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश होने के बावजूद फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए राज्यों में पुख्ता इंतेजाम नही हुए, न्याय पाने की आस दम तोड़ रही है। महिला-पुरूष बराबरी की संविधान की अवधारणा पूरी नही हुई है। हालिया घटनाओं में जहां बरेली की साक्षी दूसरी जाति में प्रेम विवाह कर लेने पर संघर्ष और भय में जीती है, वहीं मुम्बई की सोनाली प्रेम विवाह करने पर परिवार के हाथों ही मारी जाती है। कानपुर के घाटमपुर की दो नाबालिग बहनें जिन्होने अपने ऊपर हुए यौन अपराध की थाने मेे रिपोर्ट दर्ज कराई थी, पॉक्सो कानून में मामला चल रहा था, वो एक दिन पेड़ पर लटकती हुई पाई जाती हैं, उन पर मुकदमा हटा लेने का भारी दबाव था।
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राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक पिछले आठ सालों में भारत में बलात्कार की घटनाएं दो गुनी हो गई हैं। कुल बलात्कार का 12% केवल उत्तर प्रदेश में हो रहा है, जिनमें 55% बच्चियों को शिकार बनाया गया है। महिला पहलवानों का निरंतर संघर्ष और उन्हें मात देती सरकार की ताकत किसी से छिपी नहीं है। बृजभूषण शरण सिंह जैसे अपराधी और ताकतवर होकर उभरे हैं।
लव जिहाद के नाम पर बने कानून महिला को बेअक्ल मान कर चल रहे हैं, उन्हें अपने निजी रिश्तों का ब्योरा भी अब सरकार को देना होगा। उत्तराखंड सरकार यूसीसी लाकर अपनी पीठ थपथपा कर बहुत खुश है, अपने खाते में एक सफलता दर्ज कर देश में रिकार्ड बनाने के मूड में है, लेकिन न तो वो कानून महिलाओं के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया और न ही इसके निर्माण की बैठकों में सभी धर्म की महिलाओं को शामिल किया गया है। वो कानून भी कहता है कि आप लिवइन रिश्तों का हिसाब सरकार को दें। क्या यह औरत की निजता पर हमला नहीं है?
आज भारत का शुमार उन 10 देशों में है जोे दुनिया में औरतों के लिए सबसे असुरक्षित देश माने जाते हैं। गुजरे वेलेन्टाइन डे पर गोंडा, मुजफ्फरनगर, दतिया, ईटानगर में लड़कियों को प्यार करने के जुर्म में उनके अपनों ने ही मार डाला। ऐसे में सरकार का यह कहना कि लिवइन रिश्तों का हिसाब सरकार को दें, यह किसी मूर्खता से कम नहीं है। क्या यही महिलाओं का अमृतकाल है?
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महिला और बाल विकास मंत्रालय की अगस्त 2022 की रिपोर्ट बताती है कि लगभग हर दूसरी महिला ने अपने जीवन में कम से कम एक बार कार्यस्थल पर यौन शोषण का किसी न किसी रूप में सामना किया है, लेकिन इनमें से 55% से ज्यादा ने कभी भी कही भी इसके खिलाफ़ रिपोर्ट नहीं की है। यही रिपोर्ट आगे यह भी कहती है कि कार्यस्थल पर यौन शोषण के 70.17 लाख मामले दर्ज हुए, लेकिन हम सभी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि यह नंबर असल घटनाओं का एक छोटा हिस्सा भी नहीं है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्योरो के आंकड़े बताते हैं बीते 10 सालों में महिला के खिलाफ अपराध के मामलों में 75 फीसदी का इजाफा हुआ है। अगर इसी तरह से घटनाएं बढती गई तो महिलाएं समय पर नहीं खूंटियों पर टंगी नजर आएंगी। 64 प्रतिशत महिलाएं बाजार पर काबिज मंहगे सेनेटरी पैड खरीद पाने में आज भी असमर्थ हैं, लेकिन उन्हें सस्ते पैड उपलब्ध करा पाने में सरकार नाकाम है। जन-औषधि केन्द्र शहरों में तो कुछ सस्ते पैड उपलब्ध करा देता है लेकिन गांवों की महिलाओं की पहुंच से यह सब बहुत बाहर की बात है।
हर साल दस लाख से अधिक महिलाओं की मौत सर्वाइकल कैंसर से हो रही है। माहवारी प्रारम्भ होने पर 23 प्रतिशत लड़कियां स्कूल जाना छोड देती हैं। यह सारे सवाल गंभीर सवाल हैं। उसकी सुरक्षा, शिक्षा सेहत से जुड़े सवाल हैं जिन्हें सरकार और समाज को समझना और उनका हल तलाशना ही होगा। तभी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस सही मायने में हम मनाने के हकदार होंगे।
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